भरत स्वर्णकार की कविता- तमन्ना….

उसकी जरूरत
कुछ नहीं बस
आंख से अब
कम दिखाई देता है
चश्मा बनवा देते तो ,,,,,,
वह चल नहीं पाती है
गिरने का डर रहता है
वाकर मंगा देते तो ,,,,,,
अब इस उम्र में
कहां जायेगी
दौड़_धूप उसके
बस की बात नहीं
समय निकालकर
कोई उसके पास
दो घड़ी बैठ जाते
वह सिर पर हाथ फेरकर
प्यार कर लेती तो ,,,,,,,
कांवड़ में बैठकर
चारधाम दर्शन करने की
उसकी कोई तमन्ना नहीं है
अंत समय में
उसे अपनों का
कांधा मिल जाता तो ,,,
बस इतनी-सी
तमन्ना बाकी है ।
भरत स्वर्णकार ,
दुर्ग, छत्तीगसढ़
062655 43562
