कोरबा लोकसभा चुनावः संगठनों के कार्यकर्ताओं को नहीं पूछ रही पार्टियां

कोरबा 02 फरवरी। अविभाजित जांजगीर लोकसभा क्षेत्र के परिसीमन के बाद नवगठित कोरबा लोकसभा क्षेत्र में अब तक के चुनावों को लेकर कहा जा सकता है कि कोई भी राजनीतिक दल औद्योगिक संगठनों के लिए काम करने वाले लोगों को उचित महत्व देने के लिए मानसिक रूप से तैयार है ही नहीं। कोरबा लोकसभा क्षेत्र में कोरबा, कोरिया, एमसीबी, गौरेला-पेण्ड्रा जिले की आठ विधानसभा सीट शामिल हैं। इनमें से मतदाताओं का बड़ा वर्ग उद्योग से सीधे जुड़ा हुआ है। लेकिन पार्टियों को इससे कोई सरोकार ही नहीं है।

कोरबा लोकसभा क्षेत्र के लिए यह चौथा चुनाव है। 20वीं लोकसभा के लिए यहां के मतदाता अपना नया सांसद इस वर्ष चुनेंगें। विधानसभा चुनाव के बाद जो नई मतदाता सूची बनी है उसमें 9000 नए मतदाता जुड़े हैं। 16 लाख से अधिक मतदाताओं को इस चुनाव में मताधिकार का प्रयोग करना है। कुल मतदान के आधार पर कोरबा क्षेत्र को उनका नया प्रतिनिधि प्राप्त होगा। अटकलें लगाई जा रही है कि जल्द ही कांग्रेस और भाजपा इस क्षेत्र के लिए प्रत्याशी के नाम की घोषणा कर सकती है। अभी तक पूरा मामला सोशल मीडिया और अटकलों पर टिका हुआ है। इसमें कई दावेदारों के नाम गोते खा रहे हैं। इन सबसे अलग हटकर जो बात इलाके में चल रही है उसमें कहा जा रहा है कि राष्ट्र निर्माण के लिए उद्योगों की भूमिका की दुहाई हर पार्टी जरूर दे रही है लेकिन उद्योग क्षेत्र में काम करने वाले ट्रेड यूनियन के पदाधिकारियों या कामगारों को नेतृत्व का अवसर देने से साफ तौर पर परहेज कर रही है। इसमें कांग्रेस और भाजपा मुख्य रूप से शामिल है। कांग्रेस के लिए आईएनटीयूसी और भाजपा के लिए बीएमएस जैसे संगठन प्रमुख रूप से काम कर रहे हैं।

पिछले तीन चुनावों में संबंधित संगठनों की ओर से दावे किये गए लेकिन पार्टियों ने इस पर कोई विचार नहीं किया। जबकि कोरबा संसदीय क्षेत्र में एसईसीएल, एनटीपीसी, सीएसईबी, आईओसी जैसे उद्योग प्रमुख हैं। इनमें से एसईसीएल का दायरा तो तीन जिलों में फैला हुआ है। अन्य उद्योगों की भूमिका कोरबा क्षेत्र में विस्तारित है। इन उद्योगों में काम करने वाले कामगार और उन पर आश्रित लोगों की संख्या लगभग 3 लाख के आसपास होती है। तथ्यों की जानकारी होने के बावजूद इस क्षेत्र से संबंधित प्रतिनिधियों को नेतृत्व का अवसर देने को लेकर उनकी पार्टियां ही तैयार नहीं हो रही है। इतना जरूर है कि चुनाव में इन संगठनों का भरपूर सहयोग लेने और उनके योगदान को रेखांकित करने की बात बड़े नेता भुलते नहीं हैं। हैरानी की बात यह भी है कि स्वतंत्र रूप से ट्रेड यूनियन अपनी दमदारी दिखाने को तैयार नहीं है। इससे भी उनकी कमजोर नस उजागर हो रही है। इससे पहले के चुनाव में वामपंथी दलों ने किस्मत आजमाने की कोशिश की लेकिन उनका कोई खास असर नहीं हो सका।

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