कविता@ केदारनाथ अग्रवाल

प्रस्तुति- लक्ष्मीकांत मुकुल

बसंती हवा
हवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूँ।

    सुनो बात मेरी -
    अनोखी हवा हूँ।
    बड़ी बावली हूँ,
    बड़ी मस्तमौला।
    नहीं कुछ फिकर है,
    बड़ी ही निडर हूँ।
    जिधर चाहती हूँ,
    उधर घूमती हूँ,
    मुसाफिर अजब हूँ।

न घर-बार मेरा,
न उद्देश्य मेरा,
न इच्छा किसी की,
न आशा किसी की,
न प्रेमी न दुश्मन,
जिधर चाहती हूँ
उधर घूमती हूँ।
हवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूँ!

    जहाँ से चली मैं
    जहाँ को गई मैं -
    शहर, गाँव, बस्ती,
    नदी, रेत, निर्जन,
    हरे खेत, पोखर,
    झुलाती चली मैं।
    झुमाती चली मैं!
    हवा हूँ, हवा मै
    बसंती हवा हूँ।

चढ़ी पेड़ महुआ,
थपाथप मचाया;
गिरी धम्म से फिर,
चढ़ी आम ऊपर,
उसे भी झकोरा,
किया कान में ‘कू’,
उतरकर भगी मैं,
हरे खेत पहुँची –
वहाँ, गेंहुँओं में
लहर खूब मारी।

    पहर दो पहर क्या,
    अनेकों पहर तक
    इसी में रही मैं!
    खड़ी देख अलसी
    लिए शीश कलसी,
    मुझे खूब सूझी -
    हिलाया-झुलाया
    गिरी पर न कलसी!
    इसी हार को पा,
    हिलाई न सरसों,
    झुलाई न सरसों,
    हवा हूँ, हवा मैं
    बसंती हवा हूँ!

मुझे देखते ही
अरहरी लजाई,
मनाया-बनाया,
न मानी, न मानी;
उसे भी न छोड़ा –
पथिक आ रहा था,
उसी पर ढकेला;
हँसी ज़ोर से मैं,
हँसी सब दिशाएँ,
हँसे लहलहाते
हरे खेत सारे,
हँसी चमचमाती
भरी धूप प्यारी;
बसंती हवा में
हँसी सृष्टि सारी!
हवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूँ!

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