प्रस्तुति-सतीश सिंह

(01)
सुनो साथियो !
वक़्त पुकारे
हम सब अपने घर से निकलें

हरदम निजी स्वार्थ की बातें
तिकड़मबाज़ी छुपकर घातें
भ्रम के दिन और भ्रम की रातें

तोड़ें कारा सुविधाओं की
कड़ी धूप में आओ सिक लें।

ऐसा जीना भी क्या जीना
घुट-घुट रहना, आंसू पीना,
डर ने अमन-चैन सब छीना

आज़ादी की नई इबारत
फिर से अपने दिल पर लिखलें।

ये कैसी बाज़ारू बस्ती
डूब रही है सबकी कश्ती
महँगी मौत, ज़िन्दगी सस्ती

लूटपाट की दुनिया बदलें
फिर इनसानों जैसा दिख लें


(02)
हम सर्जक हैं समय-सत्य के
नई ज़िन्दगी को स्वर देंगे ।

मैली बहुत कुचैली चादर
घर की मर्यादा बतलाकर
इसे नहीं धोने देते हैं
मुरदा-संस्कृति के सौदागर
           वे इसको जर्जर करते हैं
          हम इसमें तारे जड़ देंगे ।

पाखण्डों के नगर बसाकर
प्रवचन झाड़ रहे हैं तस्कर
जिधर दृष्टि डालो पतझर है
यह कैसा आया संवत्सर
       वे युग को बर्बर करते हैं
       हम इसमें अमृत भर देंगे।

एटम-डालर की ताक़त पर
रौब गाँठते दुनिया-भर पर
यह तो उनका मरण-पर्व है
समझ रहे जिसको जन्मान्तर
वे इसको कर्कश करते हैं
हम इसको नव लय स्वर देंगे ।


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