दास्ताने-झारखंड @ डॉ. सुधीर सक्सेना
चुनाव की घंटी और बीजेपी की अँटी
- डॉ. सुधीर सक्सेना
महाराष्ट्र और झारखंड में अभी चुनावी तारीखों का ऐलान नहीं हुआ है, लेकिन दोनों ही प्रांतों में सियासी तवा गरम है और अजब-गज़ब घट रहा है। महाराष्ट्र में जहाँ चाचा (शरद पवार) और भतीजे (अजित पवार) में खटास हद दर्जे तक बढ़ गयी है और अजित को उनके गृह नगर पुणे में सहयोगी दल बीजेपी के कार्यकर्ता ही काले झंडे दिखा रहे हैं, वहीं अल्पकाल के लिये झारखंड के मुख्यमंत्री रहे चम्पई सोरेन की वाया कोलकाता दिल्ली-यात्रा को बीजेपी की ओर पींगे बढ़ाने के उपक्रम के तौर पर देखा जा रहा है।
झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा और कांग्रेस की साझा सरकार है। सन 2009 से पहले झारखंड बीजेपी के ताबे में था। झारखंड में कमल के मुरझाने का दुःख बीजेपी को सालता है। धनुष- बान और पंजे की मिलीजुली सरकार को सत्ताच्युत करने की बीजेपी की सारी कोशिशें बेकार रही हैं। 15 नवंबर, सन 2000 को अस्तित्व में आये झारखंड ने अब तक बतौर मुख्यमंत्री सात चेहरे देखे हैं। ये हैं: बाबूलाल मरांडी, अर्जुन मुंडा, शिबू सोरेन, मधु कोड़ा, रघुबर दास, चंपई
सोरेन और हेमंत सोरेन । लगभग पाव सदी के अंतराल में इस आदिवासी बहुल राज्य में दो बार राष्ट्रपति शासन भी लगा। यहां शीर्ष नेताओं का भ्रष्टाचार के आरोपों से बिंधना आम बात है। मुख्यमंत्री रहते हुए हेमंत सोरेन को जेल की हवा भी खानी पड़ी। उनके कारा-काल में चम्पई सोरेन ने कुछ माह खड़ाऊ सरकार चलाई। वह सन 1975 में ‘दिकूओं’ को खदेड़ने के लिये छेड़े गये आंदोलन के कारण पहली दफा सुर्ख़ियों में आये शिबू सोरेन, जो ‘गुरुजी’ के नाम से समादृत हैं, के पुत्र और उत्तराधिकारी हैं तथा हाल के घटनाक्रम के फलस्वरूप आदिवासी अस्मिता के जुझारू प्रतीक के तौर पर उभरे हैं I
ये ही वे संदर्भ हैं, जिनमें झारखंड की राजनीति के सूत्र छिपे हुये हैं। झारखंड का आदिवासी समुदाय क्रांतिकारी बिरसा मुंडा को भगवान व धरती आबा मानता है। स्वाधीनता दिवस पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की बिरसा मुंडा के बारे में ‘गलत बयानी’ की समूचे अंचल में’ विपरीत और तीखी प्रतिक्रिया हुई है तथा इसे गंभीर अपराध मानते हुए सार्वजनिक क्षमायाचना की मांग भी उठी है। दिलचस्प तौर पर झारखंड की राजनीति में उसकी खनिज संपदा की भी खासी भूमिका है और उसके दोहन पर कुबेर घरानों की लोलुप दुष्टि है। मार्के की बात यह है कि सत्ता के खेल में इन घरानों की सीधी रुचि है I सत्ता की कलें घुमाने का खेल खेलने के वे आदी हो चुके हैं।
झारखंड में इस साल चुनाव होना तय है I
स्थितियां भले ही प्रतिकूल हों, लेकिन इसे चुनाव आयोग ज्यादा नहीं टाल सकता। दिल्ली की मंशा है कि जैसे भी हो झारखंड में खेला हो जाये । उसे हर कहीं शिंदे, अजित पवार, ज्योतिरादित्य और सुवेंदु मार्का मोहरे चाहिये। चम्पई सोरेन उसके लिये बिसात पर ताजा मोहरा हैं। चपई की ख्याति भले ही झारखंड के ‘टाइगर’ के तौर पर हो, किंतु दिल्ली के रिंग मास्टरों के लिये उसे पूंछ से पकड़ना मुश्किल नहीं है। कहने को चंपई भले ही बेटी से मुलाकात के लिये निजी यात्रा पर दिल्ली आने की बात कहें, लेकिन उनका बरास्ते कोलकाता दिल्ली जाना, गांव में घर से झामुमो का झंडा उतारना और सोशल मीडिया मंच पर पोस्ट इस बात की चुगली कर रहे हैं कि घात में बैठे मछेरों ने सियासी तालाब की इस मछली के सामने ‘लासा’ फेंक दिया है। इस बीच बिहार के सीएम रहे जीतन राम मांझी की पोस्ट ने नेपथ्य के खेल की बानगी दे दी। मांझी ने लिखा- “चंपई दा, आप टाइगर थे, टाइगर हैं और टाइगर ही रहेंगे। एनडीए परिवार में आपका स्वागत है। जोहार टाइगरI” पार्श्व के खेल को समझने के मान से यह सूचना मायने रखती है कि असम के सीएम हेमंत बिस्वसरमा बीजेपी के झारखंड प्रभारी हैं I
जहां तक चंपई के झामुमो का कूचा छोड़ने से संभावित नफे-नुकसान की बात है, कांग्रेस के नेता अजॉय कुमार का कहना मायने रखता है कि यदि चंपई बीजेपी में शामिल भी होते हैं, तो भी झारखंड में ‘इंडिया’ गठबंधन को किसी मुश्किल का सामना नहीं करना पड़ेगा।
उलटे ऐसा होने से पूरे राज्य में बीजेपी नेताओं में मतभेद पैदा होंगे। चम्पई बीजेपी में गये तो बाबूलाल मरांडी, अर्जुन मुंडा और मधु कोड़ा का क्या होगा?भाजपा को अपने नेताओं का अपमान करने की आदत है।
कुमार कुछ भी कहें, लेकिन बीजेपी को यह खेल खेलने का चस्का लग गया है। उसकी इसी आदत पर तंज कसते हुए मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने कहा कि बीजेपी गुजरात, असम और महाराष्ट्र से लोगों को लाती है और दलितों, अल्पसंख्यकों, आदिवासियों और पिछड़ों के बीच नफरत फैलाने का काम करती है और उन्हें लड़ाने की कोशिश करती है। समाज की तो छोड़िये, वह पार्टियों और परिवारों को तोड़ने का काम करती है। वह विधायकों को खरीदती है। ट्राइबल कार्ड खेलते हुये हेमंत ने कहा कि चम्पई ट्राइबल लीडर हैं, वे कहीं नहीं जायेंगे।
हेमंत गोड्डा में जब यह कह रहे थे तो उनका दो टूक तात्पर्य था कि आदिवासी नेता बिकाऊ नहीं होता। राज्य में इस साल चुनाव होने हैं, लेकिन चुनाव की तारीख केंचुआ नहीं, विपक्षी पार्टी तय करेंगी। हेमत का स्पष्ट कहना है कि केन्द्रीय चुनाव आयोग अब संवैधानिक संस्था नहीं रही। उस पर बीजेपी ने कब्जा जमा लिया है।
झारखंड में चुनाव की घंटी का जल्द बजना तय है। लेकिन हेमंत के कथन और सारे घटनाक्रम को रूपक में बांधें तो कहना होगा कि चुनाव की घंटी बीजेपी की ‘अंटी’ में है। सिर्फ सयाने ही नहीं, नौसिखुवे भी जानते हैं कि अंटी में और क्या-क्या धरा जाता है और उसके बूते क्या कुछ नहीं किया जा सकता?