साक्षात्कार : डॉ. सुधीर सक्सेना से प्रद्युम्न सिंह की बातचीत

‘कविता लिखने के लिए मनुष्य होना पहली और ज़रूरी शर्त है’

आप इस देश के बड़े पत्रकार हैं और बड़े कवि भी हैं। पत्रकारिता और कविता का क्षेत्र पृथक है, आप दोनों में समन्वय कैसे करते हैं?

  • मैं नहीं जानता कि बड़े पत्रकार और बड़े कवि से आपका आशय क्या है और बड़ा कवि व बड़ा पत्रकार कहने या मानने के आपके मापदण्ड क्या हैं? इस पर कोई टिप्पणी करना भी कठिन है। मैं मानता हूं कि किसी भी कवि या पत्रकार को मग़रूर नहीं होना चाहिए और उसे आत्मश्लाघा से बचना चाहिए। बहरहाल, आपका कथन पत्रकारिता और कविता के परिदृश्य में मेरी मौजूदगी की तस्दीक करता है, अन्यथा ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है जो कविता की बात करो तो मुझे पत्रकार और पत्रकारिता की बात करो तो मुझे कवि बताकर किसी भी संकाय में मेरी ‘नोदणी’ करने से चालाकी से बच निकलते हैं। मैं कविता के किसी मठ या गढ़ में नहीं रहा, लिहाजा किसी मठ या गढ़ की खाता-बही में मेरा नाम दर्ज नहीं हुआ। हिन्दी में कविता के संसार में अनेक ऐसे तथाकथित बड़े कवि व आलोचक मोहर्रिर की भूमिका में बने रहे, जिनकी मोहर के बिना कवियों के लिए स्थापित होना दूभर था। ऐसे घाघ-मोहर्रिरों का नाम लेने की ज़रूरत नहीं। उन्हें पहाड़, मैदान, तलहटी और तटीय सारे कवि-लेखक जानते हैं। ऐसे मोहर्रिरों से न मैंने रिश्ते गांठे, न तरजीह दी और न ही गुणगान किया। नतीजा सामने है। मैं बस पढ़ता-लिखता रहा। मुझे संतोष है कि मैंने कविता और पत्रकारिता दोनों ही कर्म ईमानदारी से निभाये। मैंने दोनों के तकाज़े पूरे किये। मैं अभिव्यक्ति की बेचैनी से ग्रस्त रहा। पढ़ना मेरी ज़रूरत रहा और मैं लिखे बिना रह नहीं सकता था। उन्हें अपनी या पत्रकारिता यानी कहे साहित्यकारिता, उन्हें अपनी खुराक के लिए समूचा आदमी चाहिए। मैंने अभाव, गर्दिश, जद्दोजहद से गुजरते हुए इस शर्त को पूरा किया। लेखन, चाहे वह पत्रकारीय रहा हो या मौलिक, मेरे लिए अभिव्यक्ति का जरिया रहा। मैंने अपनी सोच, दायरा और फलक बड़ा रखा। मैंने अनुवाद भी किये, इतिहास-लेखन भी और संपादन-प्रकाशन भी। मैं तात्कालिक लाभ, पद-पदवी और प्रतिष्ठा के फेर में नहीं पड़ा। साहित्य और पत्रकारिता दोनों ही मुझे प्रतिपक्ष की भूमिका में खड़े नज़र आये। ऐसा नहीं है कि दोनों परस्पर पीठ किये हुए हैं। दोनों पूरक हैं। अगर पत्रकारीय लेखन स्तरीय है और मूल्यों से परिचालित है, तो उसमें और मौलिक लेखन में ज्Þयादा फासला नहीं है। एक बेहतरीन रिपोर्ताज साहित्य की धरोहर हो सकता है। डायरी और यात्रा-वृत्तांत की भी यही स्थिति है। बहुतेरे साहित्यकार पत्रकारिता को हेय मानते हैं। यह नज़रिया सही नहीं है। लेखन कोई भी हो, आपकी दृष्टि, सरोकार और अभीष्ट मायने रखते हैं। मैंने पत्रकारिता भी की और लेखन भी, और वह भी एक ही कालखण्ड में लगातार। मुझे एक साथ दोनों के निर्वाह में कभी कोई कठिनाई नहीं हुई। मैं ‘आज’ जैसे अख़बार में रहा, ‘समाचार भारती’ जैसी बहुभाषी-संवाद समिति में रहा, ‘माया’ जैसी सामयिक पत्रिका में रहा, ‘वेब दुनिया’ जैसे पोर्टल में रहा और ‘वॉयस आॅफ अमेरिका’ जैसी अंतरराष्ट्रीय ब्रॉडकास्टिंग एजेंसी में रहा। साथ ही मैं कविताएं लिखता रहा, खूब गद्य-लेखन किया, अनुवाद किये, इतिहास की खोज कर क़िताबें लिखीं। न कविता मेरे कवितेतर लेखन में आड़े आयी और न ही इतर लेखन मेरे कविता-कर्म में बाधक बना। उलटे पत्रकारिता और यायावरी ने मेरे ज्ञानकोशों को समृद्ध किया तथा साधना से अर्जित भाषा-शैली ने मेरे समस्त लेखन को चमक दी। पुरअसर होने के लिए पुरजोखिम होना ज़रूरी है। प्रयोगधर्मिता का कोई विकल्प नहीं। भाषा में आदमी होने की तमीज़ सिर्फ़ कविता तक सीमित नहीं है। वह सब कहीं मायने रखती है। ज़िंदगी और लेखन में घूमना, पढ़ना, बांचना और बूझना मायने रखता है। आप गर इकहरे नहीं हैं और चैतन्य तथा प्रो-एक्टिव हैं, तो यक़ीन मानिये कि आपकी प्रतिभा एक विधा या संकाय तक सीमित नहीं रहेगी। पत्रकारिता और साहित्य का एक साथ निर्वाह एक मौजूं और बेहतरीन ‘कॉम्बिनेशन’ है। रचनात्मकता आपको मांजती है और पत्रकारिता ‘एनरिच’ करती है। नतीजतन यू क्रियेट मोर एण्ड समथिंग डिफरेन्ट।

कविता रचनात्मक हस्तक्षेप है और पत्रकारिता सामाजिक दायित्वबोध है। क्या आपकी कविता में दर्ज चिन्ता इसी दायित्वबोध का परिणाम है?

  • आपका प्रश्न बहुत सार्थक है। वह स्पष्ट और अर्थगर्भित है। आपके प्रश्न में ही उसका उत्तर निहित है। आप मेरी कविताएं देखें। शुरुआत तो सन् 70 के दशक से ही हो गयी थी। तब मैं परम्परागत कविताएं लिखता था। बाद में मुझे समझ में आया कि कविता तुकों से ऊपर की चीज़ है और तुक बंधनकारी हैं और व्यवधान भी। तब मैं नयी कविता की ओर मुड़ा। अर्जित भाषा और लय मेरे काम आयी। आप इमर्जेन्सी से लेकर अभी तक की मेरी कविताओं और साथ ही लंबी कविताओं को देखिये, वहां सामाजिक दायित्व-बोध से उपजी चिंताएं विद्यमान हैं। इन चिंताओं का दायरा बड़ा है। चिंताएं मुझे अहर्निश मथती हैं। दिसंबर, सन् 78 में मैं पहली बार बस्तर गया था और पहली लंबी कविता ‘बस्तर’ मैंने सन् 1979 के पूर्वार्द्ध में लिखी। उसे ज्ञानजी ने ‘पहल’ में छापा और मित्र रमेश अनुपम ने उसे छत्तीसगढ़ के प्रतिनिधि कविता संकलन, ‘जल भीतर इक बृच्छा उपजै’ में शामिल किया। बस्तर की पहली यात्रा ने मुझे जो पीड़ा, टीस और बेचैनी दी थी, उससे मैं आज तक मुक्त नहीं हो सका। उसकी मुक्ति अनेकश: हुई। भिन्न तरीके से। भिन्न विधाओं में। मैं फिर-फिर बस्तर गया। भटका। वह मेरे शोध का विषय भी रहा। मैंने बस्तर पर लिखा। जगदलपुर का शहरनामा लिखा। गूंडाधूर पर नाटक लिखा, जिसका मंचन विभा मिश्र के निर्देशन में भारत भवन में हुआ। मैंने भुमकाल पर लिखा। मेरी कविताओं में चकमा हैं, अश्वेत हैं, हिबाकुशा हैं। चिंताएं न होतीं तो मैं न तो तमाम कविताएं लिख पाता और न ही ‘बीसवीं सदी, इक्कीसवीं सदी’ या ‘अर्द्धरात्रि है यह’ जैसी लंबी कविताएं। यदि त्रासद घटनाएं आपको विचलित नहीं करतीं, तो आप मनुष्य काहे के। कविता लिखने के लिए मनुष्य होना पहली और ज़रूरी शर्त है। चंडीदास कहता है: सबार ऊपरे मानुषेर सत्य। तहार ऊपरे किछू नाई। मैं मनुष्यत्व पर पशुत्व की प्रतिष्ठा को अनुचित और घातक मानता हूं। यह क्या बात हुई कि एक पशु अवध्य है और मनुष्य वध्य। लिंचिंग यक़ीनन एक अमानुषिक कृत्य है। हम बात तो मानवता और आधुनिकता की करते हैं, लेकिन आदिम व मध्ययुगीन मानसिकता से ग्रस्त हैं। हमें ‘साइक’ बदलनी होगी। हमारे ‘माइंडसेट’ में खोट है। हम अपने विकारों को महिमामंडित करते हैं।

कविता में कला की उपस्थिति आप किस स्तर तक स्वीकार करते हैं?

  • साहित्य में अनुभूतियां, भावनाएं, संवेदनाएं मायने रखती हैं, लेकिन महज उनकी अभिव्यक्ति साहित्य नहीं है। अभिव्यक्ति साहित्य में वर्गीकृत तब होती है, जब वह कलात्मक होती है। साहित्य में आप कला पक्ष की अवहेलना नहीं कर सकते। वहां ‘क्या’ के साथ-साथ ‘कैसे’ का भी महत्व है। जब कवि भाषा में ‘तमीज़’ की बात करता है, तो तमीज़ से उसका क्या अभिप्राय है? आप बोलचाल में जिसे ‘शऊर’ कहते हैं, वह शऊर ही कला है। कला साधना से, अभ्यास से, रियाज से आती है। कविता क्या है? मैं कविता को भावों की उत्कृष्ट कलात्मक अभिव्यक्ति मानता हूं। वह ज्ञान को संवेदना के स्तर पर लाने में सहायक होती है। वह विचारों को बोध और संप्रेषण में ढालकर द्युति देती है। अनुभूति और अभिव्यक्ति से जुड़ी किसी भी विधा में अंतत: ‘कंटेंट’ ही ‘किंग’ है, लेकिन कला मायने रखती है। भाव या विचार को रचना के सांचे में ढालने के लिए कला का ‘सलीका’ ज़रूरी है।

आपने इतिहास, भूगोल, समाज, आन्दोलन, व्यक्तित्व और यात्राओं पर गद्य भी लिखा और कविता भी लिखी। विषय की विविधता से आपको  कविता कहीं द्वितीयक होने का ख़तरा नहीं महसूस हुआ?

  • कतई नहीं। कविता ‘द्वितीयक’ कैसे हो सकती है? उसके द्वितीयक अथवा त्रैतीयक होने का प्रश्न ही नहीं उठता। कविता विचार-कौंध के तौर पर जेहन में उभरती है और वहीं सम्यक विस्तार पाकर शब्दों में उतरती है। जेहन में एक खाका उभरता है और वह कथायन का रूप ले लेता है। दोनों शब्द-सत्ता के ही रूप हैं। मेरी स्पष्ट मान्यता है कि तुकों या छन्द से मुक्त होकर भी कविता में एक विशिष्ट अंतर्लय होती है। इसी अंतर्लय के कारण ही कविता और कहानी में भेद है। कथायन और कवितायन भिन्न-भिन्न विधाएं हैं। दोनों के दरम्यां एक झीना-सा विभाजन है। मुझे कुछ कवियों की रचनाएं कविता नहीं लगतीं, अलबत्ता वे कवि के तौर पर प्रतिष्ठित हैं। लयहीन कर्कश गद्य को मैं कविता नहीं मान सकता। राजेंद्र यादव को शिकायत थी कि कविता में ‘डिटेल्स’ नहीं होते। लेकिन डिटेल्स नहीं होने से कविता द्वितीयक नहीं हो जाती। अच्छी कविता मितकथन की कविता होती है। अच्छा कवि शब्दों को खर्चने में किफ़ायत बरतता है। कहानी लिखना तो छोड़िये, कहानी पढ़ने के लिए भी धैर्य और ज्Þयादा समय चाहिये। कविता संकेतों में बात करती है। वह शब्दों के बीच अंतराल में मुखर होती है। आपने व्यक्तियों, आंदोलनों, घटनाओं, शहरों, इतिहास और भूगोल पर गद्य और पद्य लिखने की बात कही। मैं अपने इसी अनुभव के आधार पर अपनी बात कह रहा हूं। आप मित्रों के लिए लिखी मेरी कविताओं के संकलन ‘क़िताबें दीवार नहीं होतीं’ को पढ़िये। वहां मित्रों के बहाने हमारी दुनिया, हमारा वक्Þत और बदलाव मौजूद है। आप ‘बीसवीं सदी, इक्कीसवीं सदी’ या ‘अर्द्धरात्रि है यह’ पढ़िये। सदियों की कहानी है और हमारा हिंस्र, असहिष्णु और भयावह समकाल भी। गुदाज कल्पनाओं और अमूर्तन में धंसे कवियों के बारे में कुछ नहीं कहना। जिनकी पतंग अनंत में चली गयी, उनके प्रति मैं सहानुभूति व्यक्त करूं या तरस खाऊं? कितने ही कवि हैं, जिनकी कविताओं में दुनिया के संश्लिष्ट यथार्थ के अक्Þस नहीं उभरते। वे वहां उबासी या जमुहाई लेते या अवसाद टपकाते या ऐन्द्रिय अनुभवों के चटखारे लेते या अतृप्त यौनिक इच्छाओं को व्यक्त करते नज़र आते हैं। उनकी दुनिया के ‘सच’ से कोई सरोकार नहीं। प्रद्युम्न जी, मैं मानता हूं कि कवि को कविता में साहसपूर्वक ‘सच’ को बयां करना चाहिए। उसे तंत्र नहीं लोक के साथ, असत्य नहीं सत्य के साथ, बदी नहीं नेकी के साथ, युद्ध नहीं शांति के साथ, घृणा नहीं प्रेम के साथ और विनाश नहीं सृजन के साथ खड़ा होना चाहिए। और हां, कविता के लिए कुछ भी वर्जित नहीं है। रचनाकार को दायरों से बाहर निकलना होता है। साहित्य की परम्परा बाल्मीकि की करुणा की परम्परा है। रचनाओं के स्तर के फैसले में एक निकष यह भी होना चाहिए कि उसका प्रयोजन या अभीष्ट क्या है? वह किस वृत्ति अथवा प्रवृत्ति को पोस रही है? विषय की विविधता आपको रचनात्मक नवाचार के मौके देती है और आपके सम्मुख चुनौतियां भी उपस्थित करती हैं। समर्थ कवि के लिए यह विचारणीय है कि वह मानकों के अनुरूप कविता रचता है अथवा उसकी कविताएं नये मानक रचती हैं।

अक़सर होता है जब रचनाकार अपनी विधा बदलता है तब उसकी मूल विधा पीछे छूट जाती है। आपके साथ ऐसा क्यों नहीं हुआ?

  • देखिये, विधाएं परस्पर विरोधी या बैरी नहीं होतीं, वरन वे पूरक होती हैं। साहित्य, संगीत, पेंटिंग, मूर्तिकला, सेरेमिक्स… सब मनुष्य की अभिव्यक्ति के रूप हैं। कहीं शब्द हैं, कहीं रंग, कहीं रेखाएं, कहीं सुर-ताल और लय तो कहीं रूपाकार। कलाओं का रिश्ता मनुष्य की मेधा और उसके चित्त से है। विश्व में सिरजने से अधिक सकारात्मक और सार्थक कुछ नहीं है। हर रचनाकार अपने लिए विधा चुनता है, जिसमें वह स्वयं को मनोवांछित तरीके से उत्कृष्ट तौर पर व्यक्त कर सके। इसी ऊहापोह और खोज में वह विधाएं बदलता है। हर विधा हर किसी के अनुकूल नहीं होती। हर कलाकार विधा चुनता है और विधाएं कलाकार को चुनती हैं। यह बहुत दिलचस्प, चुनौतीभरा और परिवर्तनशील रिश्ता है। सही चुनाव में वक्Þत लगता है और बाज वक्Þत विधा असंगत या अपर्याप्त लगती है। तब नयी विधा तलाशनी होती है या एक से अधिक विधाओं का आसरा लेना होता है। एक से अधिक विधाओं में आवाजाही में उत्तेजना भी है और आनंद भी। वहां अधिक अवसर भी हैं। कथ्य और आवेग अपना रास्ता तलाशते हैं। कविता की ही बात करें तो कुछ बातों के लिए लंबी कविता अधिक उपयुक्त है। यह अकारण नहीं है कि रूसी कवि येगोर इसायेव को लंबी कविताओं के कवि के रूप में जाना गया। इतिहास को आप कविता में कह सकते हैं, लेकिन मुमकिन है कि उसके लिए आपको गद्य कृति या उपन्यास अधिक उपयुक्त प्रतीत हो। यात्रा-वृत्तांत, रिपोर्ताज, संस्मरण की अपनी-अपनी खूबियां हैं। दोहा कहीं पीछे छूट गया, मगर ग़ज़ल जीवित है। कवियों के गद्य की प्रशंसा बार-बार हुई है। कविता बहुत ताक़तवर चीज़ है। कविता सिर्फ़ कविता में नहीं होती, कवितेतर विधाओं में भी होती है। आप नर्मदा प्रसाद उपाध्याय के निबंध पढ़िये, सतीश जायसवाल के यात्रा-वृत्तांत पढ़िये और विकास कुमार झा के उपन्यास पढ़िये, तीनों ठौर कविता है। आप अमृतलाल बेगड़ को पढ़िये। कई फिल्में हैं, जो सेल्युलॉयड पर कविता प्रतीत होती हैं। मेरे संपादक बाबूलाल शर्मा ने अनेक बार कहा था और सुशील सिद्धार्थ एवं रघुराज सिंह जैसों ने दर्ज भी किया कि मेरी रिपोर्टिंग, राजनीतिक कथाओं और अग्रलेखों तक में पोएटिक-एलीमेंट होता है। मैंने कविता से अपनी रचना-यात्रा शुरू की। इसे 50 साल होने को आये। कविता मेरी मूल विधा है, मेरे मिज़ाज के सर्वथा अनुकूल। मैंने कवितेतर विधाएं भी अपनायीं। विभा मिश्र के आग्रह पर नाटक (गुंडाधूर) भी लिखा, जिसका मंचन भारत भवन में हुआ और गुरुवर डॉ. हीरालाल शुक्ल के आदेश पर सबाल्टर्न स्टडीज में पीएचडी की। वह शोध-प्रबंध ‘आज़ादी की लड़ाई और आदिवासी’ भारतीय ज्ञानपीठ से शीघ्र प्रकाश्य है। आप मेरे समग्र लेखन से गुजरें तो कविता को अतिक्रमण करते और अन्य विधाओं में बरबस पैठते हुए पायेंगे। यह अतिक्रमण आक्रामक नहीं है। कविता मेरी अभिव्यक्ति में रची-बसी है। पुण्य में परिमल-सी। तो मैं कैशोर्य से आज तलक कविता ही लिखता आया। कविता की मूल विधा में कालक्रम और ज़रूरत के चलते अन्य विधाएं जुड़ती गयीं। इस तरह विधाओं की एक लड़ी बन गयी। कविता न छूटी, न उसके छूटने का प्रश्न था और न ही इसका छूटना मुमकिन था। कविता मेरे अंत तक मेरे साथ रहेगी। कोई भी कविता अंतिम नहीं होती। कवि जीवन भर एक ही कविता लिखता हैं। अंत में वह अधूरी ही रह जाती है, इस उम्मीद में सांस लेती हुई कि आगे कोई कवि आयेगा और उसे आगे बढ़ायेगा।

आपने स्थानों को लेकर बहुत-सी कविताएं लिखी, स्थानों की संस्कृति और इतिहास का व्यापक चित्रण क्या पत्रकारिता की तथ्यपरकता का प्रभाव  है?

  • जी हां, मैंने व्यक्तियों और स्थानों को लेकर बहुतेरी कविताएं लिखी हैं। व्यक्ति और स्थान मेरे लिए मायने रखते हैं। वे मुझे उद्वेलित करते हैं। व्यक्ति परम्परा और प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे जमाने को रोशन करते हैं। और थकी और बुझी चीज़ों में उत्साह-स्फूर्ति का संचार भी। यदि मनुष्य के गुण-दोषों के आधार पर मेंडलीफ जैसी कोई तालिका बनायी जाए तो मनुष्यों का बहुत दिलचस्प वर्गीकरण हो सकता है। ऐसे ही स्थानों को लेकर है। आप किसी स्थान पर जाइये, तो आप पायेंगे कि उसके दरवाजे इतिहास में खुलते हैं। भग्नावशेष मौन नहीं होते। स्वरित्र की तरह उनमें कंपन होता है। आप उनका मर्मर सुन सकते हैं। ऐतिहासिक इमारतों में अतीत की छायाएं टहलती हैं। लेनिनग्राद सिर्फ़ शहर नहीं है। वह अदम्य प्रतिरोध का स्मारक है। वह फासीवाद से संघर्ष का दस्तावेज़ है। आप पीटर मारित्जबुर्ग के रेलवे स्टेश्न पर जाइये। अंधेरे झुटपुट में आप वहां कृशकाय मोहनदास को देख सकते हैं। हिरोशिमा-नागासाकी में आप हिबाकुशाओं की कराह सुन सकते हैं, तो समरकंद बुखारा में बाबर के घोड़े की टापें। मैं इतिहास का विधिवत विद्यार्थी कभी नहीं रहा, लेकिन जीवन-जगत का बोध होते ही इतिहास में मेरी रुचि जागृत हुई, ईस्ट इंडिया कंपनी का जन्म, उत्थान, वैभव और औपनिवेशिक विस्तार मुझे आज भी चमत्कृत करता है कि कैसे उसने विश्व के तीसरे विशालतम साम्राज्य की स्थापना की। बीजिंग अद्भुत शहर है। ऐसे ही इस्रायल अद्भुत राष्ट्र। इथियोपिया विपन्नता और उदासी के बावजूद सभ्यता का पालना रहा है। मिस्र तो इतिहास का गलियारा है। पिरामिड-स्फिंक्स, नील नदी। वहां तूतनखामेन मरा नहीं, सोया हुआ है। इस्तांबूल जाइये तो वहां आपको सिकंदर से लेकर नेपोलियन बोनापार्ट तक दिख सकते हैं। नेपोलियन ने कहा था कि यदि विश्व एक राष्ट्र होता, तो इस्तांबूल उसकी राजधानी होता। आप तुर्की जाइये। रेस्रां में आपको रकाबी में परोसी हुई मछली विश्व की स्वादिष्टतम आहार हो सकती है। यह सब बताने का मक़सद यह कि स्थान जड़ स्थान मात्र नहीं होते। वहां बहुत कुछ मौजूद होता है। चेहरे, प्रसंग, खिलखिलाहटें और कराह, धड़कनें, मुस्कान और विषाद, यादें और सपने, मायूसी और चमक… इन्हीं के चलते स्थान मुझे खींचते हैं, बांधते हैं, लुभाते हैं और मेरी रचनाओं में उतरते-उभरते हैं। मैं पत्रकार न भी होता, तो भी व्यक्ति और स्थान मेरी कविताओं में मौजूद होते।

तथ्य और संवेदना दोनों का सन्तुलन बड़ा कठिन होता है। आपकी कविता में यह सन्तुलन है। कविता तथ्य भी है और कविता भी, यह सन्तुलन कैसे स्थापित करते हैं?

  • जीवन और जगत में कठिन बहुतेरी चीज़ें होती हैं। लेकिन नामुमकीन कतई नहीं। ज़िंदगी अपने आप में संघर्ष है। अप्रत्याशित घटनाओं, रोमांस, रोमांच, उत्तेजना से भरी हुई। संतुलन यकबयक पैदा नहीं होता। उसे साधना पड़ता है। कविता में तथ्य होते हैं, लेकिन तथ्य ही कविता नहीं है। उसे संवेदना के साथ प्रस्तुत करना होता है। कविता जड़ विधा नहीं है।  उसमें प्राण होना, स्पंदन होना, हलचल होना ज़रूरी है। सन् 1977 में मैंने संपादित पत्रिका ‘अभिव्यक्ति’ में अपने संपादकीय में ‘आर्गेनिक कविता’ की बात की थी। सिर्फ़ तथ्यों से बनी कविता बेजान होती है। कविता ज्ञान और संवेदना का समन्वय मांगती है, युक्तिपूर्ण समन्वय, जो उसमें अर्थवत्ता और चमक पैदा करे। कविता अपनी खुराक के लिए समूचा आदमी मांगती है। अच्छी कविता के लिए आपको कविता को समर्पित होना होता है। कविता के लिए कविता से शिद्दत से जुड़ना, सूचनाओं-संदर्भों में गहरे पैठना और फिर सही सलूक के साथ उसके सलीके से पेश करना ज़रूरी है। ज़रूरी है कि तथ्य के साथ परिप्रेक्ष्य का भी ध्यान रखा जाए।

आपके समकालीन कवियों में अधिकांश इस समय नहीं लिख रहे हैं या बेहद कम लिख रहे हैं। आप लगातार लिख रहे हैं, यह ऊर्जा और रचनात्मक सक्रियता कैसे बचाए हुए हैं। ऐसा नहीं लगता कि आप का सर्वोत्तम आ चुका है?

  • आपकी बात दुर्भाग्यपूर्ण, अलबत्ता सही है। हमारे साथ के अधिकांश कवि चुक गये हैं, तो कई चूक गये हैं। बहुतेरे खुद को रिपीट कर रहे हैं। कइयों की लालटेनें बूझ गयी हैं, तो कई मशालची अब ढिंढोरची हैं। यह बात मायने रखती है कि आप क्यों लिख रहे हैं? आप सरोकारों के तहत लिख रहे हैं या अपने लिए। लेखन मैराथन की मानिंद है। अबेबेबिकिला नंगे पांव दौड़ता है और मैराथन जीत लेता है। वह तपती रेत में बरसों नंगे पांव दौड़ने के बाद ओलंपिक में ट्रैक पर उतरता है और तमाम धावकों को पीछे छोड़ देता है। चिलचिलाती धूप में तपती रेत पर दौड़ना क्या है? यह साधना है, अभ्यास है, लगन है। ज़िंदगी सख्त हो, जान अजीज और वक्Þत बेढब तो लेखन क्या है? वह मैराथन सरीखा है। आपके भीतर एक बिकिला होना चाहिए। वह तलवार की धार पर धावनो-सा है। इक आग का दरिया है और तैर के जाना है। आप डूबे भी नहीं और पार घाट लग जाएं, यह कहां मुमकिन है। हम सब मनुष्य हैं। हमारा शरीर पार्थिव है। हम सबकी ऊर्जा का क्षय होता है। हमें नयी ऊर्जा ग्रहण करनी होती है। हम अपने संघर्षों से संपर्कों-संबंधों-सरोकारों से, जद्दोजहद से, अपने नायकों और ख्वाबों से ऊर्जा ग्रहण करते हैं। हमें गति का अवगाहन करना होता है। समस्त ग्रहों में इस धरती से सुंदर कुछ नहीं है और मनुष्य से श्रेष्ठ योनि नहीं, धरती पर जन्मना मेरा सौभाग्य है। प्रेम मुझे शक्ति देता है, मित्रगण मेरी ताक़त हैं। प्रेम और मैत्री मुझे पराजित नहीं होने देती। मैं विनायक कराड़े, मंजीत सिंह, डॉ. मनोजलाल, रघुराज सिंह, बाबूलाल शर्मा, विश्वरंजन, डॉ. हीरालाल शुक्ल, रमेश अनुपम, अनिल जनविजय या नवीन केडिया के बिना अपने जीवन की कल्पना नहीं कर सकता। सरिता न होती, तो क्या मैं इस तरह जूझ पाता और रच पाता। नवीन केडिया न होते, तो ‘दुनिया इन दिनों’ का यूं निर्बाध प्रकाशन संभव था? प्रेम और मैत्री ने मुझे जीवित रखा। यायावरी, अध्ययन और लेखन ने मुझे ऊर्जा दी। मैं गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर का अनुयायी हूं, जो कहते हैं: ‘मरते चाई न एई सुन्दर पृथ्वी ते। मानुषेर माझे आमि बाच बार चाई।’ मेरा अभीष्ट लेखन है, पद, पदवी, प्रतिष्ठा या पुरस्कार नहीं। जीवन और लेखन में ठहराव से बचने से ही मैं बचा हूं। मेरे भीतर जीवन की गहरी कामना है और रचनाशीलता का उद्दाम आवेग। इसी से मैं चुका नहीं हूं और कह सकता हूं: जिऊंगा अभी और… अभी और…। मैं अभी बहुत कुछ लिखना चाहता हूं और शायद अपना सर्वोत्तम भी। अलबत्ता आप मुझे मेरी प्रेम कविताओं में, मेरी लंबी कविताओं में और औपन्यासिक कृति ‘गोविंद की गति गोविंद…’ में पा सकते हैं। मैं अपने रचे में मौजूद हूं।

आप अपने समकालीन कवियों में किसे पसंद करते हैं और क्यों?

  • इस सरल से प्रश्न का उत्तर देना कठिन है। कई बार औचक हमें नाम याद नहीं आते। कुछ नाम लो, तो कुछ नाम छूट जाते हैं और फिर अच्छे और बड़े कवि हमेशा प्रासंगिक होते हैं। मुक्तिबोध के बारे में आप क्या कहेंगे? मुक्तिबोध कल भी महत्वपूर्ण थे, आज भी हैं और कल भी होंगे। केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं में जिजीविषा और जीवट देखिये। श्रीकांत वर्मा मुझे प्रिय हैं। वे पोलीटिकल पोएट हैं। बड़े फलक के कवि। इधर मैंने नरेंद्र मोहन को पढ़ा और वे मुझे अच्छे लगे। वेणुगोपाल, नरेंद्र जैन और राजेश जोशी की ‘त्रयी’ मुझे पसंद हैं। दिलचस्प तौर पर तीनों का मिज़ाज परस्पर भिन्न है। वेणु अपनी पक्षधरता छिपाते नहीं। वह खांटी कॉमरेड हैं। राजेश जोशी समर्पित और सतर्क कवि हैं। उनके पास काव्यभाषा है और दृष्टि भी। राजेश अथक यात्री हैं। जबकि नरेंद्र बहुत संयत भाषा में बात करते हैं। वह आपाधापी और शोरोगुल से दूर हैं और अपना अलग ग्राफ रचते हैं। कृष्ण कल्पित सबसे अलहदा और दिलचस्प कवि हैं और किसी प्रचलित खांचे में नहीं अंटते। हिन्दी के अधिकांश प्रतिष्ठित कवियों (मेरे समकालीन) के बारे में यह बात समान और सच है कि उनके शुरुआती कविता-संकलन बाद के संकलनों से बेहतर हैं। अधिकांश ने या तो स्वयं को ‘रिपीट’ किया, या स्फीति के शिकार हुए। वे उस ऊंचाई तक नहीं पहुंचे, जहां तक उनके पहुंचने की उम्मीद उनकी शुरुआती कविताओं ने जगायी थीं। कवि की यात्रा क्षैतिज के साथ वर्तुल भी होनी चाहिए और उसे सचेत रहकर जोखिम उठाने चाहिए। देवी प्रसाद मिश्र ने ‘मुसलमान’ समेत अनेक अच्छी कविताएं लिखी हैं। मित्र रमेश अनुपम के साथ दुर्भाग्य है कि उन्होंने कम कविताएं लिखीं। नरेश चंद्रकर की कविताएं अच्छी हैं। नासिर अहमद में माद्दा है और वह प्रयोगधर्मी भी हैं। कवयित्रियों में संध्या नवोदिता और यशस्विनी पांडेय आश्वस्त करती हैं।  दोनों जीवन-प्रसंगों को चुनकर सलीके से कविताएं बुनती हैं। संध्या के पास राजनीतिक दृष्टि भी है। इधर मुझे जिन दो और कवियों ने आकर्षित किया है, वे हैं असंगघोष और सुभाष राय। दोनों के दूर तलक जाने की संभावना है। असंग सशक्त दलित कवि हैं और परम्परा के दंश के चलते तल्ख हैं। वैसे कविता या कलारूप को कालखण्ड की हदों में नहीं बांधना चाहिए।  समय छलनी का काम भी करता है। ऐसे ही भाषा और भूगोल की सीमाएं भी बेमानी हैं। पाब्लो नेरुदा, नाजिम हिकमत से लेकर विश्वावा शिंम्बोर्स्का और कायसिन  कुलियेव तक समय के मोहताज नहीं हैं। हिन्दी कवियों की तरह ही वे मुझे अतिशय प्रिय हैं। महान कवियों की चमक वक्Þत के साथ धुंधली नहीं, वरन और चटख होती है।  

अकादमिक आलोचना अधिकतर अकादमिक कवियों पर ही काम करती है। आप पर अकादमिक जगत ने बेहद कम काम किया है। जितना अकादमिक आलोचना ने आपको उपेक्षित किया, उतना ही आप आगे बढ़े और लोगों को कविता पसंद आती गयी, इस पर आप सहमत हैं और क्यों?

  • ‘अकादमिक आलोचना अकादमिक कवियों पर ही काम करती है।’ आपका यह कथन बहुत सटीक है। यह आलोचना के युग-सत्य का निर्भीक आकलन है। आप पिछले 50 साल में कवियों और आलोचकों के रिश्ते देखिये। गौर करें कि किस नामवर-आलोचक ने किन सलोने कवियों को पालने में झुलाया और पीठे पर बिठाया। हिन्दी साहित्य में वे सारी परम्पराएं और प्रवृत्तियां पनपीं, जो राजनीति की पहचान रही हैं। इसे आप ‘भ्रष्ट-तंत्र’ भी कह सकते हैं। आलोचकों ने अपने प्रिय कवियों को ‘हलराया-दुलराया’ और दिठौना भी लगाया। हर आलोचक की अपनी एक सूची। आप कितना भी अच्छा लिखें, आलोचक-प्रवर शिष्टाचार के नाते भी आपका नाम न लेंगे। इससे आलोचना में सड़ांध पैदा हुई, मगर जैसा कि होता है, स्थितियां बदलीं। अकादेमिक आलोचना की जकड़बंदी टूटी और नये आलोचकों ने साहसपूर्वक आलोचना का नया-विधान प्रस्तुत किया। अकादेमिक आलोचकों की फेहरिस्तों में मैं अनुपस्थित रहा आया, तो यह मेरे लिये कभी हताशा या चिंता या सिर धुनने की बात न रही। बहुत सी चीज़ों का निर्धारण इससे होता है कि आपका अभीष्ट क्या है? आलोचक ने आपको नकारा या स्वीकारा, इससे अधिक महत्वपूर्ण और श्रेयस्कर यह है कि आपने क्या लिखा, कैसा लिखा और कितनी ईमानदारी और प्रामाणिकता से लिखा। भवभूति की पंक्ति मैं कभी नहीं भूला: ‘उत्पस्यते को२पि च समानधर्मा:…’ इधर डॉ. धनंजय वर्मा, डॉ. अजय तिवारी, डॉ. ज्योतिष जोशी, डॉ. अरविंद त्रिपाठी, डॉ. बली सिंह, डॉ. भरत प्रसाद, डॉ. रमेश अनुपम, शाकिर अली और उमाशंकर परमार आदि ने मेरी रचनाओं पर लिखा। दिनेश कुमार माली ने ओड़िया के शीर्षस्थ कवि सीताकांत महापात्र और मेरी रचनाओं का तुलनात्मक अध्ययन किया। क्रम जारी है। भगवान के घर की मैं नहीं जानता, मगर दुनिया में कहीं भी और किसी भी क्षेत्र में ‘अंधेर’ ज्यादा नहीं टिकता।

आपने जीवन के तमाम संघर्ष झेले, आर्थिक संकट से जूझे। उस दौर की कविताओं में कोई कविता आप मुझे सुना सकते हैं?

  • प्रद्युम्न जी, जीवन है तो संघर्ष हैं। जीवन में स्वयं में संघर्ष है। अहर्निश संघर्ष। मैंने अपना रास्ता स्वयं चुना और मुझे उसका कोई मलाल नहीं। मैं अगर अपनी बायोग्राफी लिखूंगा, तो उसका शीर्षक होगा: नो रिग्रेट्स। मैंने अनेक डिग्रियां अर्जित कीं। मैं वित्तीय बैंक समेत किसी शासकीय उपक्रम या कॉर्पोरेट में जा सकता था, लेकिन मैंने ऐसा कभी नहीं चाहा। खोट और खुरंटग्रस्त व्यवस्था का ‘पुर्जा’ बनना मुझे स्वीकार्य नहीं हुआ। सव्यसाची के शब्दों में कहूं तो मैंने कठिन रास्ता चुना। मैंने समझौते नहीं किये। मनचाहा जीवन जिया और खूब जिया। बहुत परेशानियां आयीं। मुझे आर्थिक संकट से कभी निजात नहीं मिली। मुझे ग़ालिब का शेर याद आता है: थी ख़बर गर्म कि ग़ालिब के उड़ेंगे पुर्जे। देखने हम भी गये पै तमाशा न हुआ। मुझे दुश्वारियों का भान था, मगर इस कदर दुश्वारियों-चुनौतियों और इस कदर ऐश्वर्य, जलवे-जलाल का आभास न था। मैं गिरता रहा, उठता रहा, चलता रहा, कभी धराशायी न हुआ। मुझे एक श्लोक हमेशा याद रहा:
    निदंन्ति नीतिनिपुणा: यदि वा स्तवन्तु
    लक्ष्मी समाविशति गच्छति वा यथेष्टम्
    अद्यैव वा मरणमस्तु युगांतरे वा
    न्याय्यात् पथ: प्रविचलंति पदं न धीरा:
    मैं अपनी कविताओं में अपनी विपदाओं का रोना रोने से बचता रहा हूं, फिर भी जीवनानुभवों के अक्Þस अनेक कविताओं में हैं। मित्रों के लिए लिखी कविताओं में आप उनकी झलक पा सकते हैं। मैं मानता हूं कि धोखा देने से अच्छा है, धोखा खाना। मैं अपनों के विश्वासघात का फिर-फिर शिकार हुआ। एक छोटी-सी कविता है, ‘किरच-किरच यक़ीन’ में संकलित:

उत्तराधिकार
कृतज्ञता की परम्परा होती है
और कृतघ्नता की भी
क्या इसीलिए
हम जिसके सिर रखते हैं अपनी पगड़ी
वही काटता है
हमारा सिर निर्विकार।
प्रद्युम्न जी, जद्दोहद न हो तो जीवन क्या! मीर का शे’र मेरे ज़ेहन में कौंधता रहा: ‘शिकवा-ए-आबला अभी से मीर। है प्यारे, हनोज दिल्ली दूर।’ मीर का ही एक और शे’र है: ‘जिन बलाओं को मीर सुनते थे। उनको इस रोज़गार में देखा। मैंने शाह के मुसाहिबों को शहर में इतराते -फिरते देखा।’ कविता से मेरा मेरुदण्ड हमेशा तना रहा। आप मुझे धरती से नमन-कोण को बनाते कभी नहीं पायेंगे।

आपने लेखन को अपनी आजीविका बनाया, इतना बड़ा जोखिम उठाकर भी आप कभी परेशान नहीं हुए?

  • मौत के पहले आदमी ग़म से निजात पाये क्यूं? परेशानियां रहीं, अभी भी हैं, किन्तु मैं रुका नहीं। एक हद तक मैं दुस्साहसी रहा। आगापीछा सोचे बगैर फैसले करता रहा। मैंने पाया कम, गंवाया ज्Þयादा। एक किस्म का जुनूं मुझ पर तारी रहा। मैंने जीवन के तमाम शेड्स देखे। शम्म हर रंग में जलती है सद्र होने तक। मित्रों और कविता ने मुझे बचाया। मैं पुलक से भरा रहा। मैंने जो राह चुनी, उसी पर चला। विचलन का कभी ख़याल न आया। आर्थिक विपन्नता की क्षतिपूर्ति संबंधों और भावनात्मक तथा वैचारिक संपन्नता ने बखूबी की। मैंने शान की ज़िंंदगी जी। दंभ नहीं, दर्प की ज़िंदगी। अलग-अलग आस्वाद। अलग-अलग रंग। मैं आधी दुनिया घूमा। ग्लोब के दोनों छोर। मैं मानता हूं कि आप जोखिम उठाकर ही पुरलुत्फ ज़िंदगी बिता सकते हैं। कोई भी दु:ख मनुष्य के साहस से बड़ा नहीं है। हारा है वही, जो लड़ा नहीं है। मैं परेशां हुआ, लेकिन इतना परेशां कभी न हुआ कि कहूं कि मैं परेशां हूं, मुझे और परेशां न करो।

समकालीन आलोचना पर आपका अभिमत क्या है? आलोचना का अकादमिक जगत से अलग होने का आप क्या भविष्य देख रहे हैं?

  • आलोचना के इलाके में इधर कई चेहरे उभर कर आये हैं। यह पीढ़ी पिछली पीढ़ी से भिन्न है। इसके आलोचना के ‘टूल्स’ भी भिन्न हैं। यह पहाड़-पहाड़, मैदान-मैदान का खेल नहीं खेलती। आलोचकों की यह पीढ़ी निर्भीक और साफगो है। आलोचना का अकादेमिक जगत से अलग होना सुखद है और संभावनाएं जगाता है। इससे रुढ़ियां और एकरसता टूटेगी। नये मानक और मूल्य विकसित होंगे। ओम भारती का मन कविता में अधिक रमा, अन्यथा आज वह अग्रणी आलोचक होते। उदीयमान आलोचकों में उमाशंकर परमार सर्वाधिक साहसिक, निपुण और दृष्टिसंपन्न आलोचक हैं। वृहत्तर हिन्दी संसार के लिए वह संभावना हैं, तो बहुतों के लिए ‘किरकिरी’ भी। फेसबुक ने नया रास्ता खोला है, लेकिन फेसबुकिया साहित्य ज्Þयादातर घटिया, घासलेटी और भड़ास है। फिर भी कविता में इधर नयी चीज़ें प्रविष्ट हो रही हैं। यूं भी कविता के लिए कुछ भी वर्जित नहीं है। नवोन्मेष और प्रयोगधर्मिता कविता की सेहत के लिए ज़रूरी है। कविगण भूलें नहीं कि कविता पाठक के पास जाकर ही पूरी होती है।

युवा कवियों के लिए आप कुछ सन्देश देना चाहेंगे?

  • आज बुरी कविताएं लिखी जा रही हैं, तो अच्छी भी। दो टूक कहूं तो बुरी ज्Þयादा और अच्छी कम। लेकिन यह हमेशा होता आया है। युवा कवि आश्वस्त करते हैं। उनमें विविधता है और वर्जनाओं से चिढ़। युवा कवियों के लिए ज़रूरी है कि वे खूब पढ़ें। परम्परा को तोड़ने या उसमें नया जोड़ने के लिए परम्परा को गहरे जानना ज़रूरी है। मैं मानता हूं कि कविता को अर्थगर्भी होना चाहिए। उसमें ‘मैसेज़’ होना चाहिए और उसे सच्चाई, स्वतंत्रता और जन के साथ खड़ा होना चाहिए। कविता हमारी ज़रूरत है। नेमत है। कविता हमेशा बची रहेगी, क्योंकि वह स्मृति है, स्वप्न है, प्रार्थना है और यक़ीन है। कोई भी युग, कोई भी समय, कोई भी शती कविता से न्यून या रिक्त नहीं होगी।

( डॉ. सुधीर सक्सेना देश की बहुचर्चित मासिक पत्रिका ” दुनिया इन दिनों” के सम्पादक, देश के विख्यात पत्रकार और हिन्दी के लोकप्रिय कवि- साहित्यकार हैं। )

@ डॉ. सुधीर सक्सेना, सम्पर्क- 09711123909

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