DMF घोटाला: अफसर ही जायेंगे जेल या नेताओं का भी है कोई मेल….?

कोरबा 23 अक्टूबर। जिले के अब तक के सबसे बड़े और बहुचर्चित जिला खनिज संस्थान निधि यानी डी एम एफ घोटाले में कोरबा की पूर्व कलेक्टर रानू साहू और आदिवासी विकास विभाग की तत्कालीन सहायक आयुक्त माया वारियर पर कानून का शिकंजा कसने लगा है। इनके साथ कई अन्य अधिकारी कर्मचारी, ठेकेदार और सप्लायर भी जेल की हवा खाएंगे। यहां एक बड़ा सवाल चर्चा में है कि इस मामले में केवल अधिकारी कर्मचारी ही जेल जाएंगे या डी एम एफ बोर्ड में रहने वाले नेताओं का भी इनसे कोई मेल होगा? आखिर घोटाले के दौरान अधिशासी परिषद के सदस्य रहे नेताओं की क्या भूमिका थी?

उल्लेखनीय है कि जिले में डीएमएफ घोटाले में कई मामले सामने आ रहे हैं। तत्कालीन कलेक्टर रानू साहू और आदिवासी विकास विभाग की सहायक आयुक्त माया वॉरियर के कार्यकाल में 125 करोड़ रुपए से अधिक की सामग्री की खरीदी की गई थी। इसमें आत्मानंद स्कूलों के लिए फर्नीचर, कैमरे, टीवी भी शामिल हैं। जबकि इसकी जरूरत भी नहीं थी। डीएमएफ घोटाले में निलंबित आईएएस रानू साहू और माया वॉरियर को ईडी गिरफ्तार कर चुकी है। अभी पूछताछ के लिए दोनों ही पुलिस रिमांड पर हैं। तत्कालीन कलेक्टर रानू साहू जून 2021 से जून 2022 तक कोरबा की कलेक्टर रही हैं। इसी दौरान आदिवासी विकास विभाग में माया वॉरियर सहायक आयुक्त रह चुकी हैं। सबसे अधिक गड़बड़ी खरीदी में ही की गई है। लोकल टेंडर करने के लिए बाहर से लोगों को बुलाया गया था। नियम के तहत जेम पोर्टल से खरीदी होनी चाहिए थी। लेकिन यहां लोकल टेंडर के माध्यम से खरीदी की जाती थी। आत्मानंद स्कूल के जहां भवन ही नहीं बने थे, वहां के लिए भी फर्नीचर की खरीदी की गई। आश्रम और छात्रावासों के लिए लकड़ी का – बेड, अलमारी, लॉकर, वाशिंग मशीन भी खरीदी की गई। स्कूलों में अभी बैंक की तरह लॉकर दिया है। इसका उपयोग भी नहीं हो रहा है। कई स्कूलों में तो एक कमरे में रखा हुआ है। इसके कारण ही क्लास लगाने के लिए अतिरिक्त कमरे की जरूरत पड़ रही है। कटघोरा ब्लॉक में 80 लाख रुपए का कंबल बांटने का मामला भी काफी सुर्खियों में रहा है। लेकिन इसकी शिकायत के बाद भी ना तो जांच हुई और ना ही कार्रवाई हुई। यही नहीं, महिला व बाल विकास विभाग में खिलौने, फर्नीचर के साथ अलमारी की खरीदी की गई थी। ऐसा कोई विभाग नहीं बचा था, जहां पर खरीदी नहीं की गई। इसमें ही अधिक कमीशन का खेल चला है। सामग्री सप्लाई के वर्क ऑर्डर की प्रक्रिया ही एक से दो महीने के बीच ही पूरी कर ली जाती थी।

यह तो हुई अधिकारियों की कारगुजारी की कहानी। लेकिन, डी एम एफ की राशि के व्यय के मामले में अकेले अधिकारी ही निर्णय नहीं लेते थे। इसके लिए बाकायदा अधिशासी परिषद गठित थी। यही परिषद तय करता था कि डी एम एफ की राशि को कहां और किन कार्यों में खर्च करना है? इस परिषद में मुख्य रूप से कोरबा सांसद, पाली तानाखार, कटघोरा, कोरबा और रामपुर क्षेत्र के विधायक और खनन प्रभावित क्षेत्र के जन प्रतिनिधि सदस्य होते थे।

अधिकारियों के बाद इन कथित जन प्रतिनिधियों की भूमिका पर सवाल उठने लगा है। आखिर शासी परिषद में इनके होते हुए अधिकारियों ने करोड़ों रुपयों का घोटाला कैसे कर दिया? परिषद के सदस्य जन प्रतिनिधि बनाम नेता आंख मूंदकर प्रस्तावों का समर्थन कर देते थे या अपने विवेक और दायित्व का भी निर्वाह करते थे? अथवा इन नेताओं को भी घोटालों में कमीशन मिलता था? इन नेताओं के द्वारा अपने क्षेत्रों के लिए स्वीकृत कार्यों की बाकायदा लिखित में प्राथमिकता निर्धारित कर कलेक्टर को पत्र लिखा जाता था। साथ ही एजेंसी के लिए भी कथित रूप से सिफारिश की जाती थी। तो क्या इस प्रक्रिया में नेतागण भी एजेंसी के माध्यम से कमीशनखोरी करते थे? कलेक्टर एक बड़ा खेल और करते थे। सामान्य सदस्यों को तो प्रस्तावित कार्य की मौखिक जानकारी दी जाती थी, लेकिन सांसद को पूरे जिले की सूची दी जाती थी। वहीं विधायकों को केवल उनके विधानसभा क्षेत्र से सम्बंधित प्रस्ताव की जानकारी दी जाती थी। नियमानुसार परिषद के सभी सदस्यों को प्रस्तावित समस्त कार्यो की एक एक पुस्तिका बैठक में दी जानी चाहिए, लेकिन विधायकों को भी आधी अधूरी जानकारी दी जाती थी। यहां भी पूछा जा सकता है कि जिले के विधायक पूरे जिले की जानकारी क्यों नहीं मांगते थे? कहीं इसके पीछे कमीशन का खेल तो कारण नहीं था? या, जिन्हें आम जनता ने अपना प्रतिनिधि निर्वाचित किया था, वे सब बेअक्ल थे? क्या उनमें पद के अनुरूप कोई योग्यता नहीं थी? वे, सांसद विधायक पद के लिए सर्वथा अयोग्य थे? सवाल यह भी है कि बीते 5 वर्ष से डी एम एफ के कार्यों और उन पर व्यय की गई राशि का विवरण वेब साईड में अपलोड क्यों नहीं किया गया है? जबकि खनिज संस्थान न्यास में कई कर्मचारी कार्यरत हैं। राज्य शासन से कम से कम तीन बार समूचा विवरण वेब साईड में अपलोड करने का निर्देश आ चुका है। इसके बाद भी विवरण अपलोड नहीं किया गया है। अभी भी इस ओर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। इस बात की जानकारी क्षेत्रीय सांसद और जिले के विधायकों को भी होगी ही, फिर वे इस अनियमितता पर अंकुश लगाने का प्रयास क्यों नहीं करते? कहीं इसके पीछे कमीशन से हाथ धो बैठने का डर तो कारण नहीं है? बहरहाल यह देखना दिलचस्प होगा कि इस मामले में केवल अधिकारी, कर्मचारी, सप्लायर्स और ठेकेदारों पर ही कार्रवाई होती है या कथित जन प्रतिनिधियों को भी कार्रवाई के दायरे में लिया जाता है? वैसे देश में ऐसे उदाहरण कम नहीं हैं, जिनमें विधायक, सांसद ही नहीं मंत्री भी लम्बे समय तक के लिए जेल यात्रा पर भेजे गए हैं।

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