कविता: सुनो, साहिर @ डॉ. सुधीर सक्सेना

सुनो, साहिर
•डॉ. सुधीर सक्सेना

सुनो, साहिर!
आ रही है आठ मार्च
एक बार फिर,
वो तारीख जब तुम आते थे लुधियाने
बिला नागा
नहीं तनहा, सजाते महफिले-यारां
नोश फर्माते थे सिगरेटें,
सुनाते पुरअसर नज्‍मे,
लगाते कहकहे ऐसे
कि माहौल हो उट्ठे संदली खुशनुमा
तुम्हारे होने से था लुधियाने को
गुमां ऐसा
कि जो भी आये है, पूछे है :
ये रूपोशी तुम्हारी है सितम, साहिर कहाँ हो तुम:
कि इक मंदिर था लुधियाना
और रहे तुम उसके सनम
तुम्हारी जिंदगी में ठोकरें भी, रास्ते पुरखार
रहे शुरूआत से ही तुम आशुफ्ता-निजामी के शिकार
झेला किये तुम बचपने से
अपने वालिद चौधरी फजल मोहम्मद की
बदनीयती, जोरो-जुलुम और सख्त मिजाज
सुनते रहे मां सरदार बेगम की दर्दभरी सर्द आवाज
देखी तुमने अपने हक के लिये
मर्दों को ललकारती उसकी जद्दोजहद
तय किया लडूंगा इंसाफ के वास्ते
किया सच का अहद

मां का आंचल थाम तुम चले आये
पिता की हवेली को त्याग
बनाया मां के आंचल को परचम समय के साथ
लिखे तुमने कसैले वक्त में
नगमें मोहिब्बत के
जंगखोर जमाने में लिक्खे
अम्नो-अमन के पैगाम

जंग को मानते रहे तुम एक मसअला
जिसकी जेब में किसी मसअले के खात्मे का
नहीं कोई कारगर नुस्खा

याद है हमें
जब मौसम दांत किटकिटा रहा था बेसाख्ता
कहा तुमने पुअसर आवाज में साहिर!
वो फूल खिलके रहेंगे जो खिलने वाले हैं

जाने है हर आमो-खास बखूबी जाने है
कि तुझे इंसानियत का दर्द कुदरत ने ही बख्शा था
तिरा मकसद फ़क़त शोलानबाई था नहीं शाइर
इक सांझ बुदबुदाये थे तुम
‘बहुत घुटन है कोई सूरते बयां निकले’

फिरते रहे तुम लिये दहकां के दर्द का एहसास
कोरे कागद पर उभरे तुम्हारे हरूफ:
खेते अपने जलें कि औरों के
जीस्त फाकों से तिलमिलाती है
तुमने ताउम्र जिरह की, खड़े किये सवाल
पूछा-क्या मिलें इसीलिए रेशम के ढेर बुनती हैं
कि दुख्तराने-वतन तार-तार को तरसें?

देखा दुनिया ने
मुद्दओ को लेकर तुम रहे कितने बेज़ार
तुमने लानतें भेजीं उन्हें
जो संसार से भागते फिरते हैं। किया ऐलान
कि ये जिंदगी नहीं है भगोड़ों के वास्ते
तुम पेश आये उन मर्दों से हिकारत और तल्खी के साथ
जिन्होंने तहजीब को धता बतायी
और दिया औरत को बाजार

तुम शख्स कमाल के
और तुम्हारी शाइरी इस कदर बाकमाल
कि ‘जिन्हें नाज है हिन्द पर वो कहां हैं’ पर
निसार पंडित जवाहरलाल
वो देखो!
पार उस धुंद के
गुनगुनाता है – गुरूदत्त
सचिन दा की बांधी धुनों पर तुम्हारी नज्म
सुर साधती है सुधा मल्होत्रा
तुम मुझे भूल भी जाओ तो ये हक़ है तुमको
तुम्हारे बिना सूनी-सूनी है अदब की हर वज्म

खैर, कौन कमबख्त है
जो तुम्हें चाहे औ भुला पाये,
कि तुम नज़मों में ज़िदा
सफर हम तै किया करते हैं उनके ही मकामों पर
बिला शक फूटती है रोशनी
तेरी कलम की रोशनाई से
चमकते हैं हरूफ ज्यों रेडियम इस घुप अंधेरे में

तुम गजब शै,
ऐ मिरे शाइर!
तुमने चुकता किये जमाने के तमाम उधार
और लौटा दिये दुनिया को तज्रबातों – हवादिस
नग़मों की शक्ल में
संगीन दौर की स्याह रातों में भी
तुम जागे, रहे बुनते रहे कल के वास्ते ख्वाब
जमाने की नजर में रहे आये तुम बेहतरी के वास्ते हर सू बेताब

तुम फिरा किये
जमाने की चोटों से घायल ज़िस्म लिये
बदहवासी के आलम में
रूह प्यासी रही तुम्हारी ओ’ दिल उदास
इस कदर कि इकबारगी तुम्हारे तिश्नागर लबो से
फूट पड़ी सिसकी:
“मैंने चांद और सितारों की तमन्ना की थी
मुझको रातों की सियाही के सिवा कुछ न मिला

न जाने कितने सोतों का पानी है
तेरी शाइरी के धारे में
मगर वह इस कदर घुलमिल कि वह धारा अलहदा है
वह है ख्यालों से रोशन
और वहां दिल भी धड़कता है
वहां सुब्ह है और मनचीती सुबह का खाका भी
और तो और कोई सिंफनी सी बजती है

यकीनन,
तुम फिक्रमंद रहे
कहा-तुमने, तुम अपना रंजोगम,
अपनी परेशानी मुझे दे दो!
कहा इकबारगी जज्बात की रौ में तुम्ही ने
‘मैं देखूं तो सही दुनिया तुम्हे कैसे सताती है”

आज भी थियेटर के पार्श्व में बजता है तुम्हारा गीत
हवा जरा महक जो ले, नजर जरा बहक तो ले!
‘ये शाम ढल तो ले जरा, ये दिल सँभल तो ले जरा
ये कुछ और नहीं, मालिको!
बस तुम्हारा जादू है, जियादा नहीं
बस, थोड़ा सा, तुम्हारे अंदाज में कहूं तो ‘जरा’

कहूं तो तुम फ़कत मेरे नहीं
हमारे मकबूल शाइर हो
तुम्ही हो, तुम तरक्की पसंद अवाम की च्वॉइस
कि तुम बूझते हो नवयुग के तकाज़े
तेरे गीतों में गंगो-जुमन की तहजीब रवाँ
जंग और नज्म पे तिरे पर्चे में
तेरी ज़हनियत जाहिर, तेरा फलसफा बयां

याद आती है हमें
वक्त से बेतरह तेरी जिरह,
याद आती है एक सौ नब्बे मिसरों की तेरी तवील नज़म
तेरी ‘परछाइयां’ रूलाती हैं
निकल दराज से मेज-दर-मेज
याद आती है तेरी फितरत
तेरी तन्हाई से गिरह

लोग आते थे तुझे लेके टिकट सुनने को
लूटते रहे तुम महफिलों पे महफिलें
वाहवाही की गिन्नियां बटोरता रहा
तेरा हर मिसरा
याद आता है तेरी बाबत फिराक का फिकरा

तेरी मोहब्बत इस कदर पुरअसर
कि सिगरेट नोश हुई अम्रता प्रीतम
‘रसीदी टिकट’ में यादों के संग तुम चस्पां
कौन जाने कि वजनी था अधिक उसका
या तिरा ग़म

तुम शाइर थे या साहिर थे
या दोनों ही ऐ गज़ब जादूगर
हिन्दी औ’ उर्दू में तुम यकसां सिद्धहस्त
खुली सड़कों और पोशीदा गलियो में तुम्हारी गश्त
तुम्हें सुनूं तो
तुम्हारे लफ्जों का लम्स महसूस होता है,
कभी लब थरथराते हैं,
दिलों में हूक उठती है
अदब की बात हो तो नजर दो टूक उठती है

अपनी जुर्रत से तोड़े तुमने
हिन्दवी के सनीमा के रिवाज़,
रहे तुम काकुले गेती संवारने को व्यग्र,
कहा तुमने, ये जाश्ने मसर्रत नहीं, तमाशा है
नये लिबास में निकला है रहजनी का जुलूस’
तुमने अल्फाज से जमाने को होशियार किया:
कहा “ताजशाही के कसीदे हो चुके
फाक़ाकश जम्हूर की बाते करो”
गज़ब मयार का शाइर तू, सलाम तुझे
अदब के व्योम में इस कदर ऊँची तिरी परवाज़

यूँ, कठिन है तुम्हारे क़द का सही एहसास
कि तुम पल दो पल के शाइर नहीं,
तुम में अपने वक्त की हदों को लांघने की कुव्वत,
बर्बादियों का सोग मनाने की बजाय
जिंदगी का साथ निभाने की ज़िद और जुनूं

बताना तो सही
तुम क्या सोचते हो
क्या तुम्हें अभी भी यकीन है
कि आज के बेहूदा और बेगैरत निज़ाम में
वो हिन्दु बनेगा, न मुसलमान बनेगा
इंसान की औलाद है इंसान बनेगा

बताना तो सही, साहिर!
क्या तुम अभी भी मुतमईन हो
कि हजार बर्क गिरें, लाख आंधियां उट्ठें
वो फूल खिलके रहेंगे, जो खिलने वाले हैं।
………….

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