बस्तर के काकतीय राजवंश का इतिहास: शरद चंद्र गौड़

शरद चंद्र गौड़

बस्तर में 14 वीं-शताब्दी के पूर्वार्ध से काकतीय राजवंश का शासन रहा है। काकतीय वंश जो कि चालुक्य वंश के नाम से भी जाना जाता रहा है, के बस्तर में प्रथम शासक बने अन्नम देव। काकतीय वंश का उदय दक्षिण भारत के तेलंगाना राज्य से माना जाता है। तेलंगाना के काकतीपुर में इस वंश ने प्रथम नगर की स्थापना की एवं इसी नगर से इस वंश ने अपना वंशनाम काकतीय प्राप्त किया। शिलालेखों से प्राप्त जानकारी एवं विद्वानों के शोध से यह पता चला कि बस्तर के राजा काकतीय तथा पाण्डुवंश में उत्पन्न हुए। काकतीय वंश के राजाओं का राज्य दक्षिण के वारंगल में था। वहाँ के राजा प्रतापरूद्र देव के छोटे भ्राता अन्नदेव ने वारंगल से पलायन कर दक्षिण में दण्डकारण्य क्षेत्र में आश्रय लिया एवं संघर्ष कर काकतीय वंश की नींव रखी। वारंगल से अन्नदेव के पलायन का कारण मुस्लिम शासको से संघर्ष बताया जाता है। दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के दो प्रमुख सेनापति मलिक काफुर एवं ख़्वाजा हाजी ने वारंगल पर आक्रमण कर प्रताप रूद्र देव को पराजित किया।

ऐसा माना जाता है कि रक्ष संस्कृति से पृथ्वी की रक्षा के लिये ब्रह्मा ने चुलुक से एक वीर पुरूष की उत्पत्ति की जिसने चालुक्य वंश का प्रारंभ किया। इसी लिये चालुक्य वंशी बस्तर नरेश विष्णु की पूजा करते हैं। बस्तर में काकतीय वंश के अंतिम महाराजा प्रवीर चन्द्र भंजदेव थे। उनकी माता महारानी प्रफुल्लकुमारी देवी की मृत्यु लंदन में सन् 1936 में हुई। वारंगल में काकतीय वंश की आठवीं शासिका महारानी रूद्रांबा के बड़े नाती प्रतापरुद्र देव वारंगल के महाराजा बने एवं उनके छोटे भाई ने बस्तर के दण्डकारण्य क्षेत्र में पलायन कर नागवंशी राजाओं को पराजित कर काकतीय वंश की नींव रखी। अन्नमदेव ने सन् 1313 में राजा के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त की एवं 42 वर्षों तक राज्य करने के पश्चात् 77 वर्ष की आयु में सन् 1358 में उनकी मृत्यु हुई। उन्होने बारसूर तथा दण्तेवाड़ा पर विजय प्राप्त कर नागवंशी राजाओं की राजधानी रहे चक्रकूट पर विजय प्राप्त की। ऐसा माना जाता है कि तत्कालीन चक्रकूट(वर्तमान बस्तर) वारंगल पर आश्रित राज्य नहीं था। यहाँ पर काकतीय शासक ने विजेताओं के समान व्यवहार न कर एक सामान्य राजा की भांति ही व्यवहार किया। उस समय नागवंशी शासकों का प्रमुख नगर बारसूर था। आज भी बारसूर में मिले पुरातात्विक अवशेष उसके वैभव की कहानी आप कहते हैं। मामा-भांजा का मंदिर हो अथवा गणेशजी की विशाल बलुआ पत्थर से बनी प्रतिमा, उस काल की कला एवं संस्कृति की अनुपम धरोहर है।
कहा जाता है कि अन्नमदेव को देवीय वरदान था कि वह जहाँ तक भी अपने विजय अभियान में जायेंगे, देवी उनके साथ-साथ जायेंगी एवं देवी के पायल की आवाज उन्हें सुनाई देती रहेगी किंतु यदि अन्नमदेव ने पीछे मुड़कर देखा तो फिर देवी के पायल की आवाज उन्हें कभी सुनाई नहीं देगी एवं उनका विजय अभियान रूक जायेगा । उत्तर बस्तर के अपने विजय अभियान में जब अन्नदेव निकले, तब पैरी नदी को पार करते समय उन्हें देवी की पायल की आवाज सुनाई देनी बंद हो गई और उन्होंने पीछे मुड़कर देखा। पैरी नदी की रेत में पैर धंस जाने के कारण देवी की पायल नहीं बजी थी। बस यहीं उनका विजय अभियान रूक गया। देवी की पायल के नाम पर ही उस नदी का पैरी पड़ा।
अन्नमदेव की मृत्यु के पश्चात सन् 1358 से 1379 तक हमीरदेव ने राज्य को मजबूती प्रदान की। हमीर देव की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र भैराज देव गद्दी पर बैठा एवं उसने 1379 से 1408 तक शासन किया। भैराज देव के शासन काल तक नागवंशी राजाओं की बची-खुची शक्ति भी समाप्त हो गई एवं बड़े डोंगर का क्षेत्र भी उनके हाथ से निकल गया। भैराज देव की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र पुरूषोत्तम देव 1408 में गद्दी पर बैठा एवं उसने 1439 तक शासन किया। पुरूषोत्तम देव एक प्रतापी एवं महत्वाकांक्षी राजा था। उसने रायपुर के कल्चुरियों पर आक्रमण किया किंतु उसे पराजय का मुँह देखना पड़ा। गनीमत थी कि रायपुर के कल्चुरी राजा ने विजय प्राप्त करने के पश्चात भी बस्तर पर अधिकार करने का प्रयास नहीं किया।
पुरूषोत्तम देव ने पैदल चल कर जगन्नाथ पुरी की तीर्थ यात्रा की एवं भगवान जगन्नाथ के मंदिर में सोना-चांदी , हीरे-जवाहरात चढ़ाये। बस्तर नरेश की श्रद्धा से प्रसन्न होकर भगवान जगन्नाथ ने स्वप्न में आकर उन्हें रथपती की उपाधी दी। तब से लेकर आज तक बस्तर में दशहरा पर्व के अवसर पर विशाल काष्ठ रथ की परिक्रमा होती है। पहले रथ पर राजा बैठा करते थे, किंतु बदली परिस्थितियों में अब माँ दंतेश्वरी का छत्र रथ पर रहता है। साथ में उसके पुजारी भी रथ की सवारी करते हैं। पुरूषोत्तम देव के शासन काल में राजधानी मंधोता से बस्तर कर दी गई।
पुरूषोत्तम देव के पश्चात उनके पुत्र जयसिंह देव ने सन् 1439 से 1457 तक शासन किया। जयसिंह देव के पश्चात उसके पुत्र नरसिंह देव ने 1457 से 1501 तक कुल 44 वर्षों तक शासन किया। नरसिंहदेव की मृत्यु के पश्चात प्रताप राज देव गद्दी पर बैठे। उन्होंने अपने पड़ोसी राज्य गोलकुण्डा पर आक्रमण किया किंतु पराजित होकर उन्हें जंगलों में छिपना पड़ा। किंतु भाग्य से घने जंगलों के कारण गोलकुण्डा की सेना को वापिस जाना पड़ा एवं काकतीय वंश एवं प्रताप राज देव की गद्दी बच गयी। प्रतापदेव के पश्चात उनके पुत्र जगदीश राय देव सन् 1524 में गद्दी पर बैठे और उन्होंने 14 वर्षों तक शासन किया तथा उनकी मृत्यु के बाद उनके पुत्र वीर नारायण देव ने सन् 1538 से 1553 तक शासन किया। वीर नारायण देव के पुत्र वीर सिंह देव का राज्यारोहण 1553 में हुआ। इनके शासन काल में कलचुरी राजा त्रिभुवन साय ने बस्तर पर विजय प्राप्त की किंतु इस विजय के बाद भी बस्तर राज्य का स्वतंत्र अस्तित्व बना रहा। यह काल मुगल बादशाह अकबर का शासन काल भी रहा है किंतु मुगलों ने भी कभी बस्तर पर विजय प्राप्त नहीं की।
दृगपाल देव ने 1620 से 1649 तक शासन किया किंतु शासन काल के संबन्ध में विद्वानों में मतभेद रहे हैं। दृगपाल देव की असामायिक मृत्यु के कारण 13 वर्ष की उम्र में उनका पुत्र रक्षपाल गद्दी पर बैठा। इनके शासन काल में गोलकुंडा के मुसलिम शासक ने बस्तर पर आक्रमण किया। रक्षपाल को गुप्त स्थान पर जाना पड़ा। वहीं उसकी रानी रुद्र कुंवर ने एक ब्राह्मण के घर शरण ली जहाँ बस्तर के प्रतापी राजा दलपत देव का जन्म हुआ। रक्षपाल देव की मृत्यु के पश्चात सत्ता का संघर्ष गहरा गया एवं उसके बड़े पुत्र दलपत देव की अनुपस्थिति का लाभ उठाकर उसकी सौतेली माँ ने अपने भाई को गद्दी सौंप दी। किंतु दलपत देव ने जैपुर राजा की मदद से अपना खोया हुआ राज्य पुन: प्राप्त किया एवं वे वास्तविक रूप से 1722 में राजा बन पाये। इनके शासन काल में नागपुर के मराठों का हस्तक्षेप बस्तर राज्य में शुरू हो गया था। दलपत देव के छोटे भाई प्रताप देव ने मराठों की मदद से दलपत देव की सत्ता को हस्तगत् करने का प्रयास किया। इनके काल में हैदराबाद के निजामों ने भी बस्तर पर आक्रमण किया। दलपत देव के द्वारा बनाया गया विशाल तालाब दलपत सागर आज भी उनकी याद दिलाता है।
दलपत देव के पुत्र दरियाव देव ने सन् 1775 में राजपाट की बागडोर संभाली। किंतु दरियाव देव के भाई अजमेर सिंह ने भी गद्दी पर आपना दावा प्रस्तुत किया। अजमेर सिंह महाराजा दलपत देव की पटरानी का पुत्र था, अत: उसका दावा बस्तर के राजा बनने का लगता था। किंतु अवस्था में वह दरियाव देव से छोटा था। अत: राजपाट दरियाव देव को ही प्राप्त हुआ। बाद में अजमेर सिंह ने बड़े डोंगर पर अपना अधिकार कर अपने आप को वहाँ का राजा घोषित कर दिया। अजमेर सिंह कांकेर राजा का दामाद था। अत: उसने कांकेर के राजा के साथ मिल कर दरियाव देव पर आक्रमण कर उसे परास्त भी किया। दरियाव देव को भाग कर जैपुर राजा के पास शरण लेनी पड़ी। इस प्रकार लगभग दो वर्षों तक अजमेर सिंह ने पूरे बस्तर पर राज्य किया। दरियाव देव ने जैपुर महाराजा एवं रायपुर के मराठा सरदार बिम्बाजी भोंसले के साथ संधि की एवं दोनों की सम्मिलित सैनिक सहायता के बल पर अजमेर सिंह को परास्त किया। अजमेर सिंह बड़े डोंगर भाग गया। एवं पुन: उसने दरियाव देव पर हमला किया किंतु दरियाव देव ने संधि करने के बहाने अजमेर सिंह को बुलाया एवं उसपर अचानक आक्रमण कर घायल कर दिया। बाद में उसकी मृत्यु घावों के कारण हो गई। इस प्रकार दरियाव देव का शासन काल बस्तर के इतिहास में महत्व रखता है। गद्दी के लिये हुए संघर्ष में मराठों और जैपुर राज्य की घुसपैठ बस्तर राज्य में शुरू हो गई। दरियाव देव के शासन काल के बाद किसी ना किसी रूप में बस्तर राज्य बाहरी हस्तक्षेप का शिकार रहा। बड़े डोंगर क्षेत्र के हलबा लोगों ने कभी दरियाव देव का समर्थन नहीं किया। अत: दरियाव देव ने बड़े डोंगर के हलबा लोगों का बड़ी ही बेदर्दी के साथ दमन किया। उसने अपनी राजधानी जगदलपुर से केसलूर स्थानांतरित कर दी थी।
दरियाव देव की मृत्यु के पश्चात उसका अल्पवयस्क पुत्र महिपाल देव जो कि उस समय सिर्फ 9 वर्ष का था, गद्दी पर बैठा। किंतु राज काज का संचालन उसके चाचा उमराव सिंह के नियंत्रण में था। उमराव सिंह ने मराठों की मदद से बस्तर पर आक्रमण किया। रामचन्द्र बाध के नेतृत्व में मराठों ने महिपाल सिंह को परास्त किया एवं उमराव सिंह को राजा की प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। किंतु मराठा सेना की वापसी के पश्चात महिपाल ने अपना राज्य फिर से प्राप्त कर लिया। उमराव सिंह ने कोटपाड़, पोड़ागढ़, रायगढ़, उमरकोट आदि जो क्षेत्र संधि कर जैपुर राजा को दे दिये थे, उन्हें पुन: जैपुर राजा से प्राप्त करने का प्रयास किया। किंतु वह ही नहीं उसके पश्चात कोई भी राजा इस प्रयास में सफल नहीं हो पाया। आज भी ये भूभाग उड़ीसा राज्यांतर्गत आते हैं। ज्ञातव्य हो कि काकतीय वंश के पहले नलवंशी राजाओं ने बस्तर राज्य की राजधानी पोड़ागढ़ को ही बनाया था।
नागपुर में भोंसले शासको के पतन एवं अंग्रेजो के प्रभाव क्षेत्र में वृद्धि के कारण महिपाल देव ने अंग्रेज शासन के प्रतिनिधि मेजर पी.वाम. एग्न्यू के साथ संधि की। संधि में उल्लेखित शर्तों के अधीन महिपाल देव ने नागपुर राज्य के अधीन रहना स्वीकार किया। महिपाल देव के नर्म रूख के कारण ब्रिटिश रेसिडेन्ट का हस्तक्षेप बस्तर राज्य में बढ़ने लगा। 1836 में नागपुर राज्य द्वारा दिये गये निर्देशों के अनुसार बस्तर राज्य के दीवान की नियुक्ति ब्रिटिश रेसिडेन्ट की स्वीकृति के बिना संभव नहीं रही। साथ ही दीवान के अधिकार राजा के बराबर होने लगे एवं दोनों में टकराव की स्थिति भी बनने लगी। सही मायने में राजा के अधिकार अंग्रेजों के हाथ में जाने लगे। राजा महिपाल देव की मृत्यु के पश्चात उनके पुत्र भूपाल देव ने राजपाट संभाला एवं उन्होंने 1842 से 1853 तक शासन किया। भूपाल देव का अपने सौतेले भाई लाल दलगंजन सिंह से जीवन पर्यंत संघर्ष चलता रहा। भूपाल सिंह ने लाल दलगंजन सिंह को शासन में बहुत से अधिकार भी दिये किंतु उसकी महत्वाकांक्षाओं का अंत नहीं हुआ। उसने नागपुर के मराठा शासकों एवं अंग्रेजों के साथ मिल कर भूपाल के विरूद्ध शिकायतें की। प्रजा को भी भड़काया। इस प्रकार भूपालदेव के शासन का अधिकांश समय अपने सौतेले भाई के साथ संघर्ष में ही निकल गया। भूपाल ने अपने शासन काल में बहुत से तालाब खुदवाये। उनमें से कुछ आज भी सुरक्षित हैं। भूपाल देव की मृत्यु 47 वर्ष की आयु में हो गई एवं उसके अल्प वयस्क पुत्र भैरम देव को गद्दी पर बैठा दिया गया। उस समय उनके चाचा जो कि भूपाल देव की शिकायत पर नागपुर में जेल की सजा काट रहे थे, शासन की देखभाल के लिये बस्तर भेज दिये गये। भैरम देव के शासन काल में लार्ड डलहौजी की हड़पनीति की बदौलत नागपुर का मराठा राज्य सीधे अंग्रजों के नियंत्रण में चला गया क्योंकि भोंसले राजा रधुजी तृतीय की 1853 में मृत्यु के समय उसके कोई पुत्र नहीं था। 1855 में जार्ज इलियट छत्तीसगढ़ के डिप्टी कमिशनर बने। उन्होंने बस्तर का दौरा किया एवं यहाँ के राजा एवं दीवान से मुलाकात की। 1862 में डिप्टी कमिशनर ग्लासफर्ड ने बस्तर का दौरा किया।
भैरम देव की मृत्यु के पश्चात 6 वर्ष की आयु में रूद्र प्रताप देव 29 जुलाई 1891 को गद्दी पर बैठे। शासन की वास्तविक बागडोर दीवान एवं अंग्रेज शासन द्वारा नियुक्त अधिकारियों के हाथ में थी। राजा रूद्र प्रताप देव की शिक्षा राजकुमार कालेज रायपुर में हुई। उन्हें अंग्रेजी भाषा का भी अच्छा ज्ञान था। मध्य प्रदेश के प्रथम मुख्य मंत्री पं. रविशंकर शुक्ल ने भी उन्हें प्राइवेट टयूशन दी थी। उनका विवाह उड़ीसा राज्य के एक राजा सूढल देव की पुत्री कुसुमलता देवी के साथ हुआ था। इनसे राजा रूद्र प्रताप देव को एक पुत्री प्रफुल्ल कुमारी देवी की प्राप्ति हुई जो बाद में बस्तर राज्य की पहली महिला शासिका बनी। इन्होने राजा रूद्र प्रताप देव पुस्तकालय की स्थापना की जो कि आज भी संचालित है। इन्हीं के शासन काल में आधुनिक राजमहल का निर्माण भी किया गया। चौराहों के शहर बस्तर को इसका स्वरूप इन्हीं के शासन काल में प्राप्त हुआ। इनके शासन काल में दीवान एवं पालीटिकल ऐजेंट के अधिकार अत्यधिक बढ़ गये एवं राजा द्वारा स्वतंत्र रूप से निर्णय लेना असंभव हो गया। हालांकि प्रथम विश्व युद्ध के समय रूद्र प्रताप देव ने अंग्रजों की मदद की थी एवं उन्हें सेंट जार्ज आफ जेरूसलम पदक भी प्राप्त हुआ था।
राजा रूद्रप्रताप देव के कोई पुत्र नहीं था। अत: उनकी मृत्यु के पश्चात 1921 को उनकी पुत्री राजकुमारी प्रफुल्ल कुमारी देवी मात्र 11 वर्ष की उम्र में गद्दी पर बैठी। 1933 में अंग्रेज सरकार ने महारानी का दर्जा प्रदान किया। उन्होंने 1935 में भारत के वायसराय से मुलाकात की। साथ ही इन्होनें यूरोप के कई नगरों का भी भ्रमण किया। इनका विवाह मयूरभंज राजपरिवार के प्रफुल्ल चन्द्र भंजदेव के साथ 22 जनवरी 1927 को संपन्ना हुआ। इनकी दो कन्याएं कमला देवी एवं गीता देवी एवं दो पुत्र प्रवीर चन्द्र एवं विजय चन्द्र हुए। महारानी का देहांत लंदन में 28 फरवरी 1936 को हुआ।
इनकी मृत्यु के पश्चात इनके बड़े पुत्र प्रवीर चन्द्र भंजदेव 6 वर्ष की अवस्था में गद्दी पर बैठे एवं वे बस्तर के अंतिम शासक रहे। जब वे गद्दी पर बैठे, तब बस्तर के एडमिनिस्ट्रेटर ई.सी.हाइड थे। इनके द्वारा नियुक्त समिति के द्वारा बस्तर का शासन संचालित था। महाराजा प्रवीर की शिक्षा राजकुमार कालेज रायपुर, व इंदौर और देहरादून की मिलेट्री अकादमी में हुई। कर्नल जे.सी.गिप्सन को उनका अभिभावक बनाया गया था। 15 अगस्त 1947 को देश आजाद हुआ एवं प्रवीर चन्द्र भंजदेव ने 1 जनवरी 1948 को बस्तर राज्य का विलय भारत गणराज्य में कर दिया। 25 मार्च 1966 को जगदलपुर राजमहल गोलीकाण्ड में महाराजा प्रवीर चन्द्र भंजदेव अनेक आदिवासियों के साथ मारे गये। वास्तविक रूप से महाराजा प्रवीर ने बस्तर पर भले ही कभी राज न किया हो किंतु बस्तर के जनमानस में उनकी प्रतिष्ठा ईश्वर के रूप में रही एवं आज भी उन्हें बस्तर के घर-घर में पूजा जाता है। उनकी तस्वीर को पूजा के कमरे में अन्य देवी देवताओं के साथ रखा जाता है। महाराजा प्रवीर ने वास्तविक रूप से बस्तर वासियों के दिल पर राज किया और यह राज्य आज भी कायम है।
( सौजन्य- – बस्तर एक खोज – शरद चंद्र गौड़ )

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