चुनाव- 24: अवाम को सलाम! @ डॉ. सुधीर सक्सेना

जनादेश 24 आ चुका है। वह स्पष्ट है। क्रिस्टल क्लियर। किसी मणिभ की नाई पारदर्शी। अबकी बार, 400 पार के नारे के बरक्स इस जनादेश के निहितार्थों को सहज ही बूझा जा सकता है। तुमार तो खूब बांधा गया, लेकिन गारंटियां थोथी साबित हुई; निष्प्रभ और बेअसर। दस साल पहले के कांग्रेस मुक्त भारत के जुमले में बीजेपी ने आसेतु हिमालय हवा तो खूब फूंकी, लेकिन जनता ने कंदुक की हवा निकाल दी। नरेन्द्र मोदी की गारंटियों के मुकाबले उजली संभावना बनकर उभरे राहुल गांधी। वायनाड (केरल) और रायबरेली (उत्तर प्रदेश) से भारी मतों से जीत कर संसद में पहुंचे। यही नहीं, नेहरू-गांधी परिवार के पिछले चार से अधिक दशकों से अंतरंग सदस्य रहे केएल शर्मा भी अमेठी से बड़बोली नेत्री स्मृति ईरानी को परास्त कर विजयी रहे। स्वस्थ्य लोकतंत्र और मुद्दों की राजनीति के लिहाज से सांगली से निर्वाचित विशाल पाटिल और पप्पू यादव की ‘ज्वाइनिंग’ के बाद कांग्रेस का संसद में आंकड़ा 101 तक पहुंचना सुखद है। आसार बने हैं कि सत्ता पक्ष के लिए अब सांसद में विपक्ष की आवाज को दबाना न तो आसान होगा और न ही विपक्ष की आवाज नक्कार खाने में तूती की आवाज साबित होगी। नयी संसद में राहुल की तार्किकता को महुवा मोइत्रा जैसों की आवाज यकीनन और धार देगी।
सिर्फ सांख्यिकी की बात करें तो बीजेपी 272 के जादुई अंक तक नहीं पहुंच सकी है। दो सौ बहत्तर के चमकीले शीर्षांक से वह तीस पायदान पीछे हैं। जाहिर है कि बिलों को पारित करने के लिए उसे बाहरियों की जरूरत हर सूंू बनी रहेगी। ईवीएम में पेंच, केन्द्रीय चुनाव आयोग की लचर और लिजलिजी भूमिका और अनेक संसदीय क्षेत्रों में कुछ सौ से कुछ हजार के बीच वोटों से जीत को एकबारगी छोड़ भी दे तो आये परिणाम बीजेपी के प्रति आवाम की सोच और सलूक का परिचय देते हैं। फैजाबाद (अयोध्या) में सपा की जीत के बाद जिस प्रकार वहां के मतदाताओं को भक्त-संप्रदाय ट्रोल कर रहा है, वह दुर्भाग्यपूर्ण और विषाक्त मानसिकता है। गौर करें कि शपथ ग्रहण के समय जम्मू में बस यात्रियों पर आतंकी हमला होता है। दूसरी ओर चिर बैरी पाकिस्तान के साथ भारतीय क्रिकेट टीम क्रिकेट मैच खेल रही होती है। इस बीच खबर आती है कि बीजेपी को वोट नहीं देने पर पर बीड़ में आरक्षण समर्थकों पर हमले किये जा रहे हैं। बीड़ में मनोज जरांगे पुन: अनशन पर बैठ जाते हैं। मणिपुर में सीएम के काफिले पर हमला होता है। अब बातों को जोड़े और बीजेपी की रीति-नीतियों और दावों के खोखलेपन को समझने की कोशिश करें।
8 जून को लखनऊ में आप पार्टी के दफ्तर में संवाददाताओं से चर्चा में आप के नेता संजयसिंह ने कुछ पते की बातें कहीं। उन्होंने संकेत दिया कि बीजेपी की अनिच्छा या इंकार की स्थिति में इंडिया गठबंधन स्पीकर के चुनाव में तेलुगु देशम का समर्थन कर सकता है। बकौल संजय, यदि बीजेपी का स्पीकर चुना जाता है, तो तीन खतरे है: एक, छोटे दलों को तोड़े जाने का खतरा, दो, विपक्षी सांसदों को बोलने पर मनाही और तीन, संविधान की धज्जियां उड़ाये जाने का खतरा! संजय के मुताबिक, पिछली लोकसभा में विपक्ष के 150 सांसदो को निलंबित किया गया।
संजय सिंह ने यह भी कहा कि प्रमुखत: टीडीपी और जद (यू) के समर्थन की यह सरकार 13 दिन भी चल सकती है और तेरह महिने भी। क्योंकि यूसीसी और अग्निवीर योजना को लेकर इन दोनों दलों से बीजेपी की मतभिन्नता है। और फिर, मोदी अटलबिहारी वाजपेयी नहीं हैं। मोदी अहंकार और नफरत की राजनीति करते हैं। तभी बीजेपी फैजाबाद की सीट हार गयी। यही नहीं, अयोध्या के साथ-साथ वह इलाहाबाद, चित्रकूट, सुल्तानपुर जैसी सीटें भी हार गयी। उसे सालासार, रामेश्वर, तिरुपति में भी मात मिली।
कयास कई है। यह मनमर्जी की खुदमुख्तार सरकार नहीं है। यह बीजेपी की राजनैतिक और मोदी की नैतिक पराजय है। किन्तु उनमेें जनादेश की सार्वजनिक स्वीकारोक्ति और सम्मान का साहस नहीं है। उलटे कुतर्कों के आधार पर पार्टी की तीसरी बार जीत का नैरेटिव गढ़ा जा रहा है। किसी भी कीमत पर सत्ता में आने की बेताबी के पीछे नेहरू से बराबरी, अर्श के फर्श पर आने की भयभीति और बेखटके राज के दरम्यान घपलों – घोटालों के पर्दाफाश के कारणों का हाथ है। बीजेपी नाम की पार्टी विद ए डिफरेन्स अब सत्ता के कुंड के बाहर नहीं रह सकती। उसके जबड़ों में सत्ता का स्वाद लग चुका है। मगर सन 2014 या सन 2019 और सन 2024 में फर्क है। स्वयं को नान बायोलाजिकल प्रोडक्ट, अयोनिज, अनंडज और अविनाशी अवतार निरूपित करनेवाले विश्वगुरु अब बैसाखी-गुरु हैं। बीजेपी के विजेता सांसदों में अब वह 116 वीं पायदान पर हैं। उन्होंने सन 2002 में भाजपा के शीर्ष नेता और तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सीख की चिंता नहीं की थी, किन्तु नयी परिस्थितियों में उन्हें राज- धर्म, जो वस्तुत: गठबंधन-धर्म है, का पालन करना होगा। गठबंधन धर्म में हेठी या हेकड़ी नहीं चलती और ‘मैं’ का स्थान ‘हम’ ले लेता है। गठबंधन के तकाजों को पूरा करने के लिये कई बार जिद और शर्ते छोड़ने होती है और बाज वक्त उनकी कुछ अप्रिय बातें भी माननी होती हैं, जिनके सहयोग से आप सत्ता से बेदखल होकर भी सत्ता में बने हुये हैं।
यही वे अहम कीमती संदर्भ है, जो एनडीए की गठबंधन सरकार में चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार की महत्ता बढ़ा देते हैं और सियासत की मुंडेर पर अटकलों के सब्जों को हवा देते हैं। नीतीश सामाजिक न्याय के पुरोधा सयाने नेता हैं और चंद्रबाबू सेक्यूलर – सोच के प्रगतिशील महारथी। उनकी बरीयताएं स्पष्ट हैं। बीजेपी- नेताओं ने उन्हें अतीत में बहुत तल्ख टिप्पणियों से नवाजा है। बावजूद इसके सच यह है कि राजनीति में न तो कोई स्थायी मित्र होता है और न ही कोई स्थायी शत्रु। राजनीति अवसरों को भुनाने का संभावनाओं भरा खेल है। जनादेश – 24 का भी सबक यही है कि हर ऊंट को एक न एक दिन पहाड़ के नीचे आना होता है। वक्त ने जिनकी ‘रऊनत’ पे खाक डाली है, उन्हें बे-मन से ही सही राजनीति ने सबक सीखने होंगे, जो जरूरी हैं और कीमती भी। वक्त आ गया है कि धार्मिक उन्माद और घृणा की राजनीति पर खाक डाली जाए। गैर मुद्दों पर मुद्दों को तरजीह दी जाये। सरकारी एजेसियों को सर्जरी और व्यवस्था को सेहतयाब बनाने में इस्तेमाल किया जाये, न कि बैरियों के अंगभंग कर इन्हें विकलांग करने में।
असंतोष और अंतर्विरोध भीतर भी है और बाहर भी। चुनौतियां सरहद पार से है और सरहद के भीतर भी। गठबंधन-सरकार चलाना तलवार की धार पर धावनो है। मोदी का पिंड अटल या मनमोहन से भिन्न है। बड़ी बात यह कि राहुल अब नये ‘अवतार’ में हैं; आक्रामक, निडर और साफगो। नरेंद्र मोदी का शपथ के पहले बापू की समाधि पर जाना और संविधान को सिरमाथे लगा लेना बापू और संविधान की महत्ता का द्योतक है।
बहरहाल, जनादेश: 24 ने बहुत कीमती सबक परोसे हैं। ये सबक राजनीति के कई विकारों को दुरुस्त कर सकते हैं। ये सबक सत्ता और विपक्ष दोनों के लिये हैं। तंत्र पर लोक की विजय के इस पर्व ने लोकतंत्र, सेक्यूलरवाद और संविधान में अवाम की अटूट निष्ठा की बखूबी तस्दीक की है, फलत: अवाम सलाम की हकदार है।

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