नन्दकुमार साय- पीतल की प्रतिमा से उतर गई सोने की पालिश
गेंदलाल शुक्ल
पूर्व सांसद और विधायक नंदकुमार साय ने भारतीय जनता पार्टी से इस्तीफा देकर कांग्रेस का दामन थाम लिया है। यह सब कुछ इतना अप्रत्याशित था कि भारतीय जनता पार्टी के नेता स्तब्ध रह गए। गत 30 अप्रैल की देर शाम नंदकुमार साय ने भाजपा की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा दिया और लापता हो गए। भाजपा के नेता उन्हें ढूंढते रहे लेकिन उनका कोई अता पता नहीं मिला। दूसरे दिन एकाएक वह कांग्रेस के छत्तीसगढ़ प्रदेश कार्यालय में प्रगट हुए और कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष मोहन मरकाम तथा मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की मौजूदगी में कांग्रेस में शामिल हो गए।
नंदकुमार साय ने कांग्रेस में शामिल होने के बाद आरोप लगाया कि भारतीय जनता पार्टी में उनकी उपेक्षा हो रही थी। उनका कहना था कि वे अभी भी काम करना चाहते थे लेकिन उन्हें कोई काम नहीं दिया जा रहा था। रायपुर से लेकर दिल्ली तक गुहार लगाने पर भी उनकी सुनवाई नहीं की गई।
नन्दकुमार साय की पृष्ठभूमि पर नजर डालें तो पता चलता है कि नंदकुमार साय का जन्म मौजूदा जशपुर जिले के भगोरा में एक सामान्य किसान परिवार में 1 जनवरी 1946 को हुआ था। नंदकुमार का झुकाव हमेशा से साहित्य की तरफ रहा। हिंदी लेखन, पठन में उनकी विशेष रूचि रही हैं। नंदकुमार साय उन नेताओं में शामिल हैं जिन्होंने मुख्य धारा की सियासत से पहले छात्र राजनीति की और इसी के जरिये वह आदिवासियों के बड़े नेता भी बने। बताया जाता हैं कि कॉलेज के दिनों में नंदकुमार साय छात्रसंघ के अध्यक्ष भी रहे हैं। इसके बाद उन्होंने सरकारी नौकरी की तैयारी की और 1973 में नायब तहसीलदार के पद पर चयनित भी हुए लेकिन नौकरी पर नहीं गए। इसकी जगह उन्होंने राजनीति के जरिए समाज सेवा का रास्ता चुना। तत्कालीन प्रमुख विपक्षी दल जनसंघ को टिकट पर जनता पार्टी से 1977 में पहली बार विधानसभा चुनाव जीते। 1985 दूसरी बार और तीसरी बार 1998 में विधानसभा चुनाव जीते।
नंदकुमार साय 1989 में लोकसभा सांसद बने और 1996 में दूसरी बार और 2004 में राज्य गठन के बाद तीसरी बार लोकसभा सांसद बने। इसके बाद नंदकुमार साय का सियासी सफर आगे बढ़ा और 2009 में राज्यसभा के सांसद के लिए चुने गए। इसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में नंदकुमार साय को 2017 में राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया। इन सबके अलावा नंदकुमार अविभाजित मध्यप्रदेश में भी भाजपा के कई बड़े पदों पर रहे। 1996 में मध्यप्रदेश अनुसूचित जनजाति के प्रदेश अध्यक्ष बने। इसके बाद पार्टी ने 1997 से 2000 के बीच मध्यप्रदेश बीजेपी का प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी भी उन्हें सौंपी। फिर सन 2000 में जब छत्तीसगढ़ मध्यप्रदेश से अलग हुआ तो नंदकुमार साय राज्य के विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता भी बने।
भारतीय जनता पार्टी ने नंदकुमार साय को 45 वर्षों तक बड़े-बड़े ओहदों से नवाजा, लेकिन महज 5 साल बड़े पद पर नहीं बैठाये जाने से वह खुद को उपेक्षित महसूस करने लगे और अंततः पार्टी से अलग हो गए। नंदकुमार साय का भाजपा छोड़ देना तो समझ में आता है, लेकिन कांग्रेस में शामिल होने के पीछे उनके पास कोई ठोस कारण नहीं है। सिवाय इसके कि वे अभी भी सत्ता में भागीदारी यानी शासन के खजाने से सुख सुविधा भरी जिंदगी जीने की आकांक्षा रखते हैं। अगर उनमें पद लोलुपता नहीं होती और वे समाज के लिए काम ही करना चाहते थे तो वह भाजपा छोड़कर निजी स्तर पर समाज सेवा का काम हाथ में ले सकते थे और समाज के लिए काम करने की अपनी इच्छा पूरी कर सकते थे। उन्हें सांसद और विधायक पद पा पेंशन भी प्रतिमाह मिलता है, पैसों की कोई कमी नहीं है। परंतु उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया बल्कि छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव के ठीक पहले कांग्रेस का दामन थाम लिया। अब तो उन्होंने कांग्रेस की टिकट पर विधानसभा चुनाव लड़ने की आकांक्षा भी जाहिर कर दी है जो बताता है कि असल में वे सत्ता सुख के लिए भाजपा छोड़कर गए हैं और अपनी आकांक्षा की पूर्ति के लिए कांग्रेस में शामिल हो गए हैं।
यहां पर भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी को याद करना समीचीन होगा जिन्होंने 2014 में खुद को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित नहीं करने पर नाराजगी जाहिर की थी। उस समय ऐसा लग रहा था कि लाल कृष्ण आडवाणी भारतीय जनता पार्टी को विभाजित कर देंगे। मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ। उन्होंने ना तो भारतीय जनता पार्टी को अलविदा कहा और ना ही किसी अन्य राजनीतिक पार्टी में शामिल हुए। पिछले 10 वर्षों से लालकृष्ण आडवाणी को पार्टी ने सत्ता में कोई भागीदारी नहीं दी है बावजूद इसके वे पार्टी में बने हुए हैं और पार्टी में उनका भरपूर मान सम्मान भी बना हुआ है। इधर नंदकुमार साय महज 3 साल में दल बदल कर गए। नंदकुमार साय वही व्यक्ति हैं जो पिछले 45 वर्षों तक बड़े-बड़े पदों पर बैठकर भारतीय जनता पार्टी के छोटे छोटे कार्यकर्ताओं को त्याग तपस्या और बलिदान का पाठ पढ़ाते रहे हैं। अब ऐसे कार्यकर्ता उनसे पूछ सकते हैं कि नंदकुमार जी, जो उपदेश आप जिंदगी भर हमको देते रहे हैं वह आप पर लागू क्यों नहीं हुआ? आपके त्याग तपस्या और बलिदान का समय आया तो आप मैदान छोड़कर क्यों भाग खड़े हुए? भाजपा के लाखों कार्यकर्ता नंदकुमार साय से यह भी पूछ सकते हैं कि अपनी जिंदगी के आधे से अधिक समय तक पार्टी की कृपा से और पार्टी के समर्थकों की कृपा से सत्ता सुख भोगने वाले नंदकुमार साय जी पार्टी में तो ऐसे भी लाखों कार्यकर्ता हैं जिन्हें पूरी जिंदगी खपाने के बाद भी कभी पंच और पार्षद बनने का मौका भी नहीं मिला, बावजूद इसके वे समर्पित भाव से पार्टी और विचारधारा के लिए आज भी काम कर रहे हैं। अगर आपको आदर्श माना जाए तब तो केवल भारतीय जनता पार्टी क्यों, कांग्रेस और दूसरे राजनीतिक दलों के लाखों कार्यकर्ताओं को भी अपनी अपनी पार्टी का त्याग कर देना चाहिए। इतना ही क्यों, ऐसे लाखों कार्यकर्ताओं को पार्टी भी बदल देना चाहिए और दूसरी पार्टियों में जाकर उनसे टिकट मांग कर अपनी अपनी आकांक्षा के अनुरूप सत्ता में भागीदारी हासिल कर लेना चाहिए।
भाजपा सहित विभिन्न राजनीतिक दलों में विचारधारा के प्रति समर्पित रह कर काम कर रहे लाखों कार्यकर्ताओं को देखते हुए कहा जा सकता है कि एक पीतल की प्रतिमा थी जिस पर सोने की पालिश चढ़ी हुई थी जो समय के साथ उतर गई और पीतल की असलियत सामने आ गई। यह कहानी केवल नंद कुमार साय की नहीं है बल्कि ऐसे और भी बहुत से लोग हैं जो सत्ता की भूख में अपनी मातृ संस्थाओं से विमुख होकर अन्य संगठनों में शामिल होते रहे हैं और आज भी हो रहे हैं।