डेक्कन – डायरी @ डॉ. सुधीर सक्सेना

लाम की मानिंद है सियासत…

डॉ. सुधीर सक्सेना

राजनीति निर्मम होती है। वह किसी का लिहाज नहीं करती। हिन्दी – कवि सुदामा पांडेय की काव्य- पंक्तियों को किंचित फेरबदल के साथ कहें तो सियासत समूचा आदमी चाहती है, अपनी खुराक के लिये। वह किसी को भी खता पर बख्शती नहीं। कोई नहीं जानता कि राजनीति की भूरी-भूरी खाक-धूल कब किसको ढंक लेगी और कब अंधड़ किस मर्तबान का ढक्कन उघाड़ देगा। आज संसोपा, प्रसोपा, स्वतंत्र पार्टी, शेकाप, अगप  आदि को कौन याद करता है। किसी भी बैनर या विचार को समय के साथ प्रासंगिक बनाये रखना एक दुष्कर काज है। थिंक टैंकों का हश्र भी हमने देखा है। आज समाजवादी विचारों के कितने पुरोधा शेष हैं? सनातनी सेक्यूलरवाद की जितनी लानत-मलामत कर सकते हैं, कर रहे हैं; थिंक टैंक और सत्ता-शिविर की बात करें तो गोविंदाचार्य की सुध आज कौन लेता है। इन्हीं संदर्भों में गांधी- दर्शन की अक्षुण्णता और प्रासंगिकता का मूल्य और महत्त्व समझ में आता है और यह भी कि बापू क्यों विश्व के लिये महत्वपूर्ण और आशा-द्वीप हैं।
बहरहाल, राजनीति. आज पूर्णकालिक टास्क हैै। वह फूल टाइम जॉब है; चुनौती, जोखिम और अनिश्चितता से भरा हुआ। वह ‘खेलत में को का करे गुसैंया’ मार्का खेल नहीं है। राजनीति की गाथा में कोई ‘शांति- पर्व’ नहीं होता और यदि होता भी है तो उसमें भी युद्ध की तैयारियां जारी रखनी होती है। चुनाव 24 के नतीजे इसके परिचायक है। दक्षिण भारत के राज्य के चुनावी नतिजों की बात पर तो वे इन अवधारणाओं की पुष्टि करते हैं। छह दक्खिनी राज्यों में अन्य को तो छोड़िये, धुर-दक्षिण में तमिलनाडु और केरल में भारतीय जनता पार्टी ने तगड़ा होमवर्क किया और उसे इसका लाभ मिला। तेलंगाना में रेवंत की युक्तियां रंग लायी। आंध्र प्रदेश में चतुरसुजान चंद्रबाबू नायडू ने गठबंधन की जरूरत को बुझा। उनकी ‘त्रोइका’ रणनीति सफल रही। वह अभूतपूर्व बहुमत से सत्ता में लौट आये।
द्रविड़ राजनीति और द्र्रविड़ मॉडेल के कारण चर्चित तमिलनाडु के परिणामों की बात करें तो बड़ी दिलचस्प तस्वीर उभरती है। तमिलनाडु की राजनीति अर्से से दो पाटों की राजनीति है। इन दो पाटों के बीच औरों की तो छोड़िये, एक वक्त की अत्यंत शक्तिशाली और पैन-इंडियन पार्टी कांग्रेस भी पिस गयी। तमिलनाडु में सत्ता द्रमुक अथवा अन्नाद्रमुक की चेरी रही है और उन्हें चुनौती देना दूर की कौड़ी है। और ऊपर से तुर्रा यह कि अगर आपको तमिलनाडु के राजनीतिक परिदृश्य में बने रहना है तो आपको दोनों द्रविड़ पार्टियों में से किसी एक का दामन थामन होगा। कांग्रेस ने इस भेद और वक्त के तकाजे को बूझा। वह करिश्माई स्तालिन की पार्टी से जुड़ी। नतीजा सामने है। स्तालिन विरोधियों का सूपड़ा साफ हो गया। द्रमुकनीत गठबंधन की आंधी में तमिलनाडु से कांग्रेस के प्रत्याशी तो जीते ही, सटे हुए छोटे-से सूबे पेद्दुचेरि से भी उसके निवर्तमान सांसद वैथिलिंगम ने फिर से जीत का परचम लहराया।
तमिलनाडु की ध्रुवीकृत राजनीति में अन्नाद्रमुक का वोट-प्रतिशत तो बढ़ा, लेकिन वह अंक तालिका में जगह नहीं बना सकी। वह सिफर पर अटकी। यूं तो सिफर पर बीजेपी भी अटकी, अलबत्ता आश्चर्यजनक तौर पर उसने आगे के लिए जमीन तैयार कर ली। माना जा सकता है कि तमिलनाडु में बीजेपी की इस असफलता में दूरगामी सफलता की संभावना छिपी है। पार्टी की प्रांतीय ईकाई के मुखिया अन्नामलै कोयंबटूर से चुनाव हार गये, मगर उनके अथक प्रयासों और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लगातार दौरों ने पूरे प्रदेश के मतदाताओं को चुनावी रण में बीजेपी की उपस्थिति का एहसास करा दिया। यद्यपि, बीजेपी मतों की दौड़ में द्रमुक, अन्ना द्रमुक और कांग्रेस से बहुत पीछे है, किन्तु उसे उच्च मध्यम वर्ग और पिछड़ों का अच्छा समर्थन मिला। मुस्लिम मतदाताओं ने उसे सिरे से नकारा, किंतु ईसाई मतदाताओं के पंचमांश से कुछ कम मतदाताओं ने उसके उम्मीदवारों को वोट दिए।
तमिलनाडु में चुनाव 24 के नतीजों से अगर कोई खीझा हुआ है तो वह है अन्ना द्रमुक। द्र्रमुक-कांग्रेस और उनके छुटके साथियों की तो बल्ले-बल्ले है। वहीं अन्नाद्रमुक, जो कल तक बीजेपी की सहयोगी थी, तमिलनाडु में पांव टिकाये रखने की युक्तियां तलाश रही है। तमिलनाडु में सन 2026: में विधानसभा के लिए चुनाव होंगे। यह चुनाव अमाद्रमुक के लिए अग्निपरीक्षा होंगे। अन्नाद्रमुक के महासचिव ई. पलनीसामी पूर्व मंत्री एसपी रतुमणि की इस राय से कतई इतेफाक नहीं रखते कि यदि अन्नाद्रमुक और बीजेपी का गठबंधन कायम रहता तो वह 35 से 40 सीटें जीत सकता था। वह वीके शशिकला और पनीरसेल्वम के भिन्न धड़ो में एकता को भी महत्व नहीं देते। ओमालूर में बैठक के बाद उन्होंने दो टूक कहा कि सन 2026 के असेंबली चुनाव में अन्नाद्रमुक बीजेपी से कोई गठजोड़ नहीं करेगी और चुनाव मैदान में अकेली ही उतरेगी। इसमें शक नहीं कि अन्ना द्रमुक के ेलिए आगामी कल की राह पुरखार है। पीएमके और एनटीके जैसी छोटी पार्टियां विफल रहीं। राज्यपाल पद त्याग कर चेन्नै दक्षिण से बतौर बीजेपी प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतरी सुश्री सौन्दर्यराजन भी पराभूत हुई। उधर द्रमुक की सहयोगी काँग्रेसने भी दस की दस सीटें जीतीं। वाम दल दो संसदीय क्षेत्रों में सफल रहे। एमडीएमके, वीसीके तो जीते ही, आयूएमएल ने रामनाथपुरम में अपना कब्जा कायम रखा।
तमिलनाडु में बीजेपी के प्रांतीय अध्यक्ष के. अन्नामलै तमिलनाडु के भीतर और बाहर अर्से से सुर्खियों में हैं। दिलचस्प तौर पर वह जेरे-बहस भी है। पूर्व मुख्यमंत्री और अन्ना द्रमुक नेत्री जयललिता की तारीफ के लिये उनकी नुक्ताची भी हो रही है। उल्लेखनीय है कि अन्नामलै ने जयललिता को हिन्दुत्व की नेता की संज्ञा दी। अतीत के पन्ने पलटें तो सन 1991-96 और सन 2001-06 के अपने मुख्यमंत्रित्वकाल में जयललिता ने कई ऐसे फैसले लिए थे, जो भाजपा को रास आये। दिसंबर, सन 92 में बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद लालकृष्ण आडवाणी ने चेन्नै में प्रेस वार्ता में राष्ट्रीय एकीकरण परिषद में सुुश्री जयललिता के नवंबर में दिये भाषण का उल्लेख किया था। और उसे बीजेपी और अन्नाद्रमुक के दरम्यां सहयोग और सद्भाव की नींव निरूपित किया था। गौरतलब है कि करीब एक तिमाही बाद जयललिता ने कांग्रेस से अपने रिश्ते तोड़ लिये थे। कांग्रेस छोड़ कर अन्नाद्रमुक में शामिल तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष एसआर बालासुब्रमण्यम, जिन्हें बाद में पार्टी ने राज्यसभा में भेजा, की माने तो सुश्री जयललिता अयोध्या में कार सेवा की हिमायती थीं। एस. तिरुनवुक्कर सर ने अन्ना द्रमुक नेत्री पर द्र्रविड़ आंदोलन से छिटकने का आरोप भी लगाया था। दस साल बाद जयललिता को पत्रकारों ने यह कहते हुए भी सुना था कि यदि हम भारत में भगवान राम का मंदिर नहीं बना सकते तो भला और कहां बनायेंगे। यह किसी से छिपा नहीं है कि बीजेपी के तत्कालीन शीर्ष नेतृत्व के मन में द्रविड़ राज्य की इस ब्राह्मण मुख्यमंत्री के प्रति परोक्ष आसक्ति का भाव था। वह धर्मान्तरण पर पाबंदी के पक्ष में थी और बलि प्रथा की विरोधी। मंदिरों में निर्धनों के लिए अन्नदानम स्कीम से उनका विशेष अनुराग था। बाद में ऐसा अवसर भी आया, जब उनकी पार्टी ने अयोध्या, काशी और मथुरा के मुद्दों को बीस साल के लिये ठंडे बस्ते में डालने और बेरोजगारी उन्मूलन तथा बिजली और पेयजल की उपलब्धता सुनिश्चित करने पर ध्यान देने की बात कही।
उपरोक्त संदर्भों में बीजेपी और अन्ना द्रमुक के रिश्तों को सहज ही समझा जा सकता है। अन्नाद्रमुक और बीजेपी का अलग होना दोनों ही दलों के लिए घाटे का सौदा है। लेकिन दोनों के संग-साथ के भी खतरे हैं।ं बीजेपी क्षेत्रीय दलों के सहारे राज्यों में पांव पसारने की राजनीति की अभ्यस्त है। तेलंगाना में बीआरएस, महाराष्ट्र में शिवसेना तथा एनसीपी, पंजाब में अकाली दल के क्षरण से उसने लाभ उठाया है। अन्नाद्रमुक उस खतरे से बचना चाहती है। अन्नाद्रमुक और बीजेपी के मेल से बीजेपी का लाभ ज्यादा है, अन्नाद्रमुक को कम। सियासत वैसे भी लाम की तरह है और चुनाव जंग। बीजेपी की खूबी यह है कि वह बारहों महिने लामबंद रहती है और किसी भी कीमत पर जंग जीतना चाहती है। उसकी दिक्कत यह है कि दक्खिनी देगचियों में उसकी दाल मनमाफिक गल नहीं रही है। विलाशक अन्नामलै नेतृत्य विहीन अन्नाद्रमुक के कार्यकर्ताओं को लुभाना चाहते हैं, लेकिन डेक्कन की राजनीति उत्तर सी ऋजुरैश्विक नहीं है।

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