राजाघाट और घोड़ाघाट, सकरी नदी कवर्धा

प्रस्तुति- लक्ष्मीकांत मुकुल

पुराने जमाने मे राजा-महाराजा से लेकर आम आदमी तक का गुजारा नदी, तालाब में होता था। तदनुरूप घाट बने होते थे। इनके नाम जाति से लेकर व्यवसाय तक कई आधारों पर हो जाते थे। ये एक हद तक सामाजिक स्तरीकरण को दिखाते हैं तो इनका एक कारण ‘उचित व्यवस्था’ भी रहा है।

कवर्धा शहर ‘सकरी’ नदी के दाहिने तट पर स्थित है। हमारा मोहल्ला फुलवारी चौक,(तत्कालीन डिलवा पारा और राजमहल चौक का संधिस्थल) कवर्धा के राजमहल के पास ही है। राजमहल सकरी नदी के दाहिने तट पर लगभग तीन-चार सौ मीटर की दूरी पर है। हमारा मोहल्ला अधिकतम पांच सौ मीटर की दूरी पर होगा। नदी का दाहिना किनारा जिधर राजमहल है, ऊँचा है, इसी कारण इस तरफ को ‘डिलवा पारा’ कहा जाता रहा। बाँया किनारा जिधर समनापुर है अपेक्षाकृत समतल है, इसलिए बाढ़ का पानी उधर फैल जाता था। मगर यह ऊंचाई अधिक दूरी तक नही है,राजा फुलवारी के पास इधर भी नीचाई है। यही कारण है कि 1998 के बाढ़ में फुलवारी के आगे के (समनापुर पुल के आस-पास) काफी मकान ढह गए थे।

अस्सी और नब्बे के दशक तक, बचपन से युवावस्था तक हम लोग नहाने सकरी नदी जाते थे। नदी में नहाने के कारण तैरना भी सीख गए, इसलिए सामान्य बाढ़ में कोई परेशानी नही होती थी। अधिक बाढ़ होने पर कभी-कभी नहाने भोजली तालाब चले जाते थे, इसका एक कारण और था बाढ़ में पानी गंदा हो जाता था,पीलापन बढ़ जाता इसलिए कपड़े धोने से ‘रच’ जाते थे इस कारण भी भोजली तालाब जाना पड़ता था। कभी -कभी नदी किनारे ‘झिरिया’ खन (खोद) कर भी उसके साफ पानी (फरी पानी)मे नहाते थे। गरमी के दिनों में भी जब नदी का पानी बहुत कम हो जाता तब भी भोजली तालाब जाते थे, क्योंकि गरमी में उसमे सरोधा बांध से पानी भरा जाता था।कई बार पानी कम होने से, अधिक तैरने से पीठ में छोटे-छोटे ‘दोमटा’ उभर आते थे जिसे तालाब के ‘पार’ के गर्म पत्थरों से छुआते थे। इससे वह ठीक तो क्या होता एक क्षण के लिए अच्छा जरूर लगता था।

हमारे नहाने का मुख्य जगह ‘राजा घाट ‘ था। राजा घाट राजमहल के ठीक उत्तर में है। नाम से ऐसा प्रतीत होता है रियासत काल मे किसी समय यहां राज परिवार के सदस्य नहाने आते रहे होंगे।इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि वहां घाट पर नहाने के लिए ग्रेनाइट पत्थरों से सीढ़ीदार संरचना बनी हुई है। यह संरचना लगभग जलहरी की तरह है, मगर इसमे केवल सीढ़ीदार परिधि है, बीच खोखला है, जिसके कारण यह दो समान भुजाओं में विभक्त हो गया है। संरचना की परिधि वाला भाग नदी से बाहर है, तथा भुजाओं का अधिकांश हिस्सा नदी में घुसा हुआ है। यह संरचना अपने परिधि के केंद्र में उँची हैं तथा नदी की तरफ जाने पर सीढ़ी के समान नीची होती जाती है,जो जलस्तर के घटने-बढ़ने को ध्यान में रखकर बनाया गया है।आखिर में नदी के अंदर घुसी हुई दो सीढियां लम्बी तथा समतल थी, जिससे नहाने तथा कपड़ा धोने में सुविधा होती थी। वहां पानी कम गहरा था जिससे पानी मे खड़े होने से वयस्क व्यक्ति के कमर तक आता था। हम छोटे थे इसलिए अधिक ऊंचा लगता था। नब्बे के दशक तक पानी मे डूबी दोनो आगे की भुजाएं सुरक्षित थी, मगर वर्तमान में गिर गई हैं, मगर एक वहीं पर हैं।

सीढ़ी के नदी में प्रवेश के स्तर से कह सकते हैं कि नदी का मार्ग वहां पर उसके निर्माण के समय से नही बदला है। वैसे यह संरचना सौ-डेढ़ सौ साल से अधिक पुरानी नही जान पड़ती। उस संरचना के पीछे ईंटो के दीवार के अवशेष हैं,जहां सम्भवतः शिव मंदिर था, क्योंकि ऊपर अभी भी स्थानीय स्तर पर शिवलिंग की पूजा करते हैं।राजाघाट में पुरूष नहाते थे।

वहां आस-पास नदी के दाहिने तरफ पीली मिट्टी(पिरौढ़ी)की चट्टान हैं। उस समय दीपावली से आस-पास मोहल्ले के स्त्री-पुरुष-बच्चे घर की पुताई के लिए यहां से ‘पिरौढ़ी’ खोदकर ले जाते थे।नब्बे के दशक तक अधिकांश मकान इधर कच्चे थे। हम जब प्राइमरी कक्षाओं में थे तब इन पत्थरों को घिसकर ‘कलम’ बनाया करते थे। वहीं राज महल के पास ही एक भवन है जिसे ‘देवान बंगला’ कहते थे । ज़ाहिर है यह रियासत काल का ‘दीवान बंगला ‘ होगा।

‘राजाघाट’ से लगभग पचास मीटर पूर्व में स्त्रियां नहाती थीं। मगर उस घाट का कोई नाम नही था। वहां पीली चट्टान नदी के समानांतर फैली थी, जिससे कपड़ा धोने के लिए अलग से पत्थर की आवश्यकता नही पड़ती थी।

पूर्व में लगभग सौ मीटर और आगे बढ़ने पर ‘घोड़ाघाट’ था। रियासत काल मे सम्भवतः यहाँ घोड़ो को नहलाते रहे होंगे। यहां तक आते-आते पीली चट्टान का क्षेत्र समाप्त हो जाता है। हम बहुत छोटे थे तो लगभग इसी घाट में नहाते थे। नदी के दाहिने तरफ कई ‘बारी’ थे, जिसमे सब्ची लगे रहते थे। कई जगह सिंचाई के लिए नदी में ‘टेड़ा’ लगा रहता था। घोड़ा घाट के नीचे मल्लाह(केंवट) लोग ‘संडईया काड़ी’ डुबाये रखते थे, जिसके ठीक से भीगने पर रस्सी अलग कर ली जाती। उसकी जो ‘काड़ी’ बच जाती उससे ‘मछली भुंजते’ या छप्पर छाने या ‘पलानी’ छाने का काम काम आता। कई बार हमारी अम्मा नहलाकर हमे बिना कपड़े के(नंगे) घर भेज देती थी, जिससे हम घर आकर कपड़े पहनते थे।

घोड़ाघाट के पास नदी के बाएं किनारे में बहुत बड़ा ‘आम बगइचा’ था, कुछ पेड़ दाहिने तट पर भी थे। गरमी दिनो मे दोपहर या नहाने के समय भी ‘आमा झोर्राते’ थे। या कभी ‘हवा गरेरा’ आता तो दौड़ते ‘आमा बीनने’ जाते।बरसात के दिनों ने अक्सर ‘पूरा’ आता। अधिक ‘पूरा’ में तैरना तो कठिन था, मगर जब पानी थोड़ा कम हो जाता तो हम सब दोस्त बिना घर मे बताए दोपहर को नदी तैरने जाते।नंगा नहाना रहता इसलिए कपड़े की कोई जरूरत न थी। मगर अधिक तैरने के कारण आँख लाल हो जाती थी, जिससे घर मे पता चल सकता था, इसलिए देर से घर जाने की कोशिश करते जिससे आँख सामान्य हो जाए।

इतने सालों तक नहाने के दौरान कभी नही सुना कि इस क्षेत्र में किसी की डूबने से मृत्यु हुई हो। अपनी बात कहूँ तो बहुत छोटा था तो एक बार अम्मा के साथ नहाने गया था। ‘बड़े अम्मा’ भी साथ थी। नहाते-नहाते मैं फिसलकर बहने लगा तो बड़ी अम्मा ने आगे बढ़कर पकड़ लिया था। इसी तरह एक बार भोजली तालाब को ‘आर-पार’ करते समय बीच मे बहुत थक गया था, मगर फिर भी हिम्मत करके बाहर आ गया। ठंड के दिनों में जब कभी बारिश भी हो जाती और ‘झड़ी’ लग जाती तो नदी किनारे लकड़ी जलाते जिसमे मुख्यतः बेशरम और ‘दातुन’ के ‘चिरी’ की लकड़ी होती थी। हाँथ-पैर में तेल उन दिनों खाने के तेल(फल्ली तेल) को ही लगाते थे। सिर में नारियल तेल लगाते थे, वह न रहे तो फल्ली तेल से ही काम चलाना पड़ता था।

आज राजघाट और घोड़ाघाट का सौंदर्य खो गया है, नदी में पानी पहले जैसे नही रहा, शहर के बढ़ने से किनारे के ज़मीन में लोग बस गए हैं। आमा बगइचा लगभग खत्म हो गया है, नालियों के नदी में गिरने से थोड़ा पानी रहता है वह भी प्रदूषित हो गया है, अब बहुत कम लोग नदी में नहाते हैं। इधर पानी की सुविधाएं बढ़ से भी लोग घर मे ही नहाते हैं।

अजय चन्द्रवंशी, कवर्धा (छ. ग.) मो. 9893728320


Spread the word