आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की ‘विज्ञान-वार्ता’
दिनेश कुमार माली,
तालचेर (ओड़िशा)
आज मेरे हाथों में एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण पुस्तक है‘विज्ञान-वार्ता’, जिसका प्रथम संस्करण 1930 में प्रकाशित हुआ था, नवल किशोर प्रेस, लखनऊ से। आज यह पुस्तक न केवल हिंदी भाषा साहित्य की दृष्टि से ही महत्वपूर्ण है, बल्कि इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इसे द्विवेदी युग के प्रवर्तक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने लिखा था और उसका संपादन भी उस समय के युगांतरकारी साहित्यकार प्रेमचंद ने किया था। मेरे लिए यह बताना इसलिए भी जरूरी है कि यह पुस्तक हमारे महान पूर्वजों की अभूतपूर्व अनमोल विरासत है।पाठकों का ध्यानाकर्षण करना इसलिए भी जरूरी है हिंदी भाषा के प्रथम चरण (1900-1920) में किस तरह की हिंदी लिखी जा रही थी और किन-किन विषयों पर हमारे पूर्वजों का ध्यान जा रहा था। पूरी दुनिया में हमारी हिन्दी भाषा बोलने की दृष्टि से अगर प्रथम नहीं है तो कम से कम द्वितीय अवश्य है, इसलिए इस भाषा की नींव की ईंट बने लेखकों के व्यक्तित्व और कृतित्व को जानना हमारा पुनीत कर्तव्य है। महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के 1900 से 1920 के बीच लिखे गए आलेख, 1930 में पुस्तकाकार और अब 2023 में मेरे हाथों में। देखा जाए तो हमारी तीन पीढ़ियाँ पार हो गई। इस पुस्तक के प्रकाशन के 93 साल पूरे हो गए, मगर यह पुस्तक कभी भी विशेष चर्चा का विषय नहीं बनी। एक दीर्घ अंधेरा युग पार करने के बाद यह पुस्तक 2018 में पुनर्मुद्रित हुई, रायबरेली के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ फैशन टेक्नोलॅाजी और आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी राष्ट्रीय स्मारक समिति के संयुक्त उद्यम से और मुझे मिली आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी राष्ट्रीय स्मारक समिति के रजत जयंती के अवसर पर, उनके संयोजक श्री गौरव अवस्थी जी के कर-कमलों से।
आज महावीर प्रसाद द्विवेदी जी और प्रेमचंद जी को परलोक सिधारे हुए कई दशक बीत गए। भाषा के क्षेत्र में इस धरती पर वे अपना योगदान और दायित्व संपन्न कर हमें छोड़कर हमेशा के लिए ब्रह्मांड के दूसरे लोकों में चले गए। उनके द्वारा हिन्दी भाषा के बीज अंकुरित होकर कितने बड़े द्रुम में बदल गए ? उनके विषयों पर उनकी संतति ने कितना मनन किया ? उनके दिखाए रास्ते पर हम चले या नहीं? उनके प्रति सच्चि श्रद्धांजलि स्वरूप कृतज्ञता ज्ञापित की या नहीं ? इन सारे प्रश्नों के उत्तरों से उनकी दिवंगत आत्माओं को अब कोई लेना-देना नहीं है।बस,उनके लिए तो सबसे बड़ी श्रद्धांजलि यही होगी कि इनके द्वारा विकसित की जा रही भाषा को हम मरने नहीं देंगे, बल्कि उनके सच्चे सपूतों की तरह उस भाषा की प्रगति में दिन दूनी रात चौगुनी मेहनत करते रहेंगे। यही तो उनकी अंतिम अभिलाषा थी।
एक वह समय था, जब पूरे भारत में भाषा बिखरी हुई थी, अंग्रेजों का शासन चल रहा था, मुगलों की भाषा के अवशेष जिंदा थे और ऐसे भी भारत बहुलभाषी देश है, ऐसी अवस्था में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा का लेखन की दृष्टि कोई मानक स्तर नहीं होना स्वाभाविक था। उच्चारण के अनुसार शब्द लेखन में किसी ने बड़ी ई की मात्रा लगा दी तो किसी ने छोटी ई की मात्रा, किसी ने बड़े ऊ की मात्रा तो किसी ने छोटे उ की मात्रा। व्याकरण की दृष्टि से भी भाषा काफी अशुद्ध थी। भाषा की शुद्धता की तरफ सबसे पहले ध्यान गया तो वे थे द्विवेदी जी। और उनका ध्यान जाना ही पर्याप्त नहीं था क्योंकि उसके लिए त्रुटियों को लोक-लोचन में लाने का प्रयास भी उतना ही ज्यादा जरूरी था और इस यज्ञ को आगे बढ़ाने के लिए नए लेखकों के टीम की नितांत आवश्यकता थी।हमें अशेष अनंत धन्यवाद देना चाहिए, तत्कालीन सरस्वती पत्रिका के संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी जी को जिन्होंने अनेक कालजयी लेखकों का निर्माण किया, उनकी रचनाओं को अपनी पत्रिका में स्थान देकर और साथ ही साथ उनका मार्गदर्शन कर। आचार्य किशोर वाजपेयी, कामता प्रसाद गुरु, हरिऔध, मैथिलीशरण गुप्त से लेकर कहीं-न-कहीं सूर्यकांत त्रिपाठी निराला प्रेमचंद जैसे बड़े-बड़े वैयाकरणों और लेखकों ने द्विवेदी जी को अपना गुरु माना और भाषा की शुद्धता पर ध्यान देते हुए लगातार साहित्य साधना में लीन हो गए। देखते-देखते वैश्विक साहित्य में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हुए अमिट छाप छोड़ी। आज यह कहते हुए हमें गर्व होता है, प्रेमचंद हमारे पूर्वज है, जिनके उपन्यास ‘गोदान’, ‘गबन’ ‘कायाकल्प’,‘सेवाश्रम’,‘रंगभूमि’ देश-विदेश की अधिकांश भाषाओं में अनूदित हैँ, जिसमें तत्कालीन भारतीय समाज और संस्कृति की झलक देखने को मिलती है।
विज्ञान का विद्यार्थी होने के नाते यह मेरा परम कर्तव्य बनता है कि मैं उनकी पुस्तक ‘विज्ञान-वार्ता’ पर अपने कुछ विचार रखूँ, अन्यथा मेरी अकर्मण्यता हिंदी भाषा के युग प्रवर्तक द्विवेदी जी के प्रति मेरी कृत्घनता साबित होगी। आज जो हम सुख-सुविधा-संपन्न दुनिया देख रहे हैं, उसे इस स्तर तक लाने में वैज्ञानिकों की अहम भूमिका है। किसी ने अम्लों की खोज की, किसी ने अनंत तारों की दुनिया में अपना जीवन समर्पित कर दिया। किसी ने ऊर्जा और शक्ति का समीकरण देकर भी संकटों को समाधान खोजा, किसी ने टीकाकरण से पीढ़ियों को बचाया, किसी ने विद्युत चुंबकीय किरणों को खोज कर दुनिया बदल डाली। वैज्ञानिकों में लैवाइजिए, मैक्स प्लांक,हेली,आइंस्टीन,हर्शेल,लुईपाश्चर,लोमोनोसोव,फैराडे,फॉरेनहाइट,केकुले,नीलबोर,मेंडलीफ,आर्कमिडीज,रदरफोर्ड,न्यूटन,रॉबर्ट हुक,थॉमस अल्वा एडिसन, इवानोविच,गेलीलियो होमी जहांगीर भाभा, सीवी रमन, जगदीश चंद्र बोस विश्वेश्वरैया आदि ने पूरे विश्व की जीवन-शैली को बदलने में बहुत बड़ा योगदान दिया।किसी ने थर्मामीटर,कमानीदार तुला, ड्रम रिकॉर्डर, दूरबीन, ऑडोमीटर,गोताखोरों की घंटी,जीवाश्म का अध्ययन,प्रकाश बल्ब, टेलीग्राफ,मोशन पिक्चर प्रोजेक्टर, टेलीफोन ट्रांसमीटर,फोनोग्राफ,सिनेमा,टेलीफोन,सीडी रिकॉर्डर्,टेलीग्राफ,ऑटोमेटिक मल्टीप्लेक्स आदि का आविष्कार कर जीवन को सहज बनाया। इसके अतिरिक्त,आवर्त तालिका में नए रेडियोधर्मी तत्वों की खोज, परमाणु संरचना का अध्ययन कर न्यूक्लियर बम तक बना डाले। उत्प्लावकता के सिद्धांत और गुरुत्वाकर्षण के नियमों ने नए वैज्ञानिक दृष्टिकोण का निर्माण किया।
द्विवेदी जी के विराट व्यक्तित्व और विपुल कृतित्व के बारे में बताते हुए गर्व अनुभव करता हूँ कि हमारे युग प्रवर्तक की भाषायी दृष्टि संकीर्ण नहीं थी, उनकी दृष्टि में साहित्य केवल गीत,गजल,कविता,कहानी,उपन्यास, नाटक, संस्मरण, यात्रा-वृतांत, रेखाचित्र आदि विधाओं तक ही सीमित नहीं था, बल्कि उनके राय में ज्ञान की कोई भी विधा क्यों हो, चाहे भूगोल,इतिहास,विज्ञान,अर्थशास्त्र गणित,वाणिज्य–सभी काअध्ययन-मनन-चिंतन-लेखन साहित्य की श्रेणी में आता है। यह दूसरी बात है, आधुनिक साहित्यकार उनकी इस धारणा से सहमत नहीं हैँ, उनका अपना दायरा हैं, अपनी सोच की तरह सीमित। क्योंकि उन्हें केवल यश-कीर्ति-सम्मान चाहिए, किसी भी कीमत भी, इसलिए वे छोटे-छोटे प्रकोष्ठों में बँटे रहना चाहते हैँ, न कि निस्वार्थ मन से योगदान देना। इसलिए हमारा जो मुकाम होना चाहिए था, वह नहीं हो पाया। उल्टा, पूर्वजों के बने-बनाए किले धराशायी हो गए, अवहेलना और उपेक्षा के कारण।
‘विज्ञान-वार्ता’ में द्विवेदी जी के विज्ञान पर आधारित 25 हिंदी आलेख हैँ, और अन्य चार दूसरे विषयों पर। 15 अप्रैल 1928 में उन्होंने इस पुस्तक पर लिखे अपने ‘निवेदन’ में स्पष्ट किया है कि हिंदी भाषा में विज्ञान और कला-कौशल संबंधित पुस्तकों का नितांत अभाव है, जबकि बंगाली, मराठी, गुजराती भाषा में कुछ ऐसी पुस्तकें देखने को जरूर मिल जाती है। इस पुस्तक के संपादक प्रेमचंद जी ने भी टिप्पणी की थी कि यद्यपि द्विवेदी जी ने समय-समय पर इन नए आविष्कारों के बारे में सरस्वती में लिखा था, मगर उन लेखों का न तो ज्यादा प्रचार हुआ और नई जनता पर खास प्रभाव, इसलिए इस अमूल्य निधि को संरक्षित रखने के लिए विज्ञान संबंधित लेखों का यह संग्रह प्रकाशित किया जा रहा है। उनमें से अधिकांश लेख 1903 से 1907 की अवधि के दौरान लिखे गए हैं, जबकि कुछ लेख 1911 से 1916 के बीच की अवधि में। देखा जाए तो आज इन लेखों को प्रकाशित हुए 100 साल से ऊपर हो गए, मगर इस कृति पर न तो कोई विशेष चर्चा हुई और न ही उस पर कुछ लिखा गया। वह समय अलग था, जब देश गुलाम था, मगर अब देश को आजाद हुए 75 साल हो गए, पर आज भी महावीर प्रसाद जी का यह कथन पूरी तरह खरा उतरता है कि अभी भी हमारे देश में विज्ञान आधारित हिंदी पुस्तकों की संख्या बहुत कम है। उन्होंने अपने जमाने के हिंदी लेखकों को याद दिलाया था कि विज्ञान पर लिखना उनका परम कर्तव्य है, फिर भी तत्कालीन लेखकों ने उस तरफ बिल्कुल ध्यान नहीं दिया। ऐसी ही हालत विज्ञान लेखन की आज भी है। भारत सरकार के गृह मंत्रालय विज्ञान पर मौलिक और अनूदित हिंदी पुस्तकों को प्रकाशित करने पर एक लाख रुपए का प्रियदर्शिनी पुरस्कार प्रदान करता है, उसके बाद भी लेखकों में उत्साह और उमंग नजर नहीं आती है। उनके लिए साहित्य केवल कहानियों, कविताओं,उपन्यास आदि तक सीमित है, विज्ञान विषय पर वे अपना सिर खपाना ही नहीं चाहते, क्योंकि उन्हें लगता है विज्ञान की तरफ पाठकों का आज भी रुझान बहुत कम है और जब पाठक ही नहीं होंगे तो लिखने का क्या फायदा ? दूसरा, उनकी सोच में वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले लेखक ही विज्ञान की पृष्ठभूमि पर अपने बीज होते हुए अपना कलमरूपी हल चला सकते हैं।
द्विवेदी जी के मन में नई चीजों को जानने-समझने की जिज्ञासा बहुत ज्यादा प्रबल थी। इस वजह से उन्हें जिस किसी महासागर में ज्ञान के बिखरे मोती मिलते थे, उस महासागर में गहरी डुबकी लगाकर गोताखोर की तरह उन्हें झट से पकड़ कर अपनी झोली में भर देते थे, सरस्वती पत्रिका को अर्पित करने के लिए। युगों-युगों में ऐसा अविरल व्यक्तित्व खोजने से भी नहीं मिलेगा। मैं समकालीन कवियों में डॉ. सुधीर सक्सेना जी को महावीर प्रसाद द्विवेदी जी का पथानुगामी के रूप में देख सकता हूँ। डॉ. सुधीर सक्सेना जी ने विज्ञान के विद्यार्थी होने के बावजूद साहित्य और पत्रकारिता में कई मुकाम हासिल किए हैं और अपनी बहुचर्चित राष्ट्रीय पत्रिका ‘दुनिया इन दिनों’ के संपादन के माध्यम से दीर्घ-अवधि से हिंदी भाषा की सेवा कर रहे हैं। विज्ञान और वैज्ञानिकों पर उनका एक कविता-संग्रह ‘सलाम, लुइ पाश्चर’ मुझे अवलोकनार्थ प्राप्त हुआ था, जिसकी भूमिका में मैंने लिखा था:-
“ आईसेक्ट पब्लिकेशन्स,भोपाल से प्रकाशित डॉ सुधीर सक्सेना का विज्ञान पर अद्यतन कविता-संग्रह ‘सलाम,लुइ पाश्चर’ पढ़कर मैं अभिभूत हूँ क्योंकि आज तक मैंने मेरे जीवन के पाँच दशकों से अधिक काल में विज्ञान और वैज्ञानिकों के जीवन पर आधारित कभी भी हिंदी कविताएं नहीं पढ़ी। निस्संदेह, मेरे स्वयं की विज्ञान की शैक्षिक पृष्ठभूमि होने के कारण इन सारी कविताओं ने मेरे मानस-पटल पर एक अमिट छाप छोड़ी है। यह कहना भी जरूरी है विज्ञान की गाथाओं का हिंदी संस्करण अवश्य होना चाहिए, चाहे गद्य में, चाहे पद्य में। विज्ञान में गहन अभिरुचि होने के कारण कॉलेज जमाने में भारत सरकार द्वारा प्रकाशित ‘विज्ञान प्रगति’ और ‘साइंस रिपोर्टर’ जैसी पत्रिकाओं का नियमित पाठक हुआ करता था। इसलिए कवि सुधीर सक्सेनाजी को हार्दिक धन्यवाद देने का मन करता है कि उन्होंने ‘दुनिया इन दिनों; जैसी राष्ट्रीय पत्रिका के संपादन का बीड़ा उठाने के साथ-साथ साहित्यिक कृतियों की लगातार रचना करते हुए भी अपनी विज्ञान की शैक्षिक पृष्ठभूमि को बिना भूले विज्ञान के तथ्यों, घटनावलियों और वैज्ञानिकों के जीवनियों का अध्ययन कर उन्हें कवितारूपी माला में पिरोकर आकर्षक तरीके से पेश करना, जो न केवल विज्ञान के विद्यार्थियों को, बल्कि साहित्यानुरागियों में मंत्र-मुग्ध कर देता है। कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है, यह कविता-संग्रह पाठकों के लिए मन में न केवल वैज्ञानिक दृष्टिकोण पैदा करेगा, बल्कि उनके संघर्ष, सुख-दुख और कार्य-निष्ठा से प्रेरित होकर अपने हृदय में विश्व नागरिकता के अंकुरों का बीजारोपण करेगा।”
महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के पथ पर चलकर सक्सेना जी ने भी हमारा भी मार्गदर्शन किया है।‘विज्ञान-वार्ता’ के प्रथम आलेख में द्विवेदी जी लिखते हैं कि हमारा देश योग-विद्या और अध्यात्म-शक्ति का घर है, फिर भी हमें अपनी ज्ञान पिपासा को बुझाने के लिए विज्ञान का सहारा लेना ही होगा। उनके कुछ आलेख ‘पृथ्वी’, ‘पृथ्वी की प्राचीनता’, ‘मार्तंड महिमा’, ‘दीप्ति मंडल और सूर्याभास’, ‘मंगल’, ‘मंगल के चित्र’, ‘मंगल ग्रह तक तार’, ‘ग्रहों पर जीवधारियों के होने के अनुमान’ आदि उनकी अंतरिक्ष विज्ञान में विशेष रुचि होने के साथ-साथ अमूर्त, अदृश्य,अलौकिक परम ईश्वरीय सत्ता के अनुसंधान का उद्देश्य भी प्रकट करती है। इन खगोलीय पिंडों के बारे में उनकी सोच जितनी गहराती जाती है, उतना ही वे स्वयं को हतप्रभ महसूस करते हुए ईश्वरीय सत्ता के समक्ष श्रद्धापूर्वक नमन करते हुए हृदयोद्गार भी व्यक्त करते हैं।
‘पृथ्वी’ आलेख में ब्रह्मांड के सापेक्ष पृथ्वी की स्थिति, उसकी आकृति, गहराई, परिधि, व्यास, त्रिज्या, घनत्व, सूरज से पृथ्वी की दूरी, पृथ्वी का वेग, घूर्णन-गति, ऋतुओं केनिर्माण आदि विषयों पर वैज्ञानिक एवं तात्विक दृष्टिकोण से गहन विचार व्यक्त किए हैं, जबकि अन्य आलेख ‘पृथ्वी की प्राचीनता’ में पहले-पहल डेस विग्नोलिस की पुस्तक ‘क्रोनोलॉजी ऑफ सेक्रेड हिस्ट्री’ के आधार पर सृष्टि निर्माण की अवधि 4000 वर्ष का तथ्य हमारे सामने रखते हैं, फिर उसे आगे बढ़ाते हुए रेडियोएक्टिविटी के आधार पर यूरेनिम परमाणु को रेडियम में बदलने की अवधि 7 अरब 50 करोड वर्ष मानने लगते हैं, फिर भी उनका जिज्ञासु मन शांत नहीं होता है और वे सहारा लेते हैँ मनुस्मृति के श्लोकों का, जिसके आधार पर पृथ्वी की वर्तमान आयु 194,40,00,00,00,000 वर्ष मानते हैं। यह अवधि उन्हें सत्य लगती है और वे कहते हैँ कि इस दिशा में और अधिक अविष्कार होंगे तो हमारे पूर्वजों का उपरोक्त कथन सत्य सिद्ध हो जाता।
गीता के अध्याय 17– श्लोक 17 में युग की परिभाषा का विस्तृत उल्लेख मिलता है। जिसके अनुसार ‘सूक्ष्म काल’ को ‘परमाणु’ के नाम से जाना जाता है। उसके बाद उत्तरोत्तर बढ़ते हुए समय की शृंखला में अणु, त्रेषरेणु, त्रुटि, वेद, लव, निमेष, क्षण, काष्ठा, नाडिका के नाम से माना जाता है। फिर और आगे बढ़ने पर हम देखते हैं कि नाडिका से प्रहर, प्रहर से दिन, पक्ष, मास, अयन एवं वर्ष बनते हैं। वर्षों की समायावधि युग में बदलती है। एक चतुर्युग में सतयुग, त्रेता युग, द्वापर युग और कलियुग शामिल होता है, जिनकी अवधि वर्षों की ईकाई में क्रमशः 4800, 3600, 2400, 1200 होते हैं। समय मापने की कहानी यहीं खत्म नहीं होती वरन् और आगे जाती है जिसके अनुसार एक मानव वर्ष देवताओं के एक दिन-रात के तुल्य होता है, 30 मानव वर्ष देवताओं के महीने के तुल्य, 360 मानव वर्ष को देवताओं का 1 वर्ष कहा जाता है और देवताओं के 12000 वर्ष अथवा 43,20,000 मानव वर्ष को ‘दिव्य युग/महायुग/चतुर्युग’ कहा जाता है। इस तरह सहस्र युग पर्यन्तम् अथवा युग सहस्रान्त का अर्थ एक हज़ार चतुर्युग की अवधि वाला समय है। क्या इस आधार को वैज्ञानिक आधार माना जा सकता है। प्रथम दृश्ट्या गीता में दिये गए युग की परिभाषा का खंडन स्वामी दयान्द सरस्वती द्वारा रचित “ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका” के “वेदोत्पत्ति विषय” के अंतर्गत देखने को स्पष्ट तरीके से मिलता है। जिनके अनुसार एक वृंद, छियानवे करोड़, आठ लाख, बावन हज़ार नव सौ छहत्तर अर्थात् (1,96,08,52,976) वर्ष वेदों और जगत की उत्पत्ति को हो गए हैं और यह संवत् सतहत्तरवाँ (77वाँ) चल रहा है।
अगर आप उपरोक्त बातों में विश्वास नहीं करते हों, नहीं ही सही। अब हम विज्ञान के दृष्टिकोण से त्रेता युग की अवधिकाल की खोज करेंगे, इसके लिए ज्योलोजिकल टाइम स्केल के अनुसार सृष्टिक्रम को दो EON में बांटा गया है। सबसे पुराना क्रिप्टोजोइक इओन (cryptozoic eon) जिसमें पृथ्वी निर्माण से छह सौ मिलियन वर्ष की समयावधि शामिल है। जबकि दूसरा phanerozoic EON है जिसमें छह सौ मिलियन वर्ष से आज तक का समय लिया जाता है। क्रिप्टोजोइक प्रिकेम्ब्रियन समय है जिसमें primitive plant, स्पांज प्रजाति तथा जेली फिश जैसे जानवरों का निर्माण हुआ। जबकि फनेरोज़ोइक EON में तीन युग आते हैं, Paleozoic, Mesozoic और Cenozoic। अगर तीन युगों को पीरीयड में बांटा जाए तो पेलियोजोइक में पर्मियन, पेंसिल्वानियन, मिसीसिपीयन, डेनोनियन, स्केलिरियन, ओरडोविसियन, केब्रियन, तथा मेसोजोइक युग में क्रिटेशियस, केम्ब्रियन तथा मेसोजोइक युग में क्रिटेशियस, जुरैसिक तथा ट्राइसिक एवं सेनोजोइक में क्वार्टसरी व टर्शरी आते है। इस विभाजन के अनुसार करो मेगनन मेन की उत्पत्ति सेनोजोइक युग में होती है, जो आज से 60-65 मिलियन अर्थात् 600-500 लाख वर्ष पूर्व की बात है। जबकि ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका के आकलन से 1960 लाख वर्ष पहले जगत और वेदों की उत्पत्ति हुई। अगर हम दोनों केलकुलेशनों का औसत अर्थात् 1280 लाख वर्ष को आता है। और अगर यू देखें तो DNA के अध्ययन के अनुसार आधुनिक मानव यानि होमोसेपियन की उत्पत्ति अफ्रीका में डेढ़-दो लाख वर्ष पूर्वहुई। यद्यपि उनकी उत्पत्ति और विस्तार के बारे में अभी भी अनुसंधान कार्य शेष है, लेकिन तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि 28 हजार साल पूर्व मनुष्य जाति के रूप में होमोसेपियन ने जन्म लेकर विश्व में अपनी उपस्थिति दर्ज करा ली थी। और दस हजार वर्ष पूर्व मनुष्य ने विश्व में कॉलोनी निर्माण का कार्य शुरु कर दिया था। अनेकों बर्फ युग की शृंखलाओं ने मनुष्य जाति को विविध वातावरण में बदलाव सहन करने के लिए सक्षम बना दिया था, मनुष्य ने शिकार करने के साथ-साथ खेती एवं पशुपालन करना सीख लिया था। कृषि की इस उत्पत्ति को “निओलियिक रिवोल्यूशन” कहा जाता है।
‘मार्तंड महिमा’ में सूर्य की दीप्ति, आकार और ब्रह्मांड में उपयोगिता पर अपने विचार रखते हैं। सबसे बड़े आश्चर्य की बात है कि मनुष्य के आकार की सूर्य के आकार के सामने तुलना कर उन्हें अहंकार, गर्व और घमंड से बचने की सलाह देते हैं। विज्ञान आधारित आलेख के माध्यम से भी समाजोपयोगी मानवता के संदेश देने से वे नहीं चुकाते हैं, जिसका प्रमाण है:-
“ ये जो छोटे-छोटे तारे रात को चमचम करते हुए देख पड़ते हैं उनमें से अनेक ऐसे होते हैं जो हमारे भास्करराव के प्रपितामह से भी बड़े होने की बड़ाई रखते हैं ।आया समझ में ? जिस अनन्त आकाश में ऐसे अनन्त पिण्ड पड़े हुए हैं उसको ब ईश्वर की परमाशक्ति का भी हमको कभी खयाल होता है ? कभी नहीं कभी कभी होता भी है तो बहुत कम। उसके , और उसके बनाये हुए ऐसे ऐसे आतंकजनक पदार्थों के सामने तुछातितुच्छ मनुष्य भी कोई चीज है ? तिस पर भी उसे इतना घमण्ड ! हम बड़े पण्डित, हम बड़े वक्ता, हम न उद्योगी, हम बड़े लेखक, हम बड़े खोजक! हमारी बात को कोई न काटे। हमारी शान के खिलाफ कोई जवान न हिलावे – ” हम चुनां दीगरे नेस्त छिः!”
इसी शृंखला की अगली कड़ी में उनका आलेख है ‘दीप्तिमंडल और सूर्याभास’, जिसमें वे उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव पर कभी-कभी बहुत सारे सूर्यों के एक साथ दिखाई देने को प्राकृतिक और वैज्ञानिक घटना मानते हैं, न कि आम जनता की तरह किसी भी प्रकार के प्रलय का संकेत। सूर्य किरणों के बर्फीले धरातल पर विवर्तन से दिखने वाले छद्म-सूर्यों को सूर्याभास की संज्ञा देते हैं और सूरज के चारों ओर रोशनी वलय को दीप्ति मंडल के नाम से पुकारते हैं। मंगल ग्रह की तरफ उनका झुकाव बहुत ज्यादा है, क्योंकि मंगल को वे भूमि का पुत्र मानते हैं, इसलिए उसे अपने हृदय में नजदीक पाते हैं, अमरकोश में मंगल को भौम भी कहा गया है (अंगरक: कुजो भौमो लोहितांगों महीसुत)। यानि मंगल मही का पुत्र है, इस वजह से हम मंगलवार को भौमवार भी कहते हैं। लेखक का मानना है कि जिस तरह पृथ्वी पर धीरे-धीरे प्राणवायु और पानी मिलने के कारण मनुष्य और जीव-जंतुओं की उत्पत्ति संभव हो सकी, वैसे ही आज नहीं तो काल, कभी-न-कभी मंगल-ग्रह के ठंडे होने पर भी वहां भी हमारे जैसे प्राणी और दूसरे जीव-जंतुों की दुनिया नजर आएगी। जिस तरह ग्रीक और रोमन लोग मंगल को युद्ध और विग्रह का देवता मानते हैं, ठीक वैसे ही हमारे देश के लोग भी मंगल को अनिष्ट का देवता मानते हैं। यही कारण है आज भी मांगलिक लड़की की शादी केवल मांगलिक लड़के से ही होती है। इस धारणा का द्विवेदी जी खुलकर विरोध करते हैं, अपने शब्दों में:-
“ बेचारा मंगल इन अपवादों का पात्र का पात्र नहीं। वह निरपराध है, उस पर एक दूसरे से युद्ध करा देने अथवा एक के साथ दूसरे की हिंसा करने का इलजाम नहीं लगाया जा सकता। वह हस्त-पाद- हीन, सेना-विहीन, बिना किसी प्रकार की शस्त्र सामग्री के, हमारी पृथ्वी के समान ही एक ग्रह है। वह भी एक पिण्ड है, जो पृथ्वी के समान सूर्य की प्रदक्षिणा करता हुआ आकाश में विद्यमान है। यदि उसे यह विदित होता कि लोग उसको इतना बुरा समझते हैं; और यदि वह बदला लेना चाहता तो शायद, वह अपनी एकआध खाड़ी अथवा एकआध नहर को ऐसी नहरें उसमें अनेक पाई जाती हैं- पृथ्वी की ओर बहाकर एक दिन प्रलय कर देता।“
अब आप सोचिए, अप्रैल 1903 में लिखा गया उनका यह आलेख तत्कालीन समाज के अंधविश्वास पर न केवल करारी चोट, बल्कि उन्हें वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रेरित भी कर रहा है। लेकिन हम तो आज भी मानसिकता के गुलाम है, सौ साल पहले वाले समाज की तथाकथित बेड़ियाँ नहीं टूटी है। आधुनिक समाज में आज भी हम वही रहे हैं। हम मंगल को व्यर्थ में गाली देते हैं और उससे जुड़े अंधविश्वासों को आज भी वैसे ही देखते हैं। लेखक ‘मंगल के चित्र’ आलेख में मंगल पर लालिमा देखकर रेतीले मैदानों की बालू और कालिमा देखकर कैस्पियन सागर की तरह विस्तृत जल राशि वाला मानते हैं। इसके अतिरिक्त, मंगल की आकृति, उसके दो ग्रह डीमस और फोबस, मंगल के परिक्रमा-पथ पर उनकी नजर जाती है। ब्रिटिश रेलवे में तारबाबू होने के कारण उनके दो आलेख ‘मंगल ग्रह तक तार’ और ‘तार द्वारा खबर भेजना’ स्वाभाविक है।
मंगल को महीसुत मानने के कारण लेखक कल्पना करता है कि मंगल गृह के लोगों का वजन हमारे वजन से कितना गुना ज्यादा होगा ? क्या वे हमारी तरह सोते होते होंगे या कुंभकर्ण की तरह ? क्या उनका शरीर हमारे शरीर की तरह होगा या भीमभूधराकार शरीर ? मंगल वासी अगर पृथ्वी वासियों से बात करेंगे तो शायद कह उठेंगे, “अरे मूर्खों! तुम्हें हम लोग हजारों वर्षों से पुकार रहे हैं, और तुम हो कि जागने का नाम ही नहीं ले रहे हो।” शास्त्रों में कहा गया है- ‘यथा ब्रह्मांडे, तथा पिंडे’ । इस उक्ति का पालन करते हुए महावीर प्रसाद द्विवेदी जी पिंड यानी शरीर विज्ञान के बारे में भी अपने आलेख लिखना शुरू कर देते हैं, जिसमें ‘आंखों की फोटोग्राफी’, ‘शरीर के भीतर भागों की फोटो’, ‘कृत्रिम-प्राण संचार की चेष्टा’ और ‘रक्त विज्ञान’ प्रमुख हैँ।
‘आंखों की फोटोग्राफी’ में यह दर्शाया गया है कि जो कुछ हम देखते हैं, उसकी तस्वीर हमारी रेटिना पर बनती है और न्यूरॉन के माध्यम मस्तिष्क को इस बारे में संदेश जाते हैं। यही नहीं, जब किसी के मन में दुख और शोक बढ़ता है तो उसकी आंखों से आंसू बहते हैं। इसी तरह पलकों के आगे बरौनियाँ और भौंहें आंखों की सुरक्षा में अपना योगदान देती है। ऐसी सुंदर आँखों के निर्माण से हतप्रभ होकर वे ईश्वर को धन्यवाद देते हैं:-
“ सामान्य फोटोग्राफी में कई रासायनिक औषधें दरकार होती हैं। उनको बनाना कम परिश्रम का काम नहीं। और भी कितना ही खटपटें करनी पड़ती हैं। परन्तु आंख का रेटीना नामक परदा ईश्वर ने ऐसा बनाया है कि उस पर कोई औषध नहीं लगाना पड़ती। बिना औषध लगाये ही उस पर चित्र उतर आता है वह स्वयंसिद्ध ‘ सेंसिटिव प्लेट ‘ है। उसके लिए साधारण फोटोग्राफी के सामान ‘डेवलपिंग ‘ की भी आवश्यकता नहीं होती।आँख का रेटीना नामक परदा बनी बनाई ‘प्लेट’ है। उसके दूसरे परदे ‘ कैमरा ‘ है ; और प्रकृति अथवा ईश्वर की इच्छा फोटोग्राफर ने (चित्रकार) है। जिस ईश्वर ने मनुष्य की अत्यल्प आँख में चित्र कला की सब सामग्री भर रक्खी है। उसके अदभुत कौशल का विचार करके मन आश्चर्य सागर में निमग्न हो जाता है। ( मई , 1903 )”
आज चिकित्सा विज्ञान बहुत आगे हैं, रोबोटिक सर्जरी होने लगी है, MRI, सोनोग्राफी तो बहुत ही साधारण की बातें हो गई हैँ, मगर 1908 में उनके लिखे गए आलेख ‘शरीर के भीतरी भागों के फोटो’ एक्स-रे के जनक रोंजन को लेखक ने हार्दिक धन्यवाद दिया है, जिसकी बदौलत सर्जरी के आसान होने के कारण अपने चिकित्सीय इलाज में आज संपूर्ण संसार फायदा उठा रहा है। वैज्ञानिक शैफर की वक्तृता पर आधारित आलेख है उनका आलेख ‘कृत्रिम प्राण-संचार की चेष्टा’, जिसमें उन्होंने लिखा है कि निर्जीव भी सजीव हो सकते है, अगर केवल उनकी कोशिकाओं को जीवित रखा जाए।
“विज्ञान हमें यह मानने की आज्ञा नहीं देता कि जीवन की रचना किसी अज्ञात शक्ति द्वारा हुई है । हमें यह मानना पड़ता है कि निर्जीव वस्तुओं में शनैः शनैः ऐसे परिवर्तन होते गये हैं जिनसे उनकी अवस्था बदलती गई है और अन्त में वे सजीव हो गई हैं। यह कदापि नहीं कहा जा सकता कि प्राचीनकाल में ये परिवर्तन हुए थे, अब नहीं होते। अब भी इस प्रकार के परिवर्तन अवश्य हो रहे होंगे , परन्तु दुःख से कहना पड़ता है कि हम उन्हें नहीं जानते । यदि भूतकाल में निर्जीव चीजें परिवर्तित होती होती सजीव हो सकती थीं तो कोई बात आज ऐसी नहीं देख पड़ती जिससे कहा जा सके कि इस प्रकार का परिवर्तन वर्तमान – काल में नहीं हो रहा है और भविष्यत् में न होगा। पहले इस प्रकार का परिवर्तन कहाँ हुआ और आजकल वह कहाँ हो रहा है- ये प्रश्न कठिन अवश्य हैं, परन्तु ऐसे नहीं कि हल न हो सकें। एक बार निर्जीव वस्तु का रूप बदलकर सजीव हो जाने की देर है। फिर उसके लिए अपनी ही तरह की वस्तुओं को उत्पन्न करके अपनी संख्या बढ़ाना अनिवार्य हो जायगा।”
तत्कालीन समाज ने शैफर की इस बात की खूब हंसी उड़ाई और उनकी कल्पना को शेखचिल्ली करार दिया था, लेकिन मेरा यह मानना है कि आज का विज्ञान जब ‘क्लोन’ तक पहुंच चुका है तो वह दिन दूर नहीं, जब लोग अपने क्लोन विद्या के बल पर जीवधारियों की कृत्रिम सृष्टि करने का प्रयास अवश्य करेंगे। इसी तरह उनके आलेख ‘रक्त-विज्ञान’ में रक्त के आधार पर मनुष्य और जानवरों की प्रकृति, उनके शरीर की प्रकृति और रोगों की जानकारी प्राप्त की जा सकती है।डॉक्टर रिचर्ड के अनुसार रक्त की परीक्षा से आदमी के काले और गोरेपन होने, हबशी और अन्य आदमी होने, या पुरुष या स्त्री के बारे में जान सकते है। रक्त का भेद प्रवृत्ति की भिन्नता पर अवलंबित है। रक्त द्वारा मनुष्य का स्वभाव भी जाना जा सकता है।
प्रेमचंद ने ‘विज्ञान-वार्ता’ की भूमिका में लिखा है:-
“संसार प्रगतिशील है। कल जो बातें असंभव या दैवाधीन समझी जाती थी, आज वे वैसी नहीं समझी जातीं। इस वैज्ञानिक युग में ‘असंभव’ शब्द की वही दशा हो रही है जैसी कि उसकी नेपोलियन के हाथों हुई थी। नित्य नए आविष्कार हो रहे हैं और जनता उन्हें देख-देखकर चकित रह जाती है।कारण, वह उनके रहस्य और विधान को समझ नहीं पाती , क्योंकि ये सब आविष्कार अंग्रेजी तथा अन्य योरपीय भाषाओं में हैं। केवल हिन्दी जानने वाले पाठकों के लिये अब भी वे आकाश-कुसुमवत् हैं।“
महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने समकालीन अविष्कारों के बारे में समय-समय पर लिखा है जैसे कि ‘रंगीन छायाचित्र’, ‘हिसाब लगाने वाला यंत्र’, ‘कल आधुनिक अविष्कार’ आदि। ‘रंगीन छायाचित्र’ में एरान हैमबर्गर द्वारा रंगीन फोटोग्राफी के आविष्कार को बीसवीं सदी की शुरुआत में अत्यंत रोचक और आश्चर्यजनक खोज मानी जा सकती है, मगर आज सौ साल बाद स्मार्टफोन के सामने रंगीन फोटोग्राफी फीकी लगने लगती है। इसी तरह ‘हिसाब लगाने वाला यंत्र’ आलेख में केलकुलेटर के पहले की खोज पास्कल मशीन पर आधारित है, जबकि ‘कल आधुनिक अविष्कार’ वाले आलेख में पनडुब्बी (समुद्रोदरगामिनी गाड़ी), टेलीफोन के द्वारा फोटो भेजना, रकाबियों को धोने वाली मशीन और 1 मिनट में 12000 डाक टिकट तैयार करने वाली मशीन का जिक्र हैँ। उस दौर से हम अब काफी आगे आ चुके हैं और टेक्नोलॉजी फ़्रेडली भी हो गए हैं, फिर भी यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि सौ वर्ष पूर्व हमारा एक पुरोधा नए-नए वैज्ञानिक आविष्कारों पर नजर रखे हुए था और अपने लेखन के माध्यम से हमें जानकारी भी दे रहा था, ताकि पाश्चात्य देशों की तरह हमारा देश भी वैज्ञानिक प्रगति की ओर अग्रसर हो सके। भौतिक शास्त्र से महावीर प्रसाद द्विवेदी जी इस संग्रह के लिए दो अध्याय चुने हैं, पहला ‘ध्वनि’ और दूसरा ‘संगीत के स्वर’। पहला आलेख 1903 में लिखा गया था और दूसरा आलेख 1907 में। ध्वनि के आयाम, आवृत्ति और दैर्ध्य- सारी वैज्ञानिक शब्दावली को स्थानीय भाषा में उदाहरणपूर्वक समझाने के साथ-साथ साधारण पाठक के मन-मस्तिष्क में दीर्घ समय तक कैसे रखा जा सकता है, उन्हें उस भाषा-शैली में महारत हासिल थी।
‘संगीत के स्वर’ आलेख में उन्होंने संगीत दर्पण संगीत, रत्नाकर आदि के सूत्रों का प्रयोग करते हुए शास्त्रीय संगीत की उत्पत्ति और खासकर सा रे गा मा पा धा नि सा पर भी सविस्तार वर्णन किया है।जब पहले भौतिक और रसायन विज्ञान की बात हो गई तो वनस्पति विज्ञान कैसे पीछे छूट सकती है ? उन्होंने अपने आलेख में ‘वानस्पतिक सज्ञानता’ में जगदीश चंद्र बसु के वैज्ञानिक प्रयोगों के आधार पर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि पेड़-पौधों में भी ईश्वरीय सत्ता का निवास होता है, उन्हीं के शब्दों में देखें :-
“अब इन प्रमाणो को देखकर कोई वैज्ञानिक यह नहीं कह सकता कि जो पेड़ पौधे अपनी टहनियों या पत्तों को नहीं झुका देते उनमें वेदना के अनुभव करने की शक्ति नही। मनुष्य , पशु, पक्षी, जीव, जन्तु, लता , वृक्ष आदि सबमें एक प्रकार की चेतनता है। अतएव सबको आघात-ज्ञान होता है । सबमें ईश्वर की सत्ता विद्यमान है। यह हमारे तत्वदर्शी महात्माओं का निश्चित सिद्धान्त है। उसकी पुष्टि अध्यापक वसु , वैज्ञानिकप्रक्रिया से , करके भारत का मुख उज्ज्वल कर रहे हैं। ( सितम्बर, 1906 )”‘
अध्यापक वसु की अद्भुत अविष्कार’ में भारतीय वैज्ञानिक जगदीश चंद्र बसु की तीक्ष्ण बुद्धि, अश्रांत अध्यवसाय और गंभीर गवेषणा शक्ति को प्रशंसा करते हुए लिखते हैं कि प्रोफेसर बसु ने यंत्रों के द्वारा सिद्ध कर दिया इंद्रिय विशिष्ट पदार्थ ही चेतन युक्त नहीं होते, किंतु सोना चांदी इत्यादि के समान इंद्रियहीन जड़-पदार्थों में भी एक प्रकार की चेतना मौजूद रहती है। प्रकृति विज्ञान की शाखा ;विकास सिद्धांत’ में उन्होंने चार्ल्स डार्विन के विकासवाद सिद्धांत की अपने सशक्त तर्कों के साथ प्रस्तुत कर मनुष्य को प्रबल बनने का आह्वान किया है, क्योंकि आधुनिक युग में हमें मानना ही होगा– सर्वाइवल ऑफ फिटेस्ट। उनके शब्दों में,
“जो प्रकृति अनेक प्रकार के जीव-जन्तु पैदा करती है वही उनका नाश भी करती है। यदि जितने प्राणधारी पैदा हों सब बने रहें और विकास सिद्धान्त के अनुसार उनकी शाखा-प्रशाखाओं की सन्तति बराबर ही बढ़ती चली जाय तो न सबके खाने को खुराक मिले और न रहने को जगह। इसलिए प्रकृति ने इसका प्रबन्ध पहले ही से कर दिया है। जितने बीज बोये जाते हैं पहले तो सब उगते ही नहीं। और जो उगते हैं उनमें सबसे अधिक बलिष्ट पौधे ही जिन्दा रहते हैं। निर्बल पौधे बलिष्टों से दबकर कुछ दिनों में मर जाते हैं। जीवधारियों की भी यही दशा है । परस्पर एक दूसरे को वे खा जाते हैं। इसी से आज तक जीव-जन्तुओं के कितने ही वर्ग नष्ट हो गये और होते जा रहे हैं। संसार में जीवन निर्वाह का बड़ा विकट संग्राम जीवों में छिड़ा हुआ है। जो सबल होने के कारण अपना जीवन अच्छी तरह निर्वाह कर सकते हैं वही जीते रहते हैं। शेष नाश को प्राप्त हो जाते हैं। देश और काल की व्यवस्था के अनुसार जीवों को अनेक प्रतिकूल बातों का सामना करना पड़ता है। उनसे वही पार पा सकते हैं जो अधिक सबल और सहने की अधिक शक्ति रखते हैं। निर्बल का कहीं ठिकाना नहीं। प्रकृति भी, जो सबल और निर्बल दोनों को पैदा करती है , निर्बल का पक्ष लेकर सबल ही का लेती है। अतएव सिद्ध है कि संसार में निर्बल का गुजारा नहीं। इससे मनुष्य का सदा प्रबल बनने का प्रयत्न करना चाहिए।विकास-सिद्धान्त अभी बाल्यावस्था में है। कोई दिन ऐसा आदेश जब वह अपने आविष्कारों से संसार को और भी अधिक चकित कर देगा। ( अगस्त , 1996)”
यद्यपि ‘प्रतिभा’, ‘न्याय शास्त्र’, ‘संपत्ति शास्त्र’, और ‘भारत की चित्र विद्या’ आदि विज्ञान के विषय नहीं है, मगर संपादक महोदय ने इन आलेखों को ‘विज्ञान-वार्ता’ में क्यों जोड़ा ?- इस विषय पर आज कुछ कहना मुश्किल है, क्योंकि ‘न्याय-शास्त्र’ भारतीय शास्त्रार्थ की परिपाटी पर आधारित है तो ‘संपत्ति शास्त्र’ अर्थशास्त्र का एक स्वरूप है। अजंता के चित्र, रामायण, महाभारत और पुराणों में वर्णित चित्रशाला, बौद्धधर्म के अनुयायियों के चित्र और अशोक का चित्र यह सिद्ध करते है कि मूर्तिकला और चित्रकला भारत से ही पूरे विश्व में फैली है। अन्य ‘प्रतिभा’ एक ऐसा आलेख है जिसमें उन्होंने मनुष्य के अधोपतन को प्रतिभा से जोड़ा है। इस संदर्भ में उन्होंने बहुत सारे उदाहरण भी दिए हैं कि प्रतिभाशाली लोग या तो अक्सर पागल होते हैं या फिर अपस्मार और विक्षिप्तता के शिकार। इस दृष्टिकोण से देखा जाए तो हमारे कालिदास, भवभूति, भास्कराचार्य आदि महापुरुष पागल की श्रेणी में ही आएंगे। उनमें न केवल मानसिक विकार, बल्कि शारीरिक खामियां भी थी। लेखक ने इस संदर्भ में उदाहरण दिया है:-
“अरिस्टाटल , प्लेटो , ग्रे , गोल्डस्मिथ , टामसमूर , चार्लस् लैम्व इत्यादि योरपीय प्रतिभावानों के आकार छोटे थे। इस देश के विद्वानों में ईश्वचन्द्र विद्यासागार और वामन शिवराम आपटे का आकार भी लम्बा न था। बाबू रमेशचन्द्रदत्त भी एक मध्य आकार के पुरुष थे। ईसाप, गालबा , पोप, रकाट, बाइरन और गिबन इत्यादि में से कोई कुबड़ा, कोई लँगड़ा और कोई टेढ़े पैरों का था। कानपुर के पण्डित प्रतापनारायण की भी कमर कुछ झुकी हुई थी। डिमारथनीज़, सिसर, अरिस्टाटल, वाल्टर स्काट, मिल्टन और नेपोलियन अत्यन्त दुबले पतले थे। बेकन, न्यूटन, पोप, और नेल्सन बाल्यकाल में बहुत ही अशक्त और रोगी थे। ईसाप, अरिस्टाटल, डिमास्थनीज़ वर्जिल और डारविन तोतले थे। कानपुर के प्रसिद्ध कवि ललिताप्रसादजी को भी नेत्रों से कम दिखाई पड़ता था। इंग्लैंड में जितने बड़े बड़े कवि हो गये हैं वे प्रायः सभी निःसन्तान थे । उदाहरणार्थ- शेक्सपियर , बाइरन , कोलरिज , एडिसन और कारलाइल आदि ने विवाह तो किया परन्तु उससे वे सुखी नहीं हुए जैसे विक्षिप्त और अर्धविक्षिप्त मनुष्यों की आकृति उनके माता पिता की आकृति से बहुधा कम मिलती है , वैसे ही प्रतिभाशालियों की भी आकृति उनके माता पिता की आकृति से नहीं मिलती। जूलियस सीज़र , नेपोलियन , वालटेर और बाइरन इस बात प्रमाण है।“
उसी तरह प्रतिभाशाली लेखक के बारे में भी वे ऐसी सोच रखते थे, जो निम्न पंक्तियों से प्रकट होती है:-
“एक विद्वान् ने लिखा है कि लेखन कला किसी की इच्छा पर अवलम्बित नहीं रहती अर्थात् इच्छा करने पर उसे कोई अपने अधीन नहीं कर सकता, उसकी सिद्ध एक प्रकार के मनोजन्य सुखद ज्वर के वेग पर अवलम्बित रहती है। वह कहता है कि मैं जो कुछ लिखता हूँ उसे न तो अपने देश के लाभ के लिए लिखता हूँ, न भाषा की उन्नति के लिए लिखता हूँ और न कीर्ति के लिए ही लिखता हूँ। मुझमें जो लेखन-शक्ति है उसे काम में लाने से मुझे जो एक आलौकिक आनन्द मिलता है, उसी की प्राप्ति के लिए मै लेखनी उठाता हूँ। यह उक्ति यथार्थ है, उसकी यथार्थता का अनुभव केवल प्रतिभाशील जन ही कर सकते हैं। प्रतिभावानों में इस अद्भुत शक्ति के उदय होने के जो कारण हैं; भविष्यद्वादी महात्माओं में उनकी उक्तियों के भी वही कारण हैं; और विक्षिप्तों में उनके कार्य, उनकी बातचीत, और उनके असम्बद्ध प्रलापों के भी वही कारण हैं।“
मगर एक कथन मुझे अवश्य विवादास्पद लगता है:-
“पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियाँ अधिक कोमल, निर्बल, भीरु, और वातप्रकृतिवाली होती हैं इसलिए उनमें बहुत कम प्रतिभा देखी जाती है। सबल, निर्भय, दृढ़ांग और पित्तप्रकृतिकवाले पुरुषों ही को उन्माद अधिक सताता है। उन्माद और प्रतिभा का पिता एक ही है। इसलिए जहाँ भाई का आवागमन रहता है वहाँ भगिनी भी पहुँच जाती है।”
जबकि आजकल जो भी देखा जाता है, सारा का सारा व्यतिक्रम है। आईएएस, इंजिनीयरिंग, मेडिकल की प्रवेश परीक्षाओं की टॉपर अधिकतर लड़कियां ही होती है, जो उनके पुराने ख्यालात वाली अवधारणा को झूठला देते हैं। इस निबंध-संग्रह को पढ़ने के बाद आप अवश्य ही महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के बहुआयामी व्यक्तित्व से परिचित हो सकते हैं कि वे किस हद तक ज्ञान पिपासु थे और जो भी उन्हें ज्ञान-संपदा जहां-कहीं से प्राप्त होती थी, उन्हें अपने शब्दों के सांचे में ढालकर आने वाली पीढ़ी के लिए ज्ञान-मंजूषा में हमेशा के लिए सुरक्षित रखने का प्रयास करते थे। इतनी सारी वैज्ञानिक खोजों पर आलेख लिखने के बाद भी अगर महावीर प्रसाद द्विवेदी जी समपर्ण भाव से नतमस्तक होते है तो वह है, ईश्वर के प्रति। यही वजह है कि ईश्वरीय शक्ति को सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिक बताते हैं, और अपने आलेखों के माध्यम से वे वैज्ञानिक खोजों द्वारा हो रहे अनवरत विकासवाद और अध्यात्मवाद में संतुलन की शिक्षा देते है। सृष्टि की रक्षा के लिए जितना ज्यादा विज्ञान जरूरी है, उतना ही अध्यात्मवाद। इस तरह विज्ञान जैसे तथ्यपरक, अन्वेषणात्मक नीरस और अमूर्त विषयों को खंगालकर अपनी ज्ञानात्मक संवेदना के आधार पर गद्य की पंक्तियों में ढालना किसी बिरले रचनाकार के सामर्थ्य से ही संभव हो सकता है और ऐसी उर्वर कलम के धनी आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी को शत-शत नमन करता हूँ और हिंदी पाठक वर्ग से मेरा अनुरोध है कि आप उनकी ‘विज्ञान-वार्ता’ के अध्ययन से उनकी साहित्यिक अवधारणाओं की व्यापकताओं और सूक्ष्मताओं से परिचित होते हुए उनके भाषा-सौंदर्य के वलय में विज्ञान की दूसरी अनोखी दुनिया में यात्रा करने लगेंगे, और समस्त विश्व में विज्ञान अपना अमिट स्थान बनाएगी।