विविध @ डॉ. सुधीर सक्सेना

विज्ञान, वायलिन और प्रेम यानी आइंस्टीन

डॉ. सुधीर सक्सेना

पूरे सौ साल हो गये उन्हें नोबेल पुरस्कार मिले। वे सचमुच नोबेल थे। आकर्षक मुखाकृति। घने केश। चमकीली आंखें। करीने से संवारी मूंछें। आकर्षक परिधान। हावभाव में नफासत। विज्ञान को सर्वथा समर्पित। विज्ञान के व्याकरण और वर्तनी में खोये, लेकिन विज्ञान उनका सीमांत न था। दर्शन में उनकी गहरी रुचि थी। वकृत्व में वे लासानी थे। यारबाश थे और दोस्तों से गहरी छनती थी। वे चाहते तो इस्राइल के राष्ट्रपति हो सकते थे। वे वायलिन बहुत खूबसूरती से बजाते थे, दक्ष इतने कि मोत्सार्ट और बीथोवेन की क्लासिकी धुनें भी। उन्हें खत लिखने का शगल था। और हां, उनके जीवन में तरुणाई से लेकर आयु के वार्धक्य तक स्त्रियों की ऐन्द्रिक उपस्थिति थी। वे आजीवन विज्ञान, संगीत, स्त्रियों और मानवता के प्रति अगाध प्रेम में डूबे रहे। उन्हें भरापुरा आयुष्य मिला और इसमें शक नहीं कि उन्होंने भरपूर जीवन जिया। उनकी जिंदगी की शम्अ इतने रंगों में जली कि उनका जीवन किसी को भी रोचक-रोमांचक औपन्यासिक-गाथा-सा लग सकता है…
जो कुछ धरा है वह नाम में ही धरा है, लिहाजा बताते चलें कि इस अद्वितीय शख्सियत का नाम है अल्बर्ट आइंस्टीन। सार्वकालिक सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिक… विश्व का इकलौता शख्स, जिसका मस्तिष्क रासायनिक घोल में भावी पीढ़ियों के वास्ते सुरक्षित रखा है। प्रयोजन यही है कि उसके परीक्षण से स्नायुविज्ञानी शाायद कभी यह जान सकें कि उसके मस्तिष्क में ऐसा ‘क्या’ है, जिसने अल्बर्ट आइंस्टीन नामक शख्स को विलक्षण या ‘जीनियस’ बना दिया। दुनिया बेनूर न भी हो तो भी उसके नूर को बहुगुणित करने के लिए ऐसे दीदावरों का इंतजार बेसब्री से रहा करता है…
अपने बालपने में ही उन्हें यह आभास हो गया था कि यह विराट विश्व शाश्वत पहेली की तरह है। मनन और मुआयने से उसमें अंशत: प्रविष्ट हुआ जा सकता है। उन्हें विश्व के बारे में मनन करना मुक्ति के संकेत सा लगा। 14 मार्च, सन् 1879 को वे उल्म, ब्यूर्टेमबर्ग में पैदा हुए, जो तब जर्मन साम्राज्य का हिस्सा था। मां का नाम पालिन था और पिता का हर्मन। उनके शैेशव में ही परिवार म्यूनिख चला आया और फिर मिलान। उन्होंने बोलना देर से शुरू किया और अविरल बोलना नौ की वय से। पांच साल के थे, जब एक महिला ट्यूटर उन्हें घर पर पढ़ाने आने लगी। तभी वायलिन सएकना भी शुरू किया। सात की उम्र में उन्हें वोल्क स्कूले में भर्ती किया गया। 1895 में उन्होंने जर्मन नागरिकता त्याग दी। ऐसा उन्होंने फौजी प्रशिक्षण से बचने के लिए किया। बहरहाल, सन् 1901 तक वे स्टेटलेस या नागरिकताविहीन रहे, यद्यपि ज्यूरिख के फेडरल पॉलीटेक्निक स्कूल से उन्होंने भौतिकी और गणित में सनद हासिल कर ली थी और डिग्री पाने के अगले ही साल उन्होंने स्विस नागरिकता ग्रहण कर ली थी। भौतिकी में खोजों के बीज उनके जेहन में ल्यूइटपोल्ड जिम्नेजियम और अराऊ के छोटे-से कस्बे में ईटीएच में पढ़ते वक्त ही पड़ गये थे। कठोर अनुशासन और रटन्तू-विद्या में उनकी रुचि न थी। हमउम्र शरारती बच्चों के साथ खेलने से वह बचते थे। बालक अल्बर्ट को ताश के महल बनाने का शौक था। कुतुबनुमा उनके लिए अजूबा था। कुतुबनुमा की सुइयों के उत्तर-दक्षिण में स्थिर रहने के करतब ने उन्हें अचरज में डाल दिया। ‘जरूर इसके पीछे राज है’ उन्होंने सोचा। प्रकृति के रहस्यों को भेदने की प्रवृत्ति नन्हे अल्बर्ट में तभी पनपी। बारह वर्ष की वय में हाथ लगी यूक्लिडीय ज्यामिति की किताब ने उन पर गहरा असर डाला। उन्होंने समाकल और अवकल गणित का गंभीरता से अध्ययन किया और तेरह के होते न होते वे प्रायोगिक गणित की जटिल समस्याओं को सुलझाने लगे। वह गणितीय सिद्धांतों पर काम करने लगे। उनकी उपपत्तियां पाठ्यपुस्तकों से अलग होतीं। उनके चाचा जैकब, जो प्रशिक्षित इंजीनियर थे, ने उनके उत्साह और क्षमता को बढ़ाया। चिकित्सा शास्त्र के विपन्न छात्र मैक्स टालमड ने भी आइंस्टीन के ‘मनस’ की रचना में योगदान दिया। मैक्स सप्ताह में एक दिन शाम का भोजन अल्बर्ट के परिवार के साथ करता था। वह अल्बर्ट के लिए विज्ञान और दर्शन की किताबें लाया करता था। साथ ही दोनों सहपाठी घंटों बहस में खोये रहते थे। अल्बर्ट की एकाग्रता गजब की थी। दूसरों की बातचीत या शोरोगुल उनके लिए व्यवधान न था। वे अक्सर अपनी धुन में खोये रहते थे। उनके भौतिकी के शिक्षक हेनरिष वेबर ने एक बार उनसे कहा भी कि तुम चतुर लड़के हो, पर तुममें एक कमी है। तुम किसी की कोई बात नहीं सुनते हो।
गुरु का शिष्य के बारे में यह आकलन गलत नहीं था। अल्बर्ट ने जीवन में अपने फैसले स्वयं लिये, भले ही वे औरों को नागवार क्यों न गुजरे हों। उन्होंने औरों की सुनी नहीं और गर सुनी भी तो मानी नहीं। वस्तुत: वे वही बातें मानते थे, जो उन्हें भाती अथवा उपयोगी लगती थी। अल्फ्रेड क्लेइनर और हेनरिष फ्रेडरिष वेबर के परामर्श को उन्होंने तरजीह दी। उनके व्यक्तित्व के रेशों के निर्माण में दर्जनभर विभूतियों के पाठों का हाथ था। इनमें थे आर्थर शापेनहावर, बरुच स्पिनोजा, डेविड ह्यूम, अर्न्स्ट माख, बर्नार्ड रीमान, हेंड्रिक लोरेन्ट्ज, हर्मन मिंकोव्स्की, आइजक न्यूटन, जेम्स क्लार्क मैक्सवेल, मिशेल बेस्सो, मारिट्ज श्लीक, थॉमस यंग और गॉटफील्ड विल्हेम लिबनिज।
विलक्षण प्रतिभा के बावजूद आइंस्टीन को नौकरी मिलने में दिक्कतों का सामना करना पड़ा। स्नातक अल्बर्ट ने दो साल ट्यूटर और सहायक अध्यापक के तौर पर कठिनाई से दिन गुजारे। अंतत: उन्हें मित्र मार्सेल ग्रासमैन, जिसके पिता स्विस पेटेंट कार्यालय के डायरेक्टर थे, के प्रयासों से पेटेंट-दफ्तर में तृतीय श्रेणी के तकनीकी विशेषज्ञ की अस्थायी नौकरी मिल गयी। युवा अल्बर्ट ने यहां सात साल काम किया। दत्तचित्त काम का नतीजा निकला। स्वयं अल्बर्ट ने बाद में लिखा कि तकनीकी पेटेंटों को सूत्रबद्ध करने का काम उनके लिए सही अर्थों में वरदान सिद्ध हुआ। यहां उनकी चिंतनशीलता, अकादेमिक और व्यावहारिक प्रतिभा निखरी। इन्हीं वर्षों में बर्न के छोटे-से अपार्टमेंट में पीछे के कमरे में बैठकर उन्होंने वे चार लेख लिखे, जिनके सन् 1905 में प्रकाशन ने उन्हें विश्वव्यापी ख्याति तो दी ही, बीसवीं सदी में भौतिकी की दिशा भी तय कर दी। विज्ञान की संपदा में उनके योगदान की आगे की कथा सर्वज्ञात है। यह भी विदित है कि यही सन् 1921 में विज्ञान के लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार का आधार बना। सापेक्षता के सिद्धांत के कारण वे विश्व में अमर हो गये। उनके खोजे फार्मूले ी=ेू2 को सर्वाधिक ख्यात समीकरण माना गया। उनके कद के समक्ष कद्दावर बौने हो गये। स्थिति यह बनी कि आइंस्टीन एक, किंवदंतियां अनेक। उनके बारे में केनर मारिया रिल्के को कहना पड़ा-‘‘अंतिम निष्कर्ष यही है कि किसी नये नाम के इर्दगिर्द फैली हुई प्रसिद्धि अनेक भ्रांतियों का सारतत्व ही है।’’ आइंस्टीन जीते-जी इस तरह ख्याति का मानक हो गये कि उन्होंने कहा-‘‘मैंने अधिकांश कार्य अपनी प्रकृति के अनुसार ही किये हैं, पर उनके कारण मुझे जितना प्यार और सम्मान मिला है, उससे उलझन होती है।’’
आइंस्टीन के जीवन के अंतरंग में अनेक स्त्रियां मौजूद हैं। यह ऐसा ही है कि मंच पर कोई स्त्री आये, कुछ देर ठहरे और चली जाये। जब अल्बर्ट छात्र थे, उनके शिक्षक हुआ करते थे प्रो. विंटेलर। उनकी मसें भीगी ही थीं कि वे उनकी षोडषी पुत्री को दिल दे बैठे। सन् 1895-96 में वे आराऊ में पढ़ रहे थे। वे प्रो. विंटेलर के घर पर ही रहते थे। प्रोफेसर की बिटिया मैरी अल्बर्ट से एक साल बड़ी थी, लेकिन उम्र बाधा नहीं बनी और दोनों प्रेम की पींगे भरने लगे। अल्बर्ट ने 17 की उम्र में जब पॉलीटेक्नीक संस्थान में दाखिला लिया तो वहां बीस वर्षीया सर्व युवती मिलेवा मैरिस ने भी प्रवेश लिया। गणित व भौतिकी के संकाय के छह छात्रों में वह अकेली युवती थी। युवा अल्बर्ट उसके तीरे नज़र की ताब न ला सके और उसके इश्क में पड़ गये। मैरी इसी वर्ष अध्यापन के लिए ओल्सबर्ग (स्विट्जरलैंड) चली गयी। दोनों के तार फिर न जुड़े, लेकिन पत्राचार जारी रहा और अल्बर्ट अपनी पहली प्रेमिका मैरी को पत्रों में अपनी आपबीती बयां करते रहे।
सर्ब मूल की मिलेवा से अल्बर्ट का प्रेमालाप लंबा चला। दोनों घंटों साथ बिताते थे। दोनों पाठ्यक्रम से बाहर के भौतिकी के विषयों पर घंटों बातें करते थे। माना जाता है कि आइंस्टीन के सन् 1905 के चर्चित पर्चों को तैयार करने में भी मिलेवा की महत्वपूर्ण भूमिका थी। यह भी कहा जाता है कि उसने सन् 1902 में नोवीसाद में एक कन्या को जन्म दिया, जिसे किसी को दत्तक दे दिया गया अथवा जो ज्यादा दिन जी नहीं। बहरहाल, मिलेवा और अल्बर्ट ने सन् 1903 में शादी कर ली। मिलेवा ने दो बेटों को जन्म दिया, लेकिन उनका दांपत्य सुदीर्घ न हुआ। मिलेवा सन् 1904 में ज्यूरिच लौट आई। पांच साल के अलगाव के उपरांत सन् 1919 में दोनों में विधिवत तलाक हो गया।
प्रसंग दर्शाते हैं कि प्रेम और स्त्री के बिना इस युवा वैज्ञानिक के लिये जीना कठिन था। स्त्रिया उसे लुभाती थीं और प्रेम उसमें ऊर्जा का संचार करता था। उसका जीवन प्रेम की अकथ-कथाओं का क्रम हो गया। मिलेवा के बाद अब अल्बर्ट का आकर्षण थी एल्सा लोवेंथाल। एल्सा ननिहाल और ददिहाल दोनों तरफ से रिश्ते में उसकी बहन लगती थीं, लेकिन प्रेम का बंधनों और वर्जनाओं से क्या वास्ता। एल्सा के प्रति चाहत में कोपलें सन् 1912 में फूटीं। मिलेवा के अल्बर्ट को छोड़कर जाने के पीछे भी शायद उनके एल्सा के प्रेम पाश में पड़ने का हाथ था। 14 फरवरी 1919 को पहली पत्नी से तलाक के बाद अल्बर्ट एल्सा के साथ विवाह-बंधन में बंध गये। सन् 1933 में अल्बर्ट ने जब अमेरिका में शरण ली, तब एल्सा उनके साथ थी। वहीं उसकी हृदय और गुर्दे की बीमारी का पता चला। दिसंबर, 1936 में उसने सदा के लिए आंखें मूंद लीं। आइंस्टीन – दंपत्ति के लिए इस बीच एक बड़ा आघात यह था कि बेटे एडुआर्ड को बीस की वय में दौरा पड़ा। वह शीजोफ्रेनिया का शिकार हुआ। उसे कई बार पागलखाने में भर्ती करना पड़ा। एल्सा के गुजरने के बाद मनोचिकित्सालय ही उसका ठिकाना था। 
वैश्विक ख्याति के दिग्विजयी रथ पर सवार आइंस्टीन ने दो शादियां कीं लेकिन विवाह उन्हें प्रेम की पींगे भरने से रोक नहीं सका। उनकी पहली पत्नी उनकी सहपाठी थी और वैचारिक सहयोगी भी। सन् 1902 में अल्बर्ट ने कतिपय मित्रों के साथ द ओलिंपिया एकेडमी नामक विचार-समूह की स्थापना की तो उसकी बैठकों में मिलेवा भी आती थी और विज्ञान व दर्शन पर बहसों को गंभीरता से सुनती थी, लेकिन अपनी इस बौद्धिक सहपाठी के साथ अल्बर्ट के वैवाहिक संबंधों का पटाक्षेप विच्छेद में हुआ। मिलेवा के संग रहते हुए भी वह एल्सा के साथ इश्क के फेर में फंस गये। उनकी यह फितरत आगे भी रंग लाई। सन् 1923 में वह अपनी सेक्रेट्री बेट्टी न्यूमान्न से मोहब्बत की गिरफ्त में थे। बेट्टी उनके जिगरी दोस्त हांस म्यूशाम की भतीजी थी। अल्बर्ट के पत्रों पर यकीन करें तो उनके और भी कई स्त्रियों से अंतरंग रिश्ते थे। जीवन में शोखियां बिखरी हुई थीं। सौन्दर्य उन्हें आकर्षित करता था। आस्ट्रिया की ब्लांड सुन्दरी मार्गरेट लिबाख और फूलों के बड़े कारोबार की अमीर मालकिन एस्टेला काटजेने – लेनबोगेन से भी वे प्रेम की रंगीली डोर में बंधे। फेहरिस्त यहीं खत्म नहीं होती। बर्लिन की सांभ्रांत महिला एथेल मीकानोव्स्की और धनाढ्य यहूदी विधवा टोनी मेंडेल से भी उनके रागात्मक रिश्ते रहे। इन सबके साथ उन्होंने अंतरंग और सरस जीवन जिया। अल्बर्ट के साथ लम्हे बिताना इन महिलाओं को पसन्द था और वे प्राय: उन्हें कीमती तोहफे दिया करती थी। वस्तुत: आइंस्टीन स्त्रियों से विरक्त कभी नहीं हुए। यौवनायें उनके जीवन में तब भी आयीं, जब वे विधुर थे। इन्हीं में एक थी रूसी रूपसी मार्गारीता कोनेन्कोवा। मार्गारीता रूसी शिल्पकार सर्गेई कोनेनकोव की पत्नी थी। सर्गेई ने इंस्टीट्यूट फॉर एडवांस्ड स्टडीज, प्रिंस टाउन में आइंस्टीन की आवक्ष प्रतिमा बनायी थी। महान वैज्ञानिक की प्रतिमा गढ़ने के दौर में ही अधेड़ अल्बर्ट और मार्गारीता में नजदिकियां बढ़ीं और उनके हृदयों में प्रेम हिलोरें लेने लगा। मार्गारीता के बारे में कहा जाता है कि वह सोवियत संघ की गुप्तचर थी और उसे मिशन के तहत भेजा गया था।
आइंस्टीन ने जर्मनी में नात्सी प्रभुत्व के बाद अमेरिका में शरण ली थी और अमेरिका की नागरिकता भी। वे जीवन में अनेक देशों के नागरिक रहे। वे करीब पंद्रह साल अमेरिका के नागरिक रहे और 54 साल स्विट्जरलैंड के। संयुक्त राज्य अमेरिका की नागरिकता (1940-55) के बावजूद उन्होंने स्विस नागरिकता त्यागी नहीं। अलग-अलग दौर में वे जर्मन साम्राज्य, आस्ट्रिया, आस्ट्रो-हंगेरियन साम्राज्य, प्रूसिया, फ्रीस्टेट आॅफ प्रूसिया के नागरिक रहे। वस्तुत: वे विश्व नागरिक थे। उनकी राष्ट्रीयता जर्मन, स्विस या अमेरिकी न होकर वैश्विक थी। सीमाबद्ध राष्ट्रीयताएं और नागरिकताएं उनके लिए बेमानी थीं। वे लोकतांत्रिक-वैश्विक सरकार चाहते थे, जो राष्ट्र-राज्यों पर अंकुश लगाये। बहरहाल, उनका यूएसए की नागरिकता लेने का किस्सा भी बड़ा दिलचस्प है। आइंस्टीन ने यूएसए की पहली यात्रा सन् 1921 में की थी। 2 अप्रैल को वे न्यूयार्क पहुंचे तो उनका राजकीय स्वागत हुआ। उन्होंने स्वागत समारोहों, भ्रमण और व्याख्यानों में तीन हफ्ते बिताये। वे कोलंबिया और प्रिंस टाउन विश्वविद्यालय गये और वैज्ञानिकों के साथ व्हाइट हाउस भी। उन्होंने इस यात्रा पर एक लेख भी लिखा : माई फर्स्ट इंप्रेशंस आॅफ यूएसए। इसी क्रम में वे लंदन गये तो उनके मेजबां थे विक्साउंट हाल्डेन। वहां उन्होंने किंग्स कालेज, लंदन में व्याख्यान दिया। अगले वर्ष सन् 1922 में वे एशिया और फलस्तीन की यात्रा पर गये। श्रीलंका, सिंगापुर और जापान में उनका भावभीना स्वागत हुआ। जापान में उनकी सम्राट और सम्राज्ञी से भेंट हुईं। वे सम्राट के ज्ञान, गरिमा और अभिरुचि से प्रभावित हुए। फलस्तीन में ब्रिटिश उच्चायुक्त सर हर्बर्ट सैमुअल ने उनका सत्कार किया और उन्हें तोपों की सलामी दी गयी। यह बेहद दिलचस्प है कि एशिया की यात्रा के कारण स्कॉटहोम में आयोजित समारोह में जाकर नोबेल पुरस्कार ग्रहण नहीं कर सके। उनकी अनुपस्थिति में उनका भाषण जर्मन राजनयिक ने पढ़ा। बताते हैं कि नोबेल पुरस्कार की धनराशि भी उन्हें अपनी तलाकशुदा पत्नी को देनी पड़ी थी। उनके पांवों में फिरकी उभर आई थी। 
सन् 1923 में उन्हें स्पेन के सम्राट अल्फांसो तेरहवें ने स्पेनिश एकेडमी आॅफ साइंसेज का सदस्य बनाया। सन् 1922 – 32 में वे लीग आॅफ नेशन्स, जेनेवा की बौद्धिक सहयोग कमेटी के सदस्य रहे। मादाम क्यूरी और हैड्रिक लॉरेन्ट्ज भी इस कमेटी के मेंबर थे। सन् 1925 में वे दक्षिण अमेरिकी देशों-ब्राजील, उरुग्वे और अईन्तीना की यात्रा पर गये और सन् 1930-31 में पुन: यूएसए। उन्हें ‘रूलिंग मोनार्क आॅफ द माइंड’ कहा गया। उनका भावभीना भव्य स्वागत हुआ। न्यूयार्क के प्रसिद्ध मैडीसन स्क्वेयर पर उन्हें सुनने को पंद्रह हजार की भीड़ जुटी। कैलीफोर्निया में उनका स्वागत परंपरागत यहूदी हनूका उत्सव-सा हुआ। यहीं उनकी भेंट अपटान सिंक्लेयर और चार्ली चैप्लिन से हुई। चैप्लिन से उनकी मुलाकात गहरी दोस्ती में बदल गयी। चैप्लिन ने कहा कि आइंस्टीन की असाधारण बौद्धिक प्रतिभा उनके उच्च भावनात्मक स्वभाव से नि:सृत होती है। चैप्लिन ने आइंस्टीन को अपनी फिल्म ‘सिटी लाइट्स’ के प्रीमियर पर आमंत्रित किया और गाड़ी से अपने साथ लॉस एंजिलिस ले गये। रास्तेभर लोगों ने उनका इतना आत्मीय स्वागत और अभिनंदन किया कि वे विस्मय-विमुग्ध हो गये। बाद में चैप्लिन मित्र अल्बर्ट के न्यौते पर बर्लिन आये और उनके फ्लैट पर रहे। वहां उनका ध्यान जिस चीज ने आकृष्ट किया वह था पियानो। अल्बर्ट ने चार्ली को बताया कि उनकी मां पियानो बहुत अच्छा बजाती थीं।
करीब 12 साल बाद फरवरी सन् 1933 में आइंस्टीन तीसरी बार अमेरिका आये। जब वे अमेरिका में थे, बर्लिन में उनके घर पर गेस्टापो के छापों का सिलसिला शुरू हो गया। फरवरी-मार्च में उनकी कॉटेज तबाह कर दी गयी और नौका जब्त। बाद में नौका किसी अनाम शख्स को बेच दी गयी और कॉटेज को नात्सी यूथ कैंप में तब्दील कर दिया गया। अमेरिकियों के व्यवहार से भाव-विह्वल आइंस्टीन मार्च के आखिरी हफ्ते में योरोप लौटे। खबर मिली कि 23 मार्च को राइखस्टाग ने बिल पारित कर दिया है। यह अडोल्फ हिटलर के अधिनायकवाद की शुरूआत था। बर्लिन लौटना अब जोखिम था। आइंस्टीन पसोपेश से जल्द उबर गये। खतरे को भांपने में उन्होंने गलती नहीं की। 28 मार्च को वे एंटीवर्प, बेल्जियम में जर्मन कौंसुलेट के दफ्तर में गये और अपना जर्मन पासपोर्ट जमा कर उन्होंने जर्मनी की नागरिकता त्याग दी। अगले ही महीने जर्मनी में यह कानून पारित हो गया कि कोई भी यहूदी किसी अधिकारिक ओहदे पर नहीं रह सकता। रातों-रात लाखों यहूदी बेरोजगार हो गये और उन पर दुर्दिनों और संकटों के गिद्ध मंडराने लगे। नात्सी युवकों ने मई में जगह-जगह पुस्तकें फूंकी। किताबों की होलिका-दहन से आइंस्टीन भी नहीं बच सके। सारे जर्मनी पर उन्माद तारी था। गोयबल्स ने कहा-‘‘ज्यू इंटलेक्चुअलिज्म इज डेड।’’ एक जर्मन पत्रिका ने उन पर खूब तोहमतें जड़ीं। उन्हें जर्मनी का ऐसा शत्रु बताया, जो ‘नाट येट हैंग्ड।’ उनके सिर पर पांच हजार डॉलर का ईनाम घोषित कर दिया गया। 
आइंस्टीन अब विस्थापित थे। याकि शरणार्थी। उनका वतन उनसे छूट गया था। 26 मई को वे ओस्टेंड (बेल्जियम) से ड्रोवर (इंग्लैंड) पहुंचे। वे अब बेघर थे।  दरोदीवार से वंचित। बेल्जियम में डी-हान में किराये के मकान में वे कुछ ही दिन बिता सके। जर्मनी में अभागे वैज्ञानिकों के लिए वे फिक्रमंद थे। डी हान का बसेरा अस्थायी था। जुलाई के आखिरी दिनों में वे डेढ़ माह के लिए ब्रिटिश नौसैनिक अधिकारी कमांडर ओलिवर लॉकर-लैंपसन के आमंत्रण पर इंग्लैंड आये। कमांडर ने उन्हें रॉफ्टन, नोरफोक में हीथ क्रोमर होम के समीप काठ के केबिन में ससम्मान ठहराया। उसने उन्हें दो सशस्त्र अंगरक्षक भी दिये। पहरा देते हुए प्रहरियों का चित्र 24 जुलाई, सन् 1933 को ‘डेली हेराल्ड’ में छपा। इससे उनके इंग्लैंड-प्रवास का पता सारी दुनिया को चल गया।
कमांडर लैंपसन के जरिये आइंस्टीन की मुलाकात कई प्रभावशाली नेताओं से हुई। लैंपसन स्वयं अत्यंत प्रभावशाली और सूझबूझ के सैन्य अधिकारी थे। वे अपने नोबेल-विजेता अतिथि को विंस्टन चर्चिल से मिलाने उनके घर ले गये। वे उन्हें पूर्व प्रधानमंत्री लॉयड जार्ज और आॅस्टिन चैम्बरलेन के पास भी ले गये। आइंस्टीन की चर्चिल से मुलाकात बड़ी मानएकेज रही। आइंस्टीन ने चर्चिल से गुजारिश की कि वे जर्मनी से यहूदी वैज्ञानिकों को निकालने के लिए कुछ करें। चर्चिल ने आइंस्टीन की बातें गौर से सुनीं और बिना एक पल गंवाये कार्रवाई की। उन्होंने अपने भौतिकशास्त्री मित्र फ्रेडरिष लिंडरमैन को जर्मनी भेजा, ताकि वे उन्हें वहां से ला सकें। उसने यह व्यवस्था भी की कि जर्मन वैज्ञानिकों को इंग्लैंड के विश्वविद्यालयों में नियुक्तियां मिल जायें। आइंस्टीन का कहना था कि नात्सी बिरादरी बौद्धिक स्वतंत्रता से डरती है। चर्चिल ने टिप्पणी की कि जर्मनी ने कार्रवाई से जहां अपना तकनीकी स्तर गिरा लिया है, वहीं इससे उसके शत्रु राष्ट्रों का स्तर स्वत: उठ गया है। बाद में दुनिया ने देखा कि जर्मनी की आत्मघाती मूर्खता उसे भारी पड़ी और अंतत: उसकी पराजय का बायस बनी।
बहरहाल, आइंस्टीन ने संयुक्त राज्य अमेरिका की नागरिकता सन 1940 में ली। यह विश्वव्यापी भ्रांति है कि उन्होंने एटम बम के निर्माण में अहम भूमिका निभायी। उनके सूत्र ी=ेू2 को एटम बम के निर्माण का कारक भी बताया जाता है। इसमें संदेह नहीं कि उन्होंने इस बारे में राष्ट्रपति थ्योडोर रूजवेल्ट को पत्र लिखा था। आइये देखें कि अपनी भूमिका के बारे में स्वयं आइंस्टीन क्या कहते हैं? आइंस्टीन ने अपनी कैफियत में लिखा-‘‘एटम बम के निर्माण में मेरी भूमिका केवल एक काम तक सीमित थी। मैंने राष्ट्रपति रूजवेल्ट को लिखे गये उस पत्र पर हस्ताक्षर किये थे, जिसमें उनसे एटम बम बनाने की संभावनाओं के बारे में बड़े पैमाने पर प्रयोग करने का आग्रह किया गया था। इस प्रयास के सफल हो जाने पर मानव समाज के लिए उत्पन्न होने वाले भयानक खतरे से मैं पूरी तौर पर अवगत था, लेकिन जर्मन भी इस दिशा में काम कर रहे थे, अत: उनके सफल हो जाने की आशंका ने मुझे यह कदम उठाने के लिए बाध्य किया।’’ आइंस्टीन आगे कहते हैं-‘‘उस स्थिति में मैं इसके सिवाय और कुछ न कर सका। यद्यपि मैं हमेशा शांति का पक्षधर रहा हूं और मेरे विचार से युद्ध में किसी को मारना सामान्य तौर पर की जाने वाली हत्याओं से लेशमात्र भी बेहतर कार्य नहीं है।
आइंस्टीन वैज्ञानिक थे। फर्ज कीजिये कि आइंस्टीन वैज्ञानिक नहीं होते। गर वे वैज्ञानिक नहीं होते तो क्या होते। इस पर अटकल बेमानी होगी, क्योंकि स्वयं आइंस्टीन ने इस मुद्दे पर अटकल के लिए कोई ठौर नहीं छोड़ा है। वे स्पष्ट कहते हैं-‘‘यदि मैं भौतिकी विज्ञानी नहीं होता तो शायद मैं संगीतज्ञ होता। मैं अक्सर संगीत में सोचता हूं। मैं अपने दिवास्वप्न संगीत में देखता हूं। मैं जीवन को संगीत की शर्तों में देखता हूं और सर्वाधिक आनंद मुझे संगीत में मिलता है।’’
आइंस्टीन के लिए संगीत की असामान्य अर्थवत्ता थी। बर्लिन में मैक्स प्लैंक और उनके बेटे के साथ वे अक्सर वायलिन बजाते थे। वे बीथोवेन और मोत्जार्ट पर फिदा थे और वे उनकी धुनें वायलिन पर बखूबी निकाल लेते थे। सन् 1931 में कैलीफोर्निया में रिसर्च के दरम्यान जोएलनर परिवार की कन्सर्वेटरी में जाने पर उन्होंने मोत्सार्ट और बीथोवेन की बेहतरीन धुनें बजायी थीं। जब जूलियार्ड क्वार्टेट प्रिंसटाउन में उनके घर पहुंची, तो उन्होंने वायलिन बजाकर उन्हें मंत्रमुग्ध कर दिया था। बोझिल विषयों पर माथापच्ची और तनाव से भरे दिनों में भी संगीत उनके जीवन को स्पंदित करता रहा। प्रेम उनकी अक्षय निीिध था। एक बार उन्होंने कहा भी था कि प्रेम कर्तव्य भावना से बेहतर शिक्षक है।
आइंस्टीन के सरोकारों का दायरा बड़ा था। चीजें उन्हें मथती थीं। बर्लिन में सन् 1918 में वे जर्मन डेमोक्रेटिक पार्टी के संस्थापकों में एक थे। वे समाजवाद के हिमायती थे और पूंजीवाद के बैरी। व्ला. इ. लेनिन के वे प्रशंसक थे, लेकिन उन्हें अनीति, अराजकता, युद्ध और आतंक से चिढ़ थी। लेनिन की भूरि-भूरि प्रशंसा करने के बावजूद उन्होंने सन् 1925 में बोल्शेविकों के शासन को आतंक-राज की संज्ञा देते हुए उसे मानव-इतिहास की त्रासदी बताया।
आइंस्टीन मध्य और पूर्वी योरोप में बसी यहूदियों की उस अश्केनाजी बिरादरी से ताल्लुक रखते थे, जो बेबीलोनियां के बजाय फलस्तीनी रीति-रिवाजों और मान्यताओं का पालन करती हैं और जिसमें थोड़ी-बहुत प्राचीन यिद्दिश जुबान भी प्रचलित थी। यह जानकर बहुतों को अचरज हो सकता है कि वे राष्ट्रवाद के हिमायती नहीं थे। उन्मादी राष्ट्रवाद के खतरों से वे वाकिफ थे। सन् 1925 में येरूशलम में हिब्रू विश्वविद्यालय की स्थापना में उन्होंने महती भूमिका निभायी थी, लेकिन पृथक इस्राइल की स्थापना से उनकी सहमति न थी। वे चाहते थे कि फलस्तीनी और यहूदी उस भूभाग में एक साथ रहे। मगर इतिहासचक्र कि सन 1948 में यहूदियों को अपना पृथक सार्वभौम राष्ट्र मिला और उसे जन्म के साथ ही युद्ध में उलझ जाना पड़ा। नवंबर, सन् 1952 में प्रथम इस्राइली राष्ट्रपति चेम वीजरमान का देहांत हो गया। एजरियेल कार्लबाख की गुजारिश पर बेन गुरियां सरएके प्रतिष्ठित नेता ने आइंस्टीन को यहूदी राष्ट्र का राष्ट्रपति बनाने की पेशकश की। वाशिंगटन में इस्राइली राजदूत अब्बा इबान ने आइंस्टीन से मिलकर रजामंदी का आग्रह किया। आइंस्टीन ने प्रार्थना ठुकरा दी। इबान का कहना था कि यह सर्वोच्च आदर है, जो यहूदी कौम अपने बेटे के प्रति दर्शा सकती है, लेकिन आइंस्टीन पसीजे नहीं। बाद में उन्होंने कहा कि वे भावविह्वल हुए, एकबारगी उदास भी, किन्तु आॅफर कुबूल नहीं कर सके।
आइंस्टीन विज्ञान को समर्पित व्यक्तित्व थे। विज्ञान से इतर उनकी कोई अभिलाषा न थी। वे प्रेम-रस में डूबते-उतराते और गोते लगाते थे। ‘एथिक्स’ उनके लिए मायने रखते थे। इंग्लैंड और अमेरिका के एथिकल कल्चर ग्रुप, ह्यूमनिस्ट सोसायटी, न्यूयार्क और रेशनलिस्ट असोसिएशन से वे जुड़े हुए थे। उन्होंने अफ्रीकी-अमेरिकी नागरिकों के अधिकारों के लिए अभियान छेड़ा था। अश्वेतों के दर्द को वे समझते थे। जातिभेद को वे विकृति मानते थे। पेनसिल्वानिया में लिंकन विश्वविद्यालय ने उन्हें मानद उपाधि दी। उनके जीवन में जरूरतमंद निर्धन नीग्रो छात्र की पढ़ाई की फीस जमा करने जैसे प्रसंग भी मिलते हैं।
आइंस्टीन मूल्यानुगत आचार-विचार में यकीन रखते थे। यह अकारण नहीं है कि वे महात्मा गांधी के प्रशंसक थे। यह अत्यंत अर्थपूर्ण है कि सारी दुनिया जिस शख्स पर निसार थी, वह शख्स गांधी पर निसार था। गांधी से उनके तार जुड़ने का किस्सा रोचक है। 27 सितंबर, 1937 को विल्फ्रेड इजरायल गांधी के अनुयायी वी. ए. सुंदरम को आइंस्टीन के पास ले गये। गांधी के बारे में दोनों का संवाद हुआ। आइंस्टीन ने उसी वक्त गांधी को खत लिखा, जिसका गांधीजी ने तत्परता से उत्तर दिया। उनकी नजरों में गांधी भविष्य के अग्रदूत थे। गांधी के बारे में उनका कथन गांधी के बारे में विश्व में सर्वाधिक उद्धृत कथनों में एक है और गांधी के व्यक्तित्व की महानता और विलक्षणता को व्यक्त करता है। दुर्भाग्य से इन दो समकालीन महानों की परस्पर भेंट नहीं हो सकी, अलबत्ता आइंस्टीन महात्मा से भेंट को आतुर थे। प्रसंगवश उल्लेखनीय है कि आइंस्टीन के एक अन्य भारतीय विभूति रवींद्रनाथ ठाकुर से मैत्री संबंध थे। यहां तक कि गुरूदेव रविंद्र उनसे मिलने बर्लिन भी आये थे। 
आइंस्टीन के व्यक्तित्व की असाधारणता को देखते हुए ईश्वर और धार्मिक आस्था के बारे में उनके विचार जानना महत्वपूर्ण होगा। ईश्वर को वे मात्र एक ‘अभिव्यक्ति’ और मनुष्य की दुर्बलता की उपज मानते थे। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा था-‘‘मैं नास्तिक नहीं हूं। आप मुझे अज्ञेयवादी कह सकते हैं।’’ वे कर्मकांड से विरत धार्मिक थे। एकबारगी उन्होंने कहा था कि नैतिक संस्कृति के बिना मानवता के लिए कोई समाधान नहीं है। यह पूछने पर कि क्या आप पुनर्जन्म को मानते हैं, उन्होंने दो टूक कहा-‘‘नहीं, मेरे लिए एक जन्म पर्याप्त है।’’
सन् 1955 में इस महान शख्सियत ने दुनिया को अलविदा कहा। चिकित्सक उनके जीवन को दवाओं और मशीनों के सहारे कुछ दिन और खींच सकते थे। उन्होंने मनना कर दिया। जीवन का कृत्रिम निर्वाह उनकी दृष्टि में बेसुवादी था। उन्होंने कहा-‘‘मैंने अपना हिस्सा निभा दिया। समय आ गया है कि मैं शान से जाऊं।’’ उनके शब्द थे-‘‘आई वान्ट टु गो, हवेन आई वान्ट।’’ उन्होने जिया और शान से तब रुखसत हुए, जब चाहा। उनके चिकित्सक डॉ. थॉमस स्टोल्टज हार्वे ने उनकी या परिवार की अनुमति के बिना उनका मस्तिष्क निकालकर भावी पीढ़ियों के लिए सुरक्षित रख लिया। पूछ सकते है कि क्या डॉ. हार्वे ने कोई गुनाह किया? वैज्ञानिकों की बिरादरी यही कहेगी-‘‘नहीं, कतई नहीं।’’ अगर्चे यह प्रश्न स्वयं आइंस्टीन से पूछा जाता तो वे भी यही कहते-‘शाबास, डॉक्टर। आपने सही किया।’’

( डॉ. सुधीर सक्सेना देश की बहुचर्चित मासिक पत्रिका ” दुनिया इन दिनों” के सम्पादक, देश के विख्यात पत्रकार और हिन्दी के लोकप्रिय कवि- साहित्यकार हैं। )

@ डॉ. सुधीर सक्सेना, सम्पर्क- 09711123909

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