कमलेश भट्ट कमल, दो गज़ल

गज़ल 01
कोई मगरूर है भरपूर ताकत से
कोई मजबूर है अपनी शराफत से
घटाओं ने परों को कर दिया गीला
बहुत डर कर परिंदों के बग़ावत से
मिलेगा न्याय दादा के मुकद्दमे का
ये है उम्मीद पोते को अदालत से
मुवक्किल हो गए बेघर लड़ाई में
वकीलों ने बनाए घर वकालत में
किसी ने प्यार से क्या क्या नहीं पाया
किसी ने क्या क्या नहीं खोया अदावत से

गज़ल 02
वृक्ष अपने ज़ख्म आखिर किसको दिखलाते
पत्तियों के सिर्फ पतझड़ तक रहे नाते।
उसके हिस्से में बची केवल प्रतीक्षा ही
अब शहर से गाँव को खत भी नहीं आते।
जिनकी फितरत ज़ख़्म देना और खुश होना
किस तरह वे दूसरों के ज़ख़्म सहलाते।
अपनी मुश्किल है तो बस खामोश बैठे हैं
वरना खुद भी दूसरों को खूब समझाते।
खेल का मैदान अब टेलीविज़न पर है
घर से बाहर शाम को बच्चे नहीं जाते।
Spread the word