प्रस्तुति- विजयसिंह

दृष्टि भेद

दिखता है
अंधेरा… आँखें खुली रहने पर
देख सकती है उसे
आँखों की रोशनी

यही वह सत्ता है जिस से प्रकाशित है अंधेरा
अंधकार की कोई प्रतीति नहीं दृष्टहीन के लिए

जनहित ओट में जा पड़ा
है…. यही है
आज की राजनीति का अंधेरा !

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निर्बाध प्रेम


भादों की नदी – सी बहती
ह्रदय की
प्यास है प्रेम
भावना का उफान
मात्र नहीं
अनुभूति की सच्चाई से भरी

पानी में
नमक के एकाकार सा
स्वाति के बूंदों की
बेकली से प्रतीक्षा
चातक का हठ है प्रेम

विरह के बिना उपजता
नहीं यह
सभी विकारों को
भस्म कर देने में समक्ष
आग के
समान है प्रेम
कराहते समय में
संवेदना की रेत पर बिखर रहा है
प्रेम

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हथेली पर चाँद

रंग बिरंगी चाक लेकर
कमरे की दीवारों पर
चित्र उकेरना
अच्छा लगता है उसे
एक रोटी कम खाता
ताकि खरीद सके
चाक या पेंसिल
स्वच्छंद मन से चित्रित करता
मिट्टी ,पेड़, पौधे, लता
पशु पक्षियों का निरीह अवबोध
मानों चित्र न होगा तो न होगा ह्रदय
बचपन की नींद में
उजला सपना देखते देखते
कूद जाता
आसमान से आसमान
तक
एक आध पंख के
सहारे
सोचता
हथेलियों पर
आ गिरेगा चाँद
और होगी भोर!

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हौंसला


जिन्दगी की कशमकश
थमती नहीं ,
थम जाता है हौंसला
समन्दर के कश्तियों
की तरह
दुनिया को बदलने का
नुमाइश करने वाले
कभी अपने दिल में भी
उतर कर तो देख
जहाँ ” मैं ही मैं” नज़र
आता है
वहां ‘हम’ कर के तो देख!

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