कविता@ नीलोत्पल रमेश

मेरे गाँव का पोखरा

मेरे गाँव का पोखरा
अपने पुराने दिनों में
कभी नहीं लौट पायेगा
तभी तो इसका स्वरूप
पोखरा से पोखरी हो गया है

इसके भी कभी दिन थे
जब इसके किनारे – किनारे
पीपल , महुआ और आम के  पेड़ थे
जो इसके सौंदर्य में
किया करते थे वृद्धि
और बरसात के दिनों में
गाँव के लड़कों का
लगा रहता था हुजूम
वे इस पर चढ़ते
और पानी में कूद पड़ते
फिर डूबकी मार
चले जाते , बहुत दूर

वर्षों बाद
जब मैं गया अपने गाँव
तो पाया
कि अब पोखरा नहीं रहा
इसके चारों ओर से
अतिक्रमित करके
गाँव के लोगों ने ही
इसके सौंदर्य को
कर दिया है सीमित

जब मैं बहुत छोटा था
अपने भाइयों के साथ
गर्मी के दिनों में
जाल लेकर
कूद पड़ते थे
मछली मारने
वे मछलियाँ जो
उच्छ्ल – कूद मचाते रहतीं –
टेंगरा , फरहा , बांगुर , पोठिया
गरई , चलहवा या जो भी हो
जाल में फँस
मेरे घर के स्वाद में
कर देती थीं वृद्धि

इस पोखरे में
इतना पानी रहता
कि इसके आसपास के खेतों को
दो – तीन बार सींचा जा सके
लेकिन अब एक बार भी
नहीं सींचा जा सकता
कारण कि यह उथला हो गया है
और संकुचित भी हो गया है
इसमें पानी संचय करने की
अब शक्ति भी नहीं रही

जिस पोखरे में पानी
सालोंभर रहा करता था
अब तो पानी रहता ही नहीं
जबकि पहले
गाँव – जवार के मवेशियों का
यह बना रहता था अखाड़ा

समय की मार
और लोगों की   
संकुचित मानसिकता ने
इस पोखर को
पोखरी बना दिया है
जो दिनों – दिन
और सिकुड़ता जा रहा है |

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