फ्लोरेंस नाइटिंगेल : ‘लेडी विद द लैंप’
फ्लोरेंस नाइटिंगेल : ‘लेडी विद द लैंप’
डॉ. सुधीर सक्सेना
वह कुलीन-सामंत परिवार में जनमी थीं। ऐशो-आराम, ऐश्वर्य और वैभव की कमी न थीं। वह मेधावी थीं और परिश्रमी भी। सांख्यिकी, गणित और विषय-प्रस्तुति में उनकी अच्छी गति थी। उन्हें योरोप की कई जुबानें आती थीं और लेखन में उनकी रूचि थी और दखल भी, लेकिन उन्होंने अपने लिए बिल्कुल अलहदा रास्ता चुना। इस पुरखार रास्ते पर चलकर उन्होंने विश्व के सम्मुख नई और अनूठी मिसाल कायम की। उन्हें विश्व में नर्सिंग आंदोलन के प्रवर्तन और उसे संस्थागत रूप देने का श्रेय मिला। सेवा और समर्पण से उसने अपनी एक ऐसी छवि सिरजी, जो समय के साथ धुंधली पड़ने के बजाय और जमकीली और उजली हुई जाती है।
यह महिला थी फ्लोरेंस नाइटिंगेल, जिसे दुनिया ने ‘लेडी विद द लैंप’ के तौर पर जाना। उसने रोगियों की सेवा-सुश्रुषा के परिचायक आंदोलन का सूत्रपात किया और नर्सिंग का व्याकरण रचा। सेवा की भावना और दृष्टि की उदात्तता से उसने निष्ठापूर्वक नर्सिंग आंदोलन को संपूर्ण विश्व में जरूरी ऐसी मानवीय संस्था में तब्दील कर दिया कि आज हम उसके बिना हेल्थ केयर की दुनिया की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। दवाखानों, क्लीनिकों, अस्पतालों में नर्सें पहली जरूरत हैं और वे ही उन्हें गति और मानवीय चेहरा प्रदान करती हैं।
यह अकारण नहीं है कि आज दुनियाभर में प्रशिक्षित नर्सें उसके नाम पर कर्तव्य-निर्वाह की शपथ लेती हैं। उसके नाम पर 110 वर्ष पूर्व रेडक्रास द्वारा स्थापित फ्लोरेंस नाइटिंगेल पदक नर्सिंग संकाय में सर्वोत्कृष्ट सम्मान है और प्रत्येक दूसरे वर्ष में दिया जाता है। 12 मई को उसके जन्मदिन को अंतरराष्ट्रीय नर्सेज दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस दिन भारत के राष्ट्रपति द्वारा विशिष्ट सेवाओं के लिए किसी परिचारिका को नेशनल फ्लोरेंस नाइटिंगेल अवार्ड प्रदान किया जाता है। इसकी स्थापना सन् 1973 में की गई थी। फ्लोरेंस ने सन् 1860 में लंदन में विश्व के पहले नर्सिंग संस्थान-नाइटिंगेल स्कूल फॉर नर्सेज – की स्थापना की थी। यह संस्थान अब फ्लोरेंस नाइटिंगेल फैकल्टी आॅफ नर्सिंग एण्ड मिडवाइफरी के नाम से जाना जाता है और किंग्स कॉलेज, लंदन में समाहित है।
फ्लोरेंस का जन्म 12 मई, सन् 1820 को इटली में टस्कनी में फ्लोरेंस में हुआ था। अलबत्ता उसकी जड़ें इग्लैंड में थीं और उसने अपने देश की गौरव-गरिमा बढ़ाने के लिए अपना जीवन होम कर दिया। न सिर्फ उसका नामकरण जन्मस्थान पर किया गया, बल्कि उसकी बड़ी बहन फ्रांसेज का नाम भी जन्मस्थान पार्थनोप के नाम पर रखा गया। यह ग्रीक बस्ती अब नेपल्स का हिस्सा है। बहरहाल, सन् 1821 में जब फ्लोरेंस दुधमुंही बच्ची थी, परिवार उसे लेकर एम्ब्ले, हैंपशायर और ली हर्स्ट, डर्बीशायर में आ गया।
फ्लोरेंस को अपने ददिहाल और ननिहाल से उदार और मानवीय संस्कार मिले। वह विलियम एडवर्ड शोर ( 1794-1874) और फ्रांसेज (फैनी) नाइंटिंगेल की संतान थी। फ्लोरेंस की दादी मैरी पीटर नाइटिंगेल की भतीजी थी। पीटर की वसीयत से विलियम को ली हर्स्ट की जागीर मिली और उन्होंने नाइटिंगेल नाम ग्रहण किया। फ्लोरेंस के नाना थोर उन्मूलनवादी थे। उस जमाने में लड़कियों की शिक्षा का प्रचलन न था। लेकिन पिता के महिला शिक्षा के प्रबल हिमायती होने से दोनों बेटियों को उत्कृष्ट और उच्च शिक्षा का अवसर मिला। सन् 1838 में पिता दोनों बेटियों को योरोप के भ्रमण पर ले गये। भ्रमण के दरम्यान फ्लोरेंस की भेंट पेरिस में अंग्रेज महिला मैरी क्लर्क से हुई। फ्लोरेंस और मैरी आजीवन आत्मीय रिश्तों की डोर में बंधे रहे। उम्र में 27 साल के अंतर के बावजूद दोनों में अपनापा बना रहा। मैरी भिन्न मिजाज व खयालों की उन्मुक्त स्त्री थी। वह महिलाओं के बजाय मर्दों की संगत पसंद करती थी और उसका जीवन मर्दों से बराबरी की मिसाल था। मैरी से फ्लोरेंस ने जीवन के कई कीमती पाठ सीखे। मैरी ने फ्लोरेंस के वैचारिक व्यक्तित्व को गढ़ने में अहम भूमिका निभाई और उसके स्वतंत्र और विलक्षण व्यक्तित्व के विकास में सहायिका बनी। बहरहाल, पिता की पहल और प्रोत्साहन से फ्लोरेंस ने इतिहास, गणित, इतालवी, क्लासिकी साहित्य और दर्शन की पढ़ाई की। वह पढ़ने में बहुत तेज थी और आंकड़े जुटाने और उनके विश्लेषण में लासानी। उसकी यह खूबी बाद में बड़ी काम आई। अपनी बात आंकड़ों के साथ कहने की उसकी विशेषज्ञता ने लोगों को प्रभावित किया।
फ्लोरेंस अपने कैशोर्य में ‘ईश्वर की पुकार’ के दौरों से गुजरी। ऐसा ही वाकया फरवरी, 1837 में एम्बले पार्क में हुआ। उसने परिवार के सम्मुख अपना जीवन दूसरों की सेवा में समर्पित करने की बात कही। उसे पत्नी और मां बनना स्वीकार्य न था। परिवार ने प्रारंभ में उसकी बातों को फीतूर समझा और फ्लोरेंस भी नसीहतों को चुपचाप सुनती रही। वह स्वयं को परिचर्या की कला और विज्ञान में मांजती रही। मां और बहन ने लाख जतन किया। किन्तु अंतत: सन् 1844 में उसने परिवार को अपना फैसला सुना दिया कि उसका जीवन नर्सिंग को समर्पित है और वह नर्स बनेगी। परिवार ही नहीं, यह तत्कालीन कुलीन समाज की मर्यादा और आचार-संहिता का उल्लंघन था। जीवन में घटनाएं घटीं, बाधाएं आईं, लेकिन कोई भी उसे उसके व्रत से विलग नहीं कर सका।
फ्लोरेंस सुंदर और आकर्षक युवती थी, तन्वंगी, कमनीय और गर्वीली। उसके अधरों की स्मित मोहक थी। राजनीतिज्ञ और कवि रिचर्ड मांकटन मिल्नेस उसका चहीता मित्र था। नौ वर्ष की ‘कोर्टशिप’ के उपरांत फ्लोरेंस इस नतीजे पर पहुंची कि विवाह से उसके नियत मिशन में अवरोध उत्पन्न होगा। परिणति विच्छेद में हुई। फ्लोरेंस आजन्म एकाकी और कुमारी रही। नर्सिंग को समर्पित। नर्सिंग की पर्याय। कह सकते हैं कि उसका जन्म ही इस मानवीय प्रयोजन के निमित्त हुआ था।
कड़ी से कड़ी जुड़ रही थी। क्रीमिया की जंग की आपदा उसके लिए अवसर बनी, लेकिन इसकी पूर्वपीठिका तैयार की जंग से एक दशक से भी पहले के प्रसंग ने। सन् 1847 में रोम में फ्लोरेंस की भेंट ब्रिटिश राजनेता सिडनी हर्बर्ट से हुई, जो वहां हनीमून के लिए आये हुए थे। हर्बर्ट और फ्लोरेंस आजीवन अंतरंग मित्र बने रहे। सन् 1845-46 में सेक्रेट्री आॅफ वॉर रह चुके हर्बर्ट क्रीमिया के युद्ध (अक्टूबर 1853-फरवरी 1856) में पुन: सेक्रेट्री आॅफ वॉर बने। हर्बर्ट दंपत्ति ने क्रीमिया की जंग के दरम्यान फ्लोरेंस की बहुप्रचारित नर्सिंग-सेवा में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। फ्लोरेंस हर्बर्ट की राजनीतिक पारी में उनकी मुख्य सलाहकार रही। हर्बर्ट की मृत्यु सन् 1861 में हुई। कहा तो यह भी जाता है कि उसकी मृत्यु फ्लोरेंस के प्रोग्रामों से उपजे अत्यधिक मानसिक तनाव में गुर्दे की बीमारी (ब्राइट्स) से हुई। बहरहाल, क्रीमिया की जंग ने फ्लोरेंस को मानवता की देवी में बदल दिया। अब वह विक्टोरियन कल्चर की प्रतीक थी। लेडी विद द लैंप। वह देर रात गये आहत सैनिकों के शिविरों में हाथ में लैंप लेकर राउंड लेती थी। युद्ध में घावों और रोगों से मृत फौजियों की संख्या गोलियों से मरे सैनिकों से कहीं ज्यादा थीं। फ्लोरेंस वैश्विक प्रेरणा बनकर उभरी। बाद के बरसों में उसके बेंजामिन जोवेट से गहरे रिश्ते रहे। कहा तो यहां तक जाता है कि जोवेट उससे विवाह के इच्छुक थे, किन्तु फ्लोरेंस ने उनकी ख्वाहिश को तरजीह न दी और अपने मिशन में रत रही।
फ्लोरेंस ने लंबी यात्राएं कीं। वह यूनान और सुदूर मिस्र गयी और नील नदी में दूर तक नौकायन किया। उसने एक नन्हा उल्लू, जिसने उसने शरारती बच्चों से बचाया था को पाला। उसे वह जेब में रखकर घूमती थी। फ्लोरेंस के क्रीमिया जाने से पेश्तर वह चल बसा। अपने मिस्र प्रवास पर उसने संस्मरण भी लिखे, जिसमें काहिरा के समीप ‘प्रभु के बुलावे’ का जिक्र किया। सन् 1850 में उसे जर्मनी में कैसरवर्थम-राइन स्थित लूथर संप्रदाय के डेरे पर जाने का मौका मिला। वहां मठ में उसने पास्टर ठियोडोर फ्लीडनर और अनुयाइयों को रोगियों और वंचितों की अथक सेवा करते देखा। लूथेरियन संप्रदाय के इस सेवा कार्य का उसके मन पर गहरा प्रभाव पड़ा। सेवा के प्रति समर्पण के प्रत्यक्ष अनुभव ने उसके जीवन की दिशा तय कर दी। उसने चार माह का प्रशिक्षण लिया, ताकि नर्स की भूमिका निभा सके। 22 अगस्त, सन् 1853 को अपर हार्ले स्ट्रीट, लंदन स्थित इंस्टीट्यूट फॉर द सिक जेंटल वूमेन में अधीक्षक का पदभार ग्रहण किया और करीब एक साल दायित्व का निर्वाह किया। उसके पिता ने उसके लिए 500 पौंड सालाना की आय का बंदोबस्त कर दिया। अत: उसे सुचारू जीवनयापन में कोई दिक्कत न हुई।
गौर करें तो समय उसे महान, नवाचारी और युगांतकारी भूमिका के लिए तैयार कर रहा था। क्रीमिया की लड़ाई मौका बनकर उभरी। आॅटोमन साम्राज्य में कुस्तुंतुनिया (इस्तांबुल) के समीप बास्पोरस के स्फुतारी फौजी अस्पताल से हृदयविदारक खबरें इंग्लैंड पहुंची। फलत: 21 अक्टूबर, 1854 को फ्लोरेंस और 38 महिला वालंदियर नर्सों का जत्था क्रीमिया के लिए रवाना हुआ। उनके साथ 15 कैथोलिक ननें भी थीं। नवंबर, 1854 को फ्लोरेंस ने स्फुतारी पहुंचकर पाया कि रोगियों की दशा दयनीय है। न तो पर्याप्त दवाएं हैं, न साफ-सफाई, न खाना पकाने का इंतजाम। इंफेक्शन का तो पूछना क्या। फ्लोरेंस ने ‘द टाइम्स’ के जरिए फरियाद भेजी तो ब्रिटिश सरकार ने जलपोत से प्रीफैब्रीकेट अस्पताल दरी दानियाल भेजा। रेनकियोई अस्पताल अस्तित्व में आया। मृत्यु दर को स्कुतारी के मुकाबले 10 फीसद को लाना बड़ी कामयाबी थी। युद्ध-चिकित्सालय में हाइजीन के सिद्धांत लागू कर फ्लोरेंस ने मृत्यु दर को 42 फीसद से 2 फीसद पर लाकर चमत्कार कर दिखाया। उसे हैंदवॉश जैसी परंपरा शुरू करने का भी श्रेय जाता है। उसके प्रयासों से ब्रिटिश सरकार ने मार्च 1855 में सैनिटरी आयोग भेजा। इसका असर पड़ा। अथक परिश्रम का नतीजा कि फ्लोरेंस स्वयं बीमार पड़ गयी। तब हेड नर्स एलिजा रॉबर्ट्स ने उसकी देखभाल की। नवंबर, 1855 में नाइटिंगेल फंड की स्थापना हुई तो 45000 पौंड एकत्र हो गये। नर्सिंग स्कूल की स्थापना हुई। वहां से 16 मई 1865 को नाइटिंगेल से ट्रेनिंग-प्राप्त पहली नर्स निकली।
नाइटिंगेल की लिखी ‘नोट्स आॅन नर्सिंग’ (1859) नर्सिंग के पाठ्यक्रम की पहली और जरूरी किताब हैं। उसने ब्रिटिश भारत में हंगर-रिलीफ पर भी काम किया। उसकी बदौलत चिकित्सा की दुनिया में प्रशिक्षित नर्सों का प्रवेश संभव हुआ। उसके कार्यों से अमेरिका में गृहयुद्ध के दरम्यान नर्सों को प्रेरणा मिली। अमेरिका की पहली प्रशिक्षित नर्स लिंडा रिचर्डस उसी की देन थी। सन् 1893 में उसे प्रथम रॉयल रेडक्रास मिला। सन् 1904 में उसे लेडी आॅफ ग्रेस आॅफ द आॅर्डर आॅफ सेंट जॉन से नवाजा गया। सन् 1907 में वह आॅर्डर आॅफ मेरिट से विभूषित पहली महिला रही। अगले ही साल उसे लंदन शहर का आॅनेररी फ्रीडम सम्मान मिला। सन् 1857 के बाद उसे कई व्याधियों ने घेर लिया। अवसाद, स्पोंडिलाइसिस, अंधत्व, ब्रुसेल्लोसिस उसे घेरे रहे। 13 अगस्त, 1910 को नब्बे वर्ष की वय में 10, साउथ स्ट्रीट, मेफेयर, लंदन में अपने घर में निद्रावस्था में वह चिरनिद्रा में लीन हो गयी। वेस्ट मिनिस्टर एबे में दफ्नाने का सुझाव परिजनों के ठुकराने के बाद उसे ईस्ट वेलो, हैंपशायर में सेंट मार्गारेट चर्च के प्रांगण में दफ्नाया गया। उसकी समाधि पर उसका नाम, जन्म और मृत्यु तिथि अंकित है। वह अपने पीछे लिखित कागजों का जखीरा और लोकसेवा का परिमल छोड़ गयी।
क्या आप बिना नर्सों के चिकित्सा जगत की कल्पना कर सकते हैं? शायद नहीं, इसके लिए विश्व मानवता फ्लोरेंस नाइटिंगेल की सदा ऋणी रहेगी।
( डॉ. सुधीर सक्सेना देश की बहुचर्चित मासिक पत्रिका ” दुनिया इन दिनों” के सम्पादक, विख्यात पत्रकार और हिन्दी के लोकप्रिय कवि, लेखक- साहित्यकार हैं। )
@ डॉ. सुधीर सक्सेना, सम्पर्क- 09711123909