पंद्रह अगस्त है यह

  • सुधीर सक्सेना

पंद्रह अगस्त है यह,
काल के मान से अमृत काल।
पूछता है कवि सुदामा पांडेय
वाराणसी में बैठा हुआ
‘क्या आज़ादी तीन थके हुए रंगों का नाम है,
जिन्हें एक पहिया ढो रहा है ?”
इसी वाराणसी में सुना कवि का आर्त-स्वर
‘हा, हा, भारत- दुर्दशा न देखी जाई !’

सुनो! कवि!
आज़ादी नेमत है, नहीं है तीन थके हुए रंगों का नाम
अलबत्ता रंगों को है एक रंग का खौफ,
आज़ादी नहीं है एक रंग का विस्तार,
अपितु इन्द्रधनुषी छटा का संसार
सदाशयता, सामंजस्य, सद्‌‌भाव अपार।
सुनो, कवि ! सुनो !!
आज़ादी से पेश्तर और आज़ादी के बाद
हुआ करता है रास्ता पुरखार |
देश यह हमारा, मम् नहीं अस्माकम्
अविशेष नहीं; सभी वर्ग विशेष
चाहिये हमे खूंटे, खोट और खुरंट से मुक्ति
विरक्ति नहीं, प्रभुओं को
वरन लोभ, मोह, मद, मत्सर से अनासक्ति ।

सुनो, भारतेन्दु !
अग्रसर है भारत दुर्दशा की ओर
त्रासदियों की अंतहीन लड़ी है हमारा आज
एक ही धुन, एक ही राग बजाते हैं साज़।
लुप्त हो रहा है गूंथे आटे से खमीर,
वनों से वृक्ष,
हवा से परिमल
जलाशयों से नीर।

दुर्गन्ध है फिजाओं में
नींद में उगते हैं खौफ़नाक सपने,
अपने हुए जाते हैं पराये
और कम से कमतर मेरे अपने
अभी भी बची है उम्मीद के माथे की टिकुली,

आओ !
हम करें प्रार्थना समवेत
कि बचा रहे भूगर्भ, जलाशयों, बादलों में ही नहीं,
मनुष्य की आंखों में पानी

सुनो! सदियों पहले के कवि के बोल
अभी भी प्राणवान हैं, नहीं है अर्थ से न्यून
कहता है खानखाना :
‘पानी गये न ऊबरे, मोती, मानुष, चून।’

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