कविता@ स्मिता सिन्हा
लोकतंत्र
हम कुछ नहीं करते
सिवाय उन गलियारों में झांकने के
तमाम अधूरे प्रश्नों के बदले
सिर्फ एक पूरे प्रश्न का उत्तर
ढूँढ़ने के बजाय
हम निकल जाते हैं
सिर झुकाए थके कदमों के साथ
उन चौखटों के बाहर
हम कुछ नहीं करते
जब हमारे कई ज़रूरी सवालों के सामने
वे खड़े करते जाते हैं
जाने कितने गैरजरूरी सवाल
और हम उनमें ही उलझ कर रह जाते हैं
हम तब भी कुछ नहीं करते
जब वे हमारे मुँह पर ही पलट देते हैं आईना
और खुद नकाब पहन निकल जाते हैं
लगातार करते जाते हैं वे खारिज
हमारी माँगे ,हमारे धरने ,
हमारी भूख ,हमारी विवशता ,
हमारी आत्महत्या ,हमारे सपने
और अपने किये वो तमाम वादे
हम तब भी कुछ नहीं करते
सिवाय चौक चौराहों पर ठुंसी सी पड़ी
उस भीड़ का हिस्सा बनने के
बेवजह के चिंतन व विमर्शो के साथ
इन अनियमितताओं के साथ संतुलन बनाने के
हम कुछ भी नहीं करते
जबकि हम
विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं ॥