कविता @ सतीश कुमार सिंह

प्रस्तुति- विजय सिंह

कीड़ा

वह कीड़ा ही था
जिसने इंसान को तमीज़दार
और रूतबेदार बनाया

मसले कुचले जा रहे
शोषित जन में से
कोई एक सबसे पहले खड़ा हुआ होगा
( या हुई होगी )
जुल्म के खिलाफ़
कहा होगा – ऐ साहेब , ऐ मालिक !
हम इंसान हैं कीड़ा नहीं
इस तरह न दबाइये
जरा सलीके से पेश आइये

यह भी तय है
कि इतना कहते ही
शायद वह जान से गया हो
या हो गया हो हमेशा के लिए अपाहिज
पर इतना तो जरूर है
कि इस अजब इंसानी हौसले में
कम नहीं है एक कीड़ा का योगदान

कीड़ों से भरी है यह दुनिया
बताते थे हमारे जीव विज्ञान के मास्टर साहब
न जाने उनके कितने नाम
अमीबा से लेकर पैरामीशियम का चित्र बनाते
कि वायरस है ख़तरनाक
जैसे अणु से ताकतवर परमाणु
ऐसे ही कीड़ा का सूक्ष्मतर रूप वायरस

पूछती है दादी –
कोरोना काए बाबू
अब अनपढ़ बूढ़ी दादी को
भला कैसे समझाऊँ
कि क्या है कोरोना वायरस
कहता हूँ – कीड़ा है
जो होते हमारी तम्हारी तरह भले और बुरे
कुछ शरीर की रक्षा में तैनात
कुछ रोगग्रस्त करने को तत्पर
महामारी के इस दौर में
कोरोना के नाम से पूरी दुनिया में
यही है अभी कब्जा जमाए हुए

दादी को समझाता हूँ
यह आदमी के दिमाग़ से निकला
एक कीड़ा है
दादी रहस्यमय ढंग से मुस्काती है

लेकिन मुझे और दादी को
अब भी बहुत भरोसा है
कि यह कीड़ा जरूर हारेगा
उसी पहले आदमी के साहस के दम पर
जिसने सबसे पहले किया था
कीड़ा होने से इंकार

Spread the word