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लीला सेठ : यशस्वी विधिवेत्ता, यशस्वी लेखिका
डॉ. सुधीर सक्सेना
यह आज से बरसों पहले की, सन् 2005 की बात है। सर्द फरवरी की 25 तारीख। पुरस्कृत कृति ‘मैक्लुस्कीगंज’ के रचयिता पत्रकार-लेखक विकास कुमार झा संयोगात लखनऊ में थे। वहीं उनकी मुलाकात श्रीमती लीला सेठ से हुई थी। श्रीमती सेठ अपनी आत्मचरित्रात्मक-कृति ‘आॅन बैलेंस’ के लिए लखनऊ आई थीं। जीवन के पचहत्तर वसंत वह देख चुकी थीं। उनकी कीर्ति कौमुदी देश-विदेश में फैली हुई थी। उनके लखनऊ आने की वजह थी कि लखनऊ उनकी जन्मनगरी थी। गोमती का पानी उनकी शिराओं में प्रवाहित था और लखनऊ की यादें उनकी जेहन में बसी थीं। विकास पटना से वास्ता रखते हैं। लीला सेठ ने किताब में पटना में बिताए दिनों को बड़ी शिद्दत से याद किया था। पटना से उनका गहरा नाता था। उनके बेटे की शिक्षा-दीक्षा भी पटना में हुई थी।
विकास लीला सेठ जैसी धनी-मानी शख्सियत से मुलाकात को आज तक नहीं भूले। वह एक यादगार मुलाकात थी। ख्याति और वय के मान से एक युवा लेखक की अपने से कहीं बड़े रचनाकार से भेंट की और पहले पन्ने पर सुवाच्य अक्षरों में अपनी हस्तलिपि में लिखा : ‘टु विकास झा, ए फेलो-फ्रेंड फ्रॉम पटना, बेस्ट विशेज टु यू।’ यह किताब पटना में श्रीकृष्णपुरी स्थित उनके आवास पर बुकशेल्फ में आज भी बड़े करीने से रखी हुई है। आवरण पर लेखिका का दमकता हुआ चेहरा। बीच में छवि। ऊपर रोमन में आॅन बैलेंस। ऐन आटोबायोग्राफी। नीचे लीला सेठ। विकास को याद है। लीला ने कहा था-‘‘पटना का आकाश बहुत साफ था। वहां जाकर फिर से रहने का मन करता है।’’
कौन थी यह लीला सेठ? आज की पीढ़ी उन्हें शायद नहीं जानती। और गर जानती भी है तो ज्यादा नहीं। चीजें और चेहरे लगातार विस्मृति की गर्त में सरकते जा रहे हैं। लीला सेठ भी इसी लंबी अछोर कतार में हैं। आज किसे ज्ञात है कि इस शख्सियत को इतिहास रचने का श्रेय प्राप्त है और उनके लेखन की विरासत को उनके बेटे विक्रम सेठ ने बखूबी आगे बढ़ाया और उसे ऊंचाइयां दीं। वह देश में किसी उच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश बनने का गौरव अर्जित करने वाली पहली महिला थीं। यही नहीं, दिल्ली उच्च न्यायालय की वह पहली न्यायाधीश थीं। रूपहले कीर्तिमानों की ही बात करें तो वह भारत की पहली बेटी थीं, जिन्होंने लंदन बार के इम्तेहान में रिकार्ड अंकों से उत्तीर्णता हासिल की। अपने लंबे विधिक-जीवन में भी उन्होंने कई उल्लेखनीय काम किये।
लीला सेठ का जन्म 20 अक्टूबर, सन् 1930 को संयुक्त प्रांत की राजधानी लखनऊ में हुआ था। पिता इंपीरियल रेलवे में मुलाजिम थे। लीला सेठ तीसरी संतान थी और पिता-पुत्री में बड़ा लगाव था, किन्तु लीला जब मात्र 11 वर्ष की थीं, पिता का साया सिर से उठ गया। यह परिवार के लिए वज्रपात था और आर्थिक संकटों को न्यौता भी। लेकिन मां ने हिम्मत नहीं हारी और दार्जिलिंग स्थित प्रतिष्ठित लोरेटो कॉन्वेन्ट में बेटी की शिक्षा का प्रबंध किया। स्कूली शिक्षा के उपरांत वह कलकत्ते में स्टेनोग्राफर हो गयी। उन्हीं दिनों उनकी मुलाकात अपने भावी पति प्रेमनाथ सेठ से हुई। लीला और प्रेम पहली मुलाकात से ही गहरे अनुराग में डूब गये। इस अंतरंगता की परिणति विवाह में हुई। विवाह उनके जीवन में निर्णायक मोड़ साबित हुआ। पति प्रेमनाथ सेठ अग्रणी ब्रिटिश संस्थान बाटा से जुड़े हुए थे। विवाह के पश्चात लीला पति के साथ लंदन चली गयीं और वहीं उन्हें कानून के अध्ययन का मौका मिला। कानून के चयन का एक बड़ा कारण यह था कि वहां कक्षा में उपस्थिति की अनिवार्यता नहीं थी। लीला मां बन चुकी थीं और उनके लिए नवजात शिशु के पालन-पोषण पर ध्यान देना जरूरी था। बहरहाल, सन् 1958 में 27 वर्ष की उम्र में मेधावी लीला ने लंदन बार की परीक्षा सर्वोच्च अंकों के साथ उत्तीर्ण की। सन् 1959 में उन्होंने बार ज्वाइन किया। इसी साल उन्होंने सिविल सेवा परीक्षा भी उत्तीर्ण की। लंदन बार में सफलता अर्जित करने वाली वह प्रथम भारतीय महिला थीं। ब्रिटिश अखबारों ने उन्हें अच्छा कवरेज दिया। एक अखबार ने दुधमुंहे शिशु के साथ उनकी तस्वीर छापीं और उन्हें ‘मदर-इन-लॉ’ की संज्ञा दी। कुछ अखबारों ने इसे रेखांकित किया कि कैसे एक ब्याहता स्त्री ने 580 छात्रों में अव्वल स्थआन अर्जित किया।
इस प्रसंग के बाद सेठ दंपत्ति जल्द ही भारत लौट आए। लंदन के बाद उनका गंतव्य था पटना, जहां युवा लीला ने वकालत प्रारंभ की। यहीं उनके बेटे विक्रम ने सेंट जेवियर्स स्कूल में पढ़ाई की। लीला ने सचिन चौधरी और अशोक कुमार सेन जैसे वरिष्ठ अधिवक्ताओं के साथ काम किया और कीमती तजुर्बा हासिल किया। पटना हाईकोर्ट में उन्होंने 10 साल प्रैक्टिस की। पुरूष-प्रधान संकाय में महिला होने के नाते उन्हें अनेक कसैले अनुभव हुए, जिन्हें उन्होंने साहसपूर्वक व्यक्त किया। अधिकांश मुवक्किल उन्हें अफने मामले सौंपने में हिचकते थे, क्योंकि वह महिला थीं और विधि में पुरूषों का वर्चस्व था। बहरहाल, बतौर वकील लीला ने विधिक मामले हाथ में लिए। इनमें आयकर, विक्रय कर, मनोरंजन कर, कस्टम, कंपनी मामलों, दीवानी, फौजदारी, वैवाहिक और संवैधानिक मामलों का समावेश था। उनकी मेहनत और कामयाबी ने सबका ध्यान आकृष्ट किया। पटना हाईकोर्ट में दस साल बिताकर सन् 1972 में वह दिल्ली चली आईं। वहां वह हाईकोर्ट में प्रैक्टिस करने लगीं। उन्होंने दीवानी, फौजदारी, कंपनी, पुनरीक्षण आदि की याचिकाओं पर ध्यान केंद्रित किया। इसी साल उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में भी वकालत शुरू कर दी। उन्होंने टैक्स मामलों, पिटीशनों, संवैधानिक अपीलों पर ध्यान केंद्रित किया। पश्चिम बंगाल सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में वकीलों के पैनेल में उन्हें शामिल किया। वहां वह जून, 1974 से जनवरी, 1977 तक रहीं। सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें सीनियर एडवोकेट की मान्यता दी। सन् 1978 में वह दिल्ली हाईकोर्ट की जज बनीं। यह एक चमकीली उपलब्धि थी, विरल और गौरवशाली। जल्द ही वह हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट की चीफ जस्टिस बनीं। पहली महिला जज और पहली महिला सीजे का श्रेय उनके खाते में दर्ज हुआ।
लीला सेठ ने अपने जीवन में अनेक संस्थाओं को सुशोभित किया। सन् 1997-2000 में वह विधि आयोग की सदस्य रहीं। वह हिन्दू उत्तराधिकार बिल (1956) में बेटियों को पैतृक संपत्ति में हक की हिमायती थीं। वह राष्ट्रकुल की मानवाधिकार पहल से बरसों-बरस जुड़ी रहीं। सन् 2012 से सन् 2016 के दरम्यान वह इंफोसिस प्राइज की मानविकी जूरी से जुड़ी रहीं। वह अनेक जांच आयोगों से भी संबद्ध रहीं। उन्हीं में एक था बाल मनों पर ‘शक्तिमान’ सरीखे टीवी धारावाहिकों के प्रभाव पर बना आयोग। बिस्कुट-किंग राजन पिल्लै की कस्टडी में मौत की जांच के लिए गठित आयोग की वह इकलौती सदस्य थीं। सन् 2012 में दिल्ली गैंग-रेप के बाद बलात्कार के कानूनों के पुनर्निधारण के लिए बने तीन सदस्यीय जस्टिस वर्मा आयोग की भी वह सदस्य थीं।
लीला सेठ का दांपत्य-जीवन सुदीर्घ और सुखद रहा। उनकी तीन संतानों में विक्रम ने लेखन को चुना तो शांतम बौद्ध-धर्म की शरण में जाकर शिक्षक हुए। पुत्री आराधना ने फिल्म निर्माण में रुचि ली। जीवन की सांध्य-बेला में लीला ने आत्मकथा लिखी-‘आॅन बैलेंस।’ किताब पढ़ी और सराही गयी। 5 मई, सन् 2017 को नोएडा स्थित घर में उन्होंने आंखें मूंदीं। मृत्यु के पूर्व उन्होंने अफने अंग परीक्षण और प्रत्यारोपण के लिए दान कर दिए थे, अत: उनकी अंत्येष्टि न हुई। विधि की दुनिया में उन्होंने बखूबी कांच के अवरोध तोड़े। आधी दुनिया के लिए उन्होंने एक नजीर स्थापित की। ‘आॅन बैलेंस’ से गुजरना उनके साथ-साथ आरोह-अवरोहभरी दिलचस्प यात्रा से गुजरना है।
( डॉ. सुधीर सक्सेना देश की बहुचर्चित मासिक पत्रिका ” दुनिया इन दिनों” के सम्पादक, देश के विख्यात पत्रकार और हिन्दी के लोकप्रिय कवि, लेखक- साहित्यकार हैं। )
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