व्यक्तित्व: डॉ. सुधीर सक्सेना, लीलाधर मंडलोई की नज़र में

वो हर तरह से लेकिन औरों से जुदा है
• लीलाधर मंडलोई
“चलने दो बंधु
कलम का हल चलने दो”
(लाला जगदलपुरी)
सुधीर मेरे उन अनन्य दोस्तों में हैं जिन्होंने तमाम प्रतिकूल जीवन स्थितियों में कलम के सहारे मझधार में डोलती नैया को पार किया। एक बेहद छोटी सी तनख्वाह के भरोसे वह समाचार भारती में काम करने रायपुर पहुँचा। मैं आकाशवाणी में था। हम दोस्त हुए और यह ऐसी दोस्ती थी कि मुसीबत में जैसे दोस्त का मजबूत काँधा। हमने साथ रहते हुए सिर्फ लड़ना सीखा ज़िदगी से। हमारी जिंदगी में लड़ाई की ताकत प्रेम रहा। दोस्तों का भरपूर प्रेम। उन दिनों हम अमूमन भूखे रहते हुए समोसे पर दिन गुजार लेते थे। जब पैसे होते तो ‘ऐसो’ केंटीन में दाल के साथ रोटियों के विरल स्वाद में डूब जाते थे।
सुधीर ने साहित्य और पत्रकारिता के बीच एक ऐसी सांस्कृतिक भाषा को अबेरने का हुनर सीख लिया था जो दोनों जगह अपना बखूबी काम कर सकती थी। वह लिखता था। उसमें भाषा का नवाचार होता था। भाषा के इस नवाचार में कई रूपबंध अपनी जगह खोज लेते थे। जब वह फीचर, लेख या रेडियो वार्ता लिखता तो उसमें संस्मरण, यात्रा आख्यान और आत्मकथा के शेड्स होते। वह हम सब में बहुत घुमक्कड़ी प्रवृति का रहा तो उसकी भाषा में नये शब्दों की आत्मीय आमद होती। उसने दोस्तों पर अनेक कविताएं लिखीं जो गहरी रागदारी से आईं हैं। जो प्यार में जुनून के बिना संभव नहीं। वह इंसानों के साथ प्रकृति और परिवेश से मौहब्बत में डूबा इंसान रहा। प्रेम की उसकी भूख इस कदर थी वह उसे जैसे बस ढूँढता रहता। उसके जीवन का पहला और अंतिम प्रेम रायपुर में ही परवान चढ़ा और वह दांपत्य जीवन में बंध गया। और तब न अच्छी नौकरी थी, न अच्छी तनख्वाह और न ही रहने को घर था। पर वो अपने प्यार में बेताब दिखा। उसके प्यार पगे पल मुझे सदा ही याद आए –
‘सख्त काफिर था जिसने पहले
मज़हबे इश्क़ इख्तियार किया
सुधीर को मैंने सदा इश्क में निभाने वाला पाया। वो खुद ताज़िदगी हलकान हैरान हुआ लेकिन भाभी-बच्चों को एक अनुकूल ज़िंदगी अता करने में लगा रहा। जैसे वे सब भी उसकी भाषा के अहम हिस्से थे, जिन्हें हर हाल में नये रंग, नये उजालों से भरना था। आज भी उसका परिवार उसकी जिजीविषा की तरह गतिमय है नये-नये पते-ठिकानों की खोज में सक्रिय। वह जैसे इश्क की एक ऐसी लंबी दास्तान अब भी लिख रहा है जो लिखी जाती रहेगी और पूरी न होगी।
मुझे मीनाकुमारी का एक शेर बेइनतहा याद आता है जब
मैं उसकी जिंदगी की गिरह खोलने बैठता हूँ –
अल्लाह करे कि कोई भी मेरी तरह न हो
अल्लाह करे कि रूह की कोई सतह न हो
हालांकि ये मेरी सोच है और उसके उन दिनों की याद में जब वो तंगहाल था लेकिन उसने कभी मीनाकुमार की तरह अपनी ज़िंदगी को नहीं लिया। उसने उसे लड़ते हुए पार करने का इल्म सीख लिया है। वह उल्टी नाव में सफर करने का माद्दा रखने वाला लेखक और शख्स है।
आज हम अपना बीता देखते हैं तो उसमें अनेक प्रसंग हैं, जो एपिकल हैं और आत्मकथा या जीवनी में ही आ सकते हैं। अपनी-अपनी संघर्षगाथा बिना ग्लेमराइज किए, एक ईमानदार लेखन का विषय सुधीर के पास है लेकिन वह तो फिलहाल लेखन-संपादन से रोटियों के लिए शब्द गूंथ रहा है। अकेले दम पर अखबार निकालना, पत्रिका बार-बार शुरू करना। दफ्तर, घर बनाना और बेचना, गिरवी रखना आदि उसके लिए एक तकलीफदेह लेकिन सामान्य जीवनक्रम रहा। वह गर्दिशों से कभी उबर न सका। झंझा से बाहर आया भी तो खुद अर्सा के लिये। मुसीबतों और अभावों ने उसे फिर घेर लिया कि मुसीबतों की डिक्शनरी में लिहाज़ शब्द नहीं होता।
अब वह पिछले कुछ सालों से फिर अपने दम पर पत्रिका निकालने में जुटा है। पत्रिका भी व्यवसायिक या राजनीतिक शिल्प और कलेवर में कम और सांस्कृतिक अर्थ में अधिक जो आज ‘मार्केट फ्रेंडली’ वस्तु तो कतई नहीं। कई बार उसके काम और उसके तरीकों को लेकर कुछ दोस्त उसकी आलोचना से आगे कोसने के भाव में दीखते रहे हैं लेकिन सतह से दीखता सच भीतर का नहीं होता। कोई आज बड़े अख़बार मालिकों से तो अनैतिक गलबहियाँ करते हैं और संघर्ष में रत मध्यवर्गीय पत्रकारों पर टीका टिप्पणी करते हैं। खैर…ऐसे लेखों के लिए सुधीर कुछ ऐसा बना रहा। बक़ौल इब्ने इंशा –
बरगश्ता हुआ हमसे ये महताब तो प्यारोबस बात सुनी राह चला काहकशाँ की
(विमुख आकाश गंगा)
उसकी लड़ाई में उसे जो कुछ भी हासिल हुआ और खोने के उदाहरण भी सामने आए, लेकिन उनके उत्स में एक लेखक रहा अपने जिद्दी सरोकारों के साथ। जो अब भी उसके जीवन में अहम हैं। गजब का जीवट है सुधीर नाम के शख्स यानि मेरे यार में। वह झुकता नहीं, टूटता भी नहीं। कहता है कि मेरा मेरूदंड धरती के साथ नमन कोण नहीं बनाता।
मैं अपने दोस्त के साथ रहने के सुख में जीना चाहता हूँ। मैं बर्ज तर्के मुहब्बत वाले दोस्तों में नहीं हूँ और अपनी दोस्ती के लिए अहमद फ़राज का शुक्रगुजार हूँ जिन्होंने ऐसी ही रागदारी के लिए कहा :
‘पहले भी लोग आए कितने ही ज़िंदगी में
वो हर तरह से लेकिन औरों से जुदा था।’
अपने यारबाश यार के लिये मुझे ‘था’ की जगह ‘है’ जरूरी और सही लगा-

लेखक:- लीलाधर मंडलोई

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