गीत@नरेंद्र श्रीवास्तव
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अंधकार के लिए उजलते चलें
रोशनी के लिये हम जलते चलें
भीड़ को तुम अपना समझते रहे
कमजोर फूलों को मसलते रहे
कुछ भी हो, सारा भ्रम टूट जायेगा
एक दिन सभी का साथ छूट जायेगा
छूटे हाथ साथ-साथ मिलते चलें
आँधी नहीं अब तो तूफान चाहिये
और सच्चे हाथों में कमान चाहिये
ऐसे हो तो दिन ही बदल जायेंगे
अंधियारे रोशनी में ढल जायेंगे
शमा पर परवाने से मचलते चलें
सारा देश मंदिर है धरम के लिये
देवता भी तरसे जनम के लिये
कौन दोष भला यहाँ तकदीर को
हम जो बना लेते इसकी तस्वीर को
रंग सारे धुंध के बदलते चलें
लौटती बहारों को बुलाओ तो सही
आँसुओं के साथ मुस्कुराओ तो सही
क्यारी में अकेला फूल खिल जायेगा
कोई न कोई तो साथी मिल जायेगा
राहों में जो काँटे हैं मसलते चलें
रोशनी के लिये हम जलते चलें
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