समीक्षा@ब्रह्मण्ड एक आवाज है

ब्रम्हांड एक आवाज है


दर्शन और विज्ञान सम्मत यथार्थ पर केन्द्रित अशोक शाह की कविताएं 


                         सतीश कुमार सिंह 

भारतीय दर्शन में विभिन्न मत – मतान्तरों के बीच प्राकृतिक साहचर्य से बंधे जीवन को लेकर लगभग एकसूत्रता रही है । इसको कालक्रम के हिसाब से कई कई स्तरों पर परिभाषित करने की कोशिशें भी होती रही हैं । प्राचीन काव्य प्रवृत्तियों एवं आख्यानपरक रचनाओं में भी इसके ढेर सारे कथ्य भिन्न-भिन्न रूपों में बिखरे हुए हैं किंतु आज की कविता में उन संदर्भों को यथार्थ की कसौटी पर रखकर परखना भी कवि का एक महत्वपूर्ण कार्य है । अतीत की अतल गहराइयों से चेतना के विभिन्न पक्षों को वर्तमान सत्य के आलोक में देखने समझने का प्रयास भी उतना ही जरूरी है जितना कि आज के ठेठ यथार्थ से रूबरू होने की हमारी गहरी उत्कंठा और जिज्ञासा तक पहुँचने की लालसा है । 

  भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन नई दिल्ली से हाल ही में प्रकाशित हिंदी के वरिष्ठ कवि अशोक शाह का काव्य संकलन ” ब्रम्हांड एक आवाज है ” विज्ञान और दर्शन की उपादेयता पर प्रकाश डालते हुए समकालीन समय को एक अलग ही नजरिये से देखने का दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है । यह रचनाकार की 13 वीं कविता पुस्तक है ।इसके पूर्व उनके बारह काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं जिनमें ” माँ के छोटे घर के लिए ( 1996 ) उनके सपने सच हों ( 1999 ) समय मेरा घर है ( 2003 ) समय की पीठ पर हस्ताक्षर है दुनिया ( 2006 ) समय के पार चलो (2009 ) पिता का आकाश ( 2015 ) जंगल राग ( 2017 ) अनुभव का मुँह पीछे है ( 2018 ) उफक़ के पार ( 2019 ) कहानी एक कही हुई (2020 ) बोलना जरूरी है ( 2020 ) उसी मोड़ पर ( 2020 ) प्रमुख हैं । अपने कवि को सतत लेखन से निखारते अशोक शाह इस कविता संग्रह में अतीत और वर्तमान के मध्य बेहतर संतुलन साधते नजर आते हैं । वे आज की यथार्थपूर्ण चुनौतियों के बीच अपनी दर्शनपरक अनुभूतियों के साथ अपनी कविताओं के लयबोध में एक नया मुहावरा भी गढ़ते चलते हैं ।” इतनी उर्जा तो होगी तुममें ” शीर्षक की उनकी इस कविता में इसे देखा जा सकता है-

किसी भी भूधर से भारी है /तुम्हारा दुख / सदियों से संचित तुम्हारा दुख / प्यार गिलहरी के पंजे में चिपके / उन कणों जितना / सुख – दुख जय- पराजय के बीच तने / रामेश्वरम सेतु के तैरने के लिए जरूरी   

 अशोक शाह अपनी इन सघन पंक्तियों में आज के मनुष्य के अंतर्द्वंद्व को जिस तरह सूत्रों में पिरोकर उद्घाटित करते हैं उसमें रेत के कण बराबर प्रेम को दुख – सुख और जय – पराजय की स्मृतियों के ऊपर रखते हैं । इन तमाम जीवनगत तथा मनोभूत क्रिया व्यापार को रेखांकित करते हुए उस आवाज का भी पीछा करते हैं जो अभ्यंतर और बाहर की नीरवता के साक्षी हैं ।  सृष्टि को उसकी संपूर्णता में महसूसने की क्षमता कवि की समष्टिगत चेतना के विस्तार की एक झलक है जहाँ इस संग्रह के शीर्षक की पहली कविता में यह मुखरता के साथ कुछ इस तरह से अभिव्यक्त हुआ है –

ध्वनि नहीं मोहताज माध्यम की / नहीं निःशब्दता शब्दों की / भीतर – बाहर इनसे भी गहरी / पसरी चादर नीरवता की / संपूर्ण नीरवता में खड़े/ सुना नहीं वृक्ष के रव को / उसके तने से कान सटाये / शिराओं में बहते पय को / प्रकृति एक है पूर्ण ध्वनि / ब्रम्हांड वही पूर्ण प्रणाद

प्रकृति के गहरे और अबूझ रहस्यों को दार्शनिक अभिव्यंजना का पुट देकर अशोक शाह एक तरह से अस्तित्व के एकत्व को सामने लाते हैं । यही नहीं वे सम्पूर्ण प्राणीजगत को अपने आवरण में लपेटे निसर्ग को अपने भीतर तलाशते हैं और कहते हैं-

वनस्पतियाँ देह की इंद्रियाँ हैं/ रूप -रस-गंध-स्पर्श- विमर्श द्वारा/ देही का कराती अहसास/ यदि फूल नहीं होते / अंधा होता आदमी / रूपो , रंगों का सफ़र ठहर गया होता / आँखों की पुतलियों में ही 

इन रूपकों और विम्बों में जीते कवि का मन अपने समय के कठिन स्थितियों को भी अपनी काव्य संवेदना के कथ्य में ढालते हुए छीजते संबंधों और पारिवारिक ताने – बाने के बीच असहाय लोगों की पीड़ा से करूणापूरित है । इस समय सबसे ज्यादा आहत और उपेक्षित है वृद्धावस्था जहाँ वृद्धाश्रम जैसी संस्थाओं में जी रहे बुजुर्गों की ऐसी दयनीय दशा है कि वे एकाकीपन में पल पल मरते रहते हैं । उनकी मनःस्थिति को वृद्धाश्रम कविता में अशोक शाह बड़ी सूक्ष्मता से चित्रित करते हैं  –

जिंदगी है या यतीमखाना / अपनी ही बनाई दुनिया में/ अपनों से हारी हुई जिंदगी ने / पनाह ली है यहाँ  / मानों जमाने के मधुर संगीत से छिटकके कुछ धुनें/ सितार के तार से अलग हो गयी हों / किस सभ्यता ने इतनी बेदर्दी से जिंदगी के छिलके उतारे हैं/ जैसे किसी अभिशाप ने / फलीभूत होने की जल्दबाजी में/ केंचुल छोड़ दिया हो 

अधुनातन जीवन शैली ने विकास की अंधी दौड़ में जिन मूल्यों को तिलांजलि दे दी है उसकी विभीषिका पर कवि की चौकस निगाह है । संबंधों के क्षरण और सुविधाओं को जुटाने के लिए दिन – रात एक अंधी दौड़ में शामिल मनुष्य का रहन – सहन विज्ञान से विकसित तो हुआ है लेकिन जो कुछ उसके हाथों से फिसला है वह उसकी सोच से भी लगभग ओझल होता जा रहा है । इन स्मृतियों में लौटने का उपक्रम कराती हैं कवि की ये पंक्तियाँ-

अपनी विषमता और अपूर्णता में/ मजबूर है आदमी अपने विज्ञान के साथ/ जैसे साँप निगल गया हो छछूंदर / और जानता विकास पथ है / एक बार फिर लौटेगा मनुष्य/ अपनी बनाई दीवाल के उस पार / प्रकृति की पहली पाठशाला में/ जैसै खिंची कोई कमानी / लौटती पूर्वावस्था में/ तनावमुक्त होने के बाद 

               ( विकास का तनाव , पृष्ठ 140  )

 रोजमर्रा की जिंदगी में आदमी इन तनावों के बीच कितने जद्दोजहद से गुजरता है इसे वह ठहरकर देख ही नहीं पाता । भागमभग और भीड़ के रेलमपेल में हमारे अवचेतन के कितने हिस्से दबे होते हैं । सूचना और संचार तंत्र से रोज घटित घटनाओं और खबरों के बेजा दबाव भी किस तरह हमारे मन मस्तिष्क को प्रभावित करते रहते हैं उसकी एक गहरी पड़ताल “अखबार ” कविता में देखने को मिलती है –

हमारे जीवन में अखबार/ खाली चौराहे की तरह उपस्थित होता / लाता सबके लिए कुछ न कुछ जगह / मिल जाते लोग उसके जोड़ पर /घटनाओं की अलग-अलग दिशा लिए/ जैसे टूटकर गिरता पत्ता पेड़ से / धरती के आखिरी छोर पर / रोज सुबह अखबार/ हमारे भीतर के ग़मगीन कोनों में/ बो जाता कुछ बीज / जिनके उगने पर / हम चाहें तो रो सकते हैं/ या हँस भी सकते हैं 

 इस संग्रह की एक और बड़ी खासियत है जिसकी चर्चा मैंने ऊपर की है वह है अनुभूतियों की आँच में पके हुए कुछ छांदसिक शब्दों में गुम्फित लयात्मकता का काव्य शिल्प में रूपांकन , जो अशोक शाह के इसके पहले के काव्य संग्रहों  में उतना दिखाई नहीं पड़ते । कहीं कहीं तो सरल शब्दों के साथ तुकों का मेल एक अलग सांगीतिकता का अनुभव कराते हैं । कविता की यह शर्त भी है कि वह गद्य से इतर लयबद्ध प्रवाह में कथ्य को अपने भीतर तरलता से समो ले । इससे उसकी ग्राह्यता भी बढ़ जाती है । हिंदी के कीर्तिशेष कवि बाबा नागार्जुन , केदारनाथ अग्रवाल से लेकर धर्मवीर भारती , सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, प्रभाकर माचवे तक इसकी एक धारा दिखाई पड़ती है । कवि की ” विरोधाभासी दुनिया ” शीर्षक कविता में इसे देखें –

परस्पर विरोधी ही / एक दूसरे के पूरक होते / पुख़्ता करते दुविधा पर / जीवन के सूचक होते / वेगशीलता के संतुलन में/नृत्यरत रहती दुनिया सदा / पूज पूज भ्रम की तस्वीर/ घूम जाती गलत दिशा / भेद करतीं सीढ़ियाँ/ विकास की पायदान हैं/ नापती है दुनिया को / भ्रम की लिये थकान है 

इसी कड़ी की एक और रचना भी ध्यान खींचती है जिसमें वर्तमान की सामूहिक प्रवृत्तियों को क्षुब्ध मन से स्वर देने का प्रयास हुआ है । ” दिन डूबता रंगमंच जिनका ” रचना इस बात को प्रमाणित करती है कि कवि का दर्शन पक्ष और आज का परिवेश किस तरह एकाकार हो गये हैं । यहाँ जिन प्रतीकों का वे चुनाव करते हैं उसकी लहर दूर तक जाकर किसी प्रश्नाकुलता में कुछ इस तरह डूबती नजर आती हैं  –

दिशा दिशा में नीर बहे / वारिद वायु भयभीत हैं/ कुदरत के सीने में/ बचा कितना नवनीत है / सृजन बस विचार हो गया / खुशी तर्क का अवदान / शब्द शब्द आकाश में/ लंबी भर रहे उड़ान / दिल बैठा पठार हुआ / याद किसे है , कब ? / उल्लास का भिनसार हुआ 

कुल जमा 140 कविताओं के इस संग्रह में कवि अशोक शाह जीवन को समग्रता में देखते हुए प्रकृति के रागात्मक संबंधों और उसके उपादानों को महत्व देते हुए सामयिक विषमताओं पर भी हस्तक्षेप करते हैं । वे जीने के लिए विज्ञान को जितना मनुष्य के लिए जरूरी मानते हैं उतना ही वे भौतिक पर्यावरण के साथ जीवन दर्शन को भी आदर देने की बात अपनी कविताओं में करते हैं । उनके प्रतिरोध का प्रछन्न स्वर स्थितियों को रचना के माध्यम से पाठक के सामने रखकर पूरी सांकेतिकता के साथ विद्रूपता को नेपथ्य में उभारते हैं जो कवि की कलात्मक शिल्प कौशल में गहरी अर्थवत्ता को सँजोने की एक बानगी है –

उरठती जा रही है गाँव की जमीन / पानी धरती की कोख में समा रहीं/ कोदो कुटकी सांई टांगुन भी उगते मुश्किल से / फसलें जिम्मेदारियों से डरने लगी हैं/ गाँव की आग बुझ रही है / शहरों में आग लग रही है

              ( गाँव की आग बुझ रही है , पृष्ठ 106 ) 

  ” स्त्री समय , जो बज रहा एकांत में, बंद मुट्ठियों का चाँद , वह भूल चुकी है उसकी भी एक धुन है , फूली सरसों न खिली तीसी , कंगूरों से नीचे उतरो , कुछ नया होने को है , छूट गई लोकल , गुरुत्वाकर्षण, जीवन नहीं , जिसकी छाया है , रोटियों की शक्ल बदल गई है , जहाँ कुछ लम्स ही जिंदगी है , जैसी कविताएं बेहद आकर्षित करती हैं । कवि अशोक शाह के इस संग्रह की सभी रचनाएँ पठनीय और अलग अलग भाव भंगिमाओं की हैं जहाँ उनके सामयिक सरोकार को पहचाना जा सकता है । उनकी इन रचनाओं में वैयक्तिक अनुभूतियों की भी गहरी गूँज है जो पढ़ने वाले से तादात्म्य स्थापित कर एक तरह से सार्वजनिन अनुभूतियों में ढल जाते हैं । भारतीय प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ अधिकारी का दायित्व निर्वहन करते हुए कवि अशोक शाह इतना महत्वपूर्ण रच लेते हैं कि उनकी इस सर्जनात्मक उर्जा की सराहना किये बिना नहीं रहा जा सकता । कविता ही नहीं उनकी कहानियों में भी ब्रम्हांड और विज्ञान के रहस्यों पर आधारित भारतीय मनीषा के चिंतन की अनुपम झलक मिलती है । जनजातीय समुदाय ,  इतिहास और पुरातत्व पर भी उन्होंने डूबकर काम किया है । अंग्रेजी में लिखित उनकी ये पुस्तकें जिनमें  The Grandeur of Granite , The temples of vyas Bhadora ( 2012 ) vintage Bhopal  ( 2010 )  Ashapuri , The cradle of parmara pratihara Art temples Unveiled ( 2014 ) महत्वपूर्ण हैं । इसके साथ ही दर्शन और अध्यात्म पर केन्द्रित उनकी पहली पुस्तक Total Eternal Reflection ( 2016 ) भी चर्चा में रही है । ब्रम्हांड एक आवाज है काव्य कृति में भी उनका वैज्ञानिक यथार्थ से अभिप्रेरित दर्शन पक्ष बेहद प्रभावी है । मुझे उम्मीद है कि सुधि पाठकों के बीच इस कविता संकलन को समुचित आदर मिलेगा ।  


पुस्तक  – ब्रम्हांड एक आवाज है ( कविता संग्रह  )

लेखक – अशोक शाह 

प्रकाशक – भारतीय ज्ञानपीठ 

18 , इन्स्टीट्यूशनल एरिया , लोदी रोड, नयी दिल्ली 110003

मूल्य  – 280 रूपये 


पुराना काॅलेज के पीछे , जांजगीर

जिला  – जांजगीर-चांपा  ( छत्तीसगढ़  ) 495668

मोबाइल नंबर  – 94252 31110 , 7000196453

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