भाषा की हरियाली को रेगिस्तान में बदलता हिन्दी समाज: डॉ. दीपक पाचपोर
विदेशी भाषा में होने वाले साक्षात्कार से कांप रही है- हिन्दी:
डॉ. दीपक पाचपोर
राष्ट्रभाषा, राष्ट्रीय भाषा, जनभाषा, देश की अनगिनत लोक एवं उप भाषाओं के क्षेत्रों में अतिक्रमण करती भाषा, अंतर्राष्ट्रीय पटल पर व्यवसाय के चढ़ने-उतरने के लिए बड़ी प्रभावशाली ढंग से बनती हुई एक निर्णायक भाषा, तेजी से उभरती हुई वह भाषा जो कभी गर्व से उल्लेखित होती है, तो कभी अंग्रेजी के सामने सहमी, ठिठकी या संकोच करती हुई भाषा- ऐसे कई-कई रूप धारण करती और अनेक तरह से उद्धृत होती हुई हिन्दी को लेकर आजादी के पहले जो स्पष्टता थी, वह धीरे-धीरे खत्म हो रही है। उसकी वह शक्ति जो समाज के भीतर होने वाली अपनी उपस्थिति को दर्शाती थी, वह कहीं कमजोर पड़ी है तो कहीं वह पहले के मुकाबले ज्यादा ताकतवर हो रही है। जहां तक रोजगार की बात है तो हिन्दी, अंग्रेजी के दरवाजे पर खड़ी होकर धडक़ते दिल से विदेशी भाषा में होने वाले साक्षात्कार से कांप रही है, तो वहीं सोशल स्टेटस के मामले में वह किसी पार्टी में अंग्रेजी में गिटपिट करते और चहकते लोगों से दूर कोने में सूप पीती हुई सकुचाई सी, एकाकी खड़ी रहती है- इस डर से कोई उससे कुछ पूछ न ले।
यह स्थिति तब है जब संविधान के अंतर्गत उसे प्रश्रय दिया गया है और लोगों द्वारा भरपूर इज्जत बख्शी गई है। उसका एक समृद्ध इतिहास है, अनगिन उत्कृष्ट कोटि की रचनाएं उसके खाते में हैं, उसके कई लेखकों और साहित्यकारों को दुनिया जानती है तथा उसकी न जाने कितनी कृतियां विश्व की दूसरी भाषाओं में रूपांतरित हो चुकी हैं। कभी यह भाषा उन हिन्दीभाषी लोगों की थी जो भारत के स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अपनी आर्थिक स्थिति को बेहतर बनाने की जद्दोजहद कर रहे थे। ऐसे लोग जो समाज के सम्पन्न तो क्या उच्च मध्य वर्ग से भी संबंधित नहीं थे। उनके बच्चे उस समय के पब्लिक, कान्वेंट या अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों से उत्तीर्ण न होकर सरकारी स्कूलों से निकलकर आते थे। उच्चवर्गीय लोगों के बराबर आने में उन्हें अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में आर्थिक हैसियत से बाहर जाकर प्रवेश लेना पड़ा। ये बच्चे कब मेहमानों के सामने ‘‘मछली जल की रानी है’’ और ‘‘तकली रखकर आ जा नानी’’ जैसी बाल कविताओं को छोडक़र ‘‘ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार’’ एवं ‘‘बा बा ब्लैक शीप’’ गाकर इतराने लगे, हिन्दी समाज को पता ही नहीं चला। अपनी भाषा के साथ हमारे व्यक्तिगत और सामाजिक व्यवहार के बहुत से उपक्रमों में से एक यह भी है। हिन्दी या अपनी मातृभाषा के साथ अंग्रेजी के संबंधों के मूलत: दो चरण हमारे समाज ने देखे हैं- पहला तो यह कि अंग्रेजी जानने वाला तत्काल नौकरी पा जाता है; और दूसरे, जो अंग्रेजी में बात नहीं कर सकता वह कुछ नहीं जानता। मजेदार बात तो यह है कि इस धारणा को सबसे पहले स्वयं हिन्दी समाज ने ही अपने भीतर पुख्ता कर लिया है।
छत्तीसगढ़ की सरकार ने हाल ही में एक प्रयोग किया है, वह है स्वामी आत्मानंद इंग्लिश मीडियम स्कूल योजना। इसके अंतर्गत प्रदेश के सभी जिलों में अंग्रेजी माध्यम की कुछ शालाएं खोली जा रही हैं। पहले से चल रही स्कूलों को इस परियोजना के लिए अधिग्रहित कर लिया गया है। इन्हें बहुत शानदार अधोरचना प्रदान की गई है। अनेक ऐसी शालाएं जो मूलभूत सुविधाओं के लिए तरस रही थीं, अंग्रेजी की संजीवनी पाकर निखर उठी हैं। इनमें नये सिरे से योग्यतम प्राचार्यों एवं शिक्षकों की भर्ती की गई है। कोविड-19 संक्रमण के कारण इनमें फिलहाल तो ऑनलाइन पढ़ाई हो रही है, लेकिन जब भौतिक रूप से यहां की ‘कक्षाएं’ नहीं ‘क्लासेस’ चलने लगेंगी, तब बच्चों और उनके अभिभावकों में एक नये तरह का अभिजातवर्गीय गर्व महसूस होगा और इन स्कूलों के बाहर खंडहर बन चुकी स्कूलों में पढऩे वाले छात्रों तथा उनके मां-बाप मन मसोसकर रह जायेंगे। वे अंग्रेजी को गाली तो नहीं बक सकते हैं लेकिन अपनी किस्मत पर रोयेंगे अवश्य- गैर बराबरी के एक नये स्मारक को देखकर। राज्य भर में 100 से अधिक ऐसे स्कूल खोले जाने हैं। बाद में इनकी संख्या में उत्तरोत्तर बढ़ोतरी होगी।
यह वही मानसिकता है जो प्रकारांतर से देश भर में मौजूद है। अंग्रेजी स्कूल का मतलब है अच्छी अधोरचना, साफ-सुथरे बच्चे, परिसर में पूरी तरह से अंग्रेजी का इस्तेमाल करने का नियम और मौके बे मौके अभिभावकों से अलग-अलग कारणों से पैसे रखवाने का नवाचार। एक तरफ तो देश के हजारों स्कूल या तो बंद हो रहे हैं या वहां कई तरह के अभाव हैं। ये अभाव शिक्षकों की कमी से लेकर लाईब्रेरियों में पुस्तकों का न होना, या फिर साफ पानी तक उपलब्ध न होने से लेकर शौचालयविहीन परिसर के रूप में हैं। कहने को तो यह प्रशासकीय विफलताएं हैं, लेकिन इसका संबंध हिन्दी और अंग्रेजी स्कूलों के बीच का फर्क प्रगाढ़ करने तथा उनसे निकलने वाले छात्रों के बीच के अंतर की धारणा को मजबूत करने वाले संकेतक हैं। यह रास्ता खुद इस समाज ने चुना है। यह तो सही है कि अपनी भाषा को कमजोर किये जाने से हमने ऐसे लोगों का रेवड़ निर्मित कर दिया है जो एक ही स्वर में मिमियाता है। प्रसिद्ध हिन्दी ज्ञाता रूपर्ट स्नेल ने कहा था कि ‘‘हिन्दी की शक्ति का आधार उसका दूसरी भाषाओं के साथ खूबसूरत सम्मिलन है।’’ इस विविधता को हम सबने मिलकर इस तरह से विनष्ट कर दिया कि अब हम जो भाषा सुनते हैं, लिखते हैं, बोलते हैं वह ऐसी सपाट और ठस्स किस्म की है जिसमें न लोच है न लावण्य, न लालित्य है न ही सौन्दर्य। लोकोक्तियों और मुहावरों की रोचक दुनिया को अलविदा कह चुकी पीढ़ी ‘सवा’ और ‘ढाई’ नहीं जानती और न ही ‘ससत्तर’ व ‘सतासी’ का अर्थ समझती है। उसमें तत्सम और तदभव की शास्त्रीयता का पलायन हो चुका है तथा देशज और संकर शब्दों का प्रवेश भी निषिद्ध हो गया है। अंग्रेजी भाषा का पीछा करते-करते हम ऐसे समाज का निर्माण कर चुके हैं जो हमारे अपने हाथों से तो गढ़ा गया है लेकिन हम उससे अनजान हैं। वह समाज भी हमें अधिमान्यता नहीं देता। अगर व्यक्ति और समाज के बीच ऐसी दूरी और अनबन सी है तो हम कैसी दुनिया बनाने जा रहे हैं, इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है।
इस लेखक को कुछ समय एक अंग्रेजी माध्यम पब्लिक स्कूल में कार्य करने का मौका मिला। हर रोज हिन्दी और अंग्रेजी के बीच छात्रों को लेकर होने वाली खींच-तान और भिड़ंत का नाम ही हमारे ऐसे स्कूल हैं। ये शालाएं बच्चों की प्रतिभा को भाषा की आरी से काटने का काम करती हैं। बच्चों की सारी शक्ति, ऊर्जा और समय एक ऐसी भाषा के रचे हुए चक्रव्यूह में घुसपैठ कर उसके माध्यम से वह ज्ञान प्राप्त करने में चला जाता है, जो उसे एक ओर तो अपने समाज से काट देता है तो वहीं दूसरी ओर एक नाकाबिल व्यक्ति के रूप में उसे गढ़ता है जो न खुद के काम का है और न ही समाज के किसी उपयोग का। वह अंग्रेजी की ऊंचाइयां प्राप्त करने के चक्कर में अपने पैरों को धरती पर से भी उठा लेता है। अब उसका सिर न अंग्रेजी के आस्मां में है और न ही उसके पैर हिन्दी की जमीं पर। एक निर्जीव भाषा किस प्रकार पूरी पीढ़ी को त्रिशंकु बना देती है, यह हमसे दुनिया सीख सकती है।
प्रसिद्ध विचारक डॉ. सुरेश गम्भीर कहते हैं कि ‘‘भाषा के तीन प्रकार्य हैं- भाषा मानव के बीच एक-दूसरे के साथ व्यवहार का माध्यम है। दूसरा, भाषा किसी विशिष्ट समुदाय को संगठित करने के लिए एक प्रतीक का काम करती है। भाषा का तीसरा प्रकार्य है कि वह अपने भाषा-भाषियों के भावात्मक संबंध और उनकी अस्मिता का भरण-पोषण करती है।’’ इस दृष्टिकोण से अगर हम हिन्दी की स्थिति और समाज में उसके उपयोग पर विचार करें तो सीधी सी बात यह है कि एक बिगड़ैल व राह भटक चुकी भाषा अपने समाज से व्यक्ति को विमुख करने का ही कार्य कर रही है। आज लोगों के बीच खराब संबंधों तथा असंगठित समाज का कारण यही विकृत भाषा है। समाज के कथित रूप से ऊपर के पायदानों पर बैठे वे लोग जो इस भाषा के यूजर एवं पोषक हैं, इसी के चलते समाज के वंचितों, शोषितों, दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं के दुख दर्द से पूरी तरह संवेदनशून्य हैं। पहले कभी हिन्दी विपन्नों की भाषा थी पर अब उस सम्पन्न वर्ग की भाषा है जो 1991 के बाद आई नई अर्थव्यवस्था की देन है। खाये-पिये व अघाये लोगों की यह भाषा उसी मानसिकता के चलते मानवीय त्रासदियों पर अट्टहास करती है, युद्ध से लेकर कोरोना काल में मरते या सैकड़ों मीलों की पैदल यात्रा करते अभागों पर हंसती है। इस भाषा को बोलने वाले बलात्कार के लिए महिलाओं के कपड़ों को जिम्मेदार मानने से लेकर गरीबों को अपनी स्थिति के लिए स्वयं उत्तरदायी ठहराती है। एक अनुशासनहीन भाषा अराजक समाज का निर्माण कर रही है और इसके लिए वह उन सारे मंचों व अवसरों का अचूक इस्तेमाल करती है जहां कुछ कहा जाये, कुछ सुना जाये अथवा कुछ लिखा जाये। जिस समाज ने खराब भाषा को गढ़ा है, वह पलटवार के लिए तैयार रहे। उसकी रची हुई भाषा हिन्दीभाषी समाज को अपने जैसा बनाकर छोड़ेगी। बड़ा खतरा तो यह है कि अपने बुरे से बुरे हाल में भी हिन्दी पूरे देश को प्रभावित करती है। उसकी अराजकता और विकृति का प्रसार उस समाज पर भी हो सकता है, जिनमें वह अलग-अलग तरीकों से प्रवेश कर रही है।
(हिन्दी की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘नवनीत’ का सितम्बर, 2021 का अंक हिन्दी पर केंद्रित है। इसमें वरिष्ठ पत्रकार और लेखक डॉ. दीपक पाचपोर का यह लेख प्रकाशित हुआ है।)