सुरेशचंद्र शर्मा के दो गीत

गीत 01
गीत भला क्या लिखूँ
टूटे मस्तूलों पर गीत भला क्या लिखूँ
सागर के कूलों पर गीत भला क्या लिखूँ
हल्दी सी फैल गई धूप द्वार द्वार में
हरियाली लेट गई माघ के मजार में
मेंड़ के बबूलों पर गीत भला क्या लिखूँ
नदिया के पानी में तैर रहा गाँव है
लहरों पर थिरक रहे चंदा के पाँव है
टूटे हुए झूलों पर गीत भला क्या लिखूँ
सूरज के साथ साथ डूब गई परछाई
चंदा की सगी बहन लगती है तनहाई
अंतर के शूलों पर गीत भला क्या लिखूँ
अन्न के गोदामों में फैल गये व्याल हैं
सड़कों पर टंग गये सैकड़ों कंकाल हैं
बुझे हुए चूल्हों पर गीत भला क्या लिखूँ
गीत 02
चल रे मन चल
पंथहीन लक्ष्यहीन
दिशाहीन जीवन
खाते हैं भूख लोग
पीते आश्वासन
सपने समाजवाद के
लगते रीते
गरीबी बेकारी
हम बाँट बाँट जीते
कागज के खेलों में
चल रे मन चल
नरगिसी निगाहों का
नीरव आमंत्रण
स्वीकारें कैसे
सन्यासी पाया मन
मरूथल में कैसे
जग जाए तुलसी दल
अंधियारे अंतर में
बिजली थी तुम
जीवन के गदय में
कजली थी तुम
आई क्यों छलिया सी
और गई छल
पावस की हत्या कर
उग आई कास
चिढ़ा रही पत्थर पर
उगी हुई घास
बीत गया सावन
न आए बादल
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