कविता @ विजय सिंह नाहटा
क्या तुम्हें याद है ! दोस्त ?
जब जून की गर्म हवा के थपेडों ने हमारे कदमों को
चाहा रोकना
और लू ने तो हमें झुलसा ही दिया बेरहमी से
फिर भी एक आग हमें वहन करती
अंतिम दिग्विजय के लिए
संध्या के ढलते सूरज में
लौटते हुए शिविर में
क्लान्त ; निरूत्तर से हम
एक दूजे की तरफ पेड़ की टहनियों से झुके हुए
तब तक प्रतिकार औ’ प्रतिरोध के अनगिन चक्रव्यूह
तैयार थे सज-धज कर गर्मजोशी से हमारा पथ रोकने
उन बीहड़ यात्राओं में
सारे व्यूह से गुजरते हुए
कष्टप्रद रात्रियों के दरमियां
हमें याद था हमारा महान स्वप्न
कि–; सारी निरर्थक धारणाओं को चीर कर
रूढ हो चुके मिथ्यात्व की जंजीरों से बाहर
बच रहेगी एक दुनिया
और— ठोस भ्रान्तियों की जगह स्थापित होगा
एक न एक दिन दमित सत्य
— तुम्हें तो होगा याद ?