जब दो रात और तीन दिन ठहरती थी बारात

प्रस्तुति- लक्ष्मीकांत मुकुल

मां की बारात के किस्से करण सिंह चौहान

यह वो जमाना था जब बारात दो रात और तीन दिन ठहरती थी । इन तीन दिनों में दोनों तरफ से ऐसे कई मौके आते जब वाक्युद्ध वास्तविक युद्ध में परिवर्तित हो जा सकता था । इसमें दोनों पक्षों को ऐडवांटेज के कई मौके मिलते । उनमें सबका वर्णन तो यहां संभव नहीं लेकिन कुछेक सामान्य “फ्लैशिंग पाइंट्स” का जिक्र किया जा सकता है ।

जैसे बारात गांव में प्रवेश होती तो उसकी अगवानी के लिए लड़की पक्ष के लोग बनाए गए प्रवेश द्वार पर जाते जिनमें लड़की के पिता, ताऊ, चाचा, मामा, भाई के अलावा अन्य लोगों और रिश्तेदारों का होना जरूरी था । द्वार पर मिलाई का कार्यक्रम होता जिसमें वर पक्ष और वधू पक्ष के लोगों का जोड़ मिलता ( लड़के और लड़के के सम रिश्तेदार) और मिलाई के बाद वधु पक्ष के लोग भेंट स्वरूप अपने जोड़ को रुपए का लिफाफा भेंट करते । इस मिलन में कई लोग दांव लगाकर समकक्ष को या तो ऊपर उठा देते या पटक ही देते । यह इसलिए कि पता लगे कि दोनों में कौन मजबूत और दमदार है । वैसे तो यह किया जाता हास-परिहास के मूड में ही लेकिन कई बार यही टंटे में बदल जाता ।

अगवानी और मिलाई के बाद जब बारात बारात-घर में आती तो बारात में आए हुए कुछ प्रौफैशनल बूढ़े अपना करतब दिखाते । दर-असल उन्हें काम-बिगाड़ू ताऊ माना जाता और कन्या पक्ष पर दबाव बनाए रखने के उद्देश्य से विशेष रूप से ले जाया जाता । हर गांव में ऐसे लोग होते जो काम-बिगाड़ू हरकतों में एकदम ट्रेंड होते । इन लोगों का काम ही होता हर बात में मीन-मेख निकालना और फैल जाना । रायता फैलाने वाला मुहावरा शायद यहीं से निकला होगा ।

तो जैसे ही नाश्ते की पूरी-सब्जी-मिठाई-चाय आती तो ये लोग अपनी प्लेट और कसोरा फेंक कर मारते कि यह क्या बासी नाश्ता खिला रहे हैं । उनका मकसद वधू पक्ष को डिफैंसिव पर डालना होता कि वे आएं और खुशामद करें । इसका असर होता और वधू पक्ष की ओर से कई बुजुर्ग आते, नाश्ता देने वाले अपने लड़कों को डांटते और इन बिगड़े हुए लोगों की खुशामद करते हुए माफी मांगते । उन्हें विशेष सम्मान देते हुए स्वयं अपने हाथ से परोसते । तब जाकर वे शांत होते ।

इसके बाद दूसरा पाइंट होता रात के भोजन का । बाहर जहां बारात भोजन कर रही होती वहीं अंदर के कमरों में स्त्रियां भोजन समाप्त होने तक लागातार लोकगीत गाती रहतीं । लोकगीत क्या थे वर पक्ष के लोगों को गाली देने, नीचा दिखाने, मजाक उड़ाने के कथ्य से भरे हुए होते । सभी लोग इनसे परिचित थे इसलिए उनकी चुभन महसूस करते हुए भी सहज बने रहते । बल्कि अधिकांश तो इन गाली गीतों से आनंदित होते । लेकिन महिलाओं में नई बहुएं या लड़कियां कई बार अपना रचनात्मक कौशल दिखाते हुए कुछ नया तीखा कंटेंट गीत में डाल देतीं जो सबके लिए अपरिचित होता और अधिक डायरैक्ट होने से प्रतिक्रिया पैदा कर देता ।

इस पर भी अनेक बार टंटा हुआ ।

सबसे अंतिम और बड़ा फ्लैश पाइंट था विदाई के दिन । बारात को विदा करने से पहले एक बड़े चौक में दोनों पक्ष आमने-सामने बैठते । इसमें दोनों पक्षों में असली लेन-देन संपन्न होता । दोनों तरफ के पंडित और नाई इस लेन-देन को संपन्न करते । मसलन एक तरफ का नाई थाली में रखे आभूषणों के डिब्बों को लेकर दूसरे पक्ष के मुखिया के सामने रखता । दूसरे पक्ष का नाई भी दिए जाने वाले सामान को दूसरे पक्ष के मुखिया के सामने रखता । मुखिया उसे थोड़ा सा खोलकर देखता और अंदाजा लगाता । फिर वह पीछे बैठे बाकी लोगों को और वर या वधू पक्ष के परिवारियों को उसकी जानकारी देता । काफी देर तक इस पर चुपचाप गंभीर विमर्श होता रहता ।

लंबे अंतराल के बाद उसे उठाकर अंदर अंतःपुर में भेज दिया जाता जिसका अर्थ होता था स्वीकार । लेकिन यदि वह उस पक्ष को स्वीकार नहीं हुआ तो वह उस सामान में एकाध चीज अपनी ओर से मिलाकर दूसरे पक्ष के नाई को यह कहते हुए देता कि इसे उनकी ओर से भेंट स्वरूप मानकर ग्रहण किया जाय । इसका अर्थ था अस्वीकार । अस्वीकार से भी अधिक अपमान । दूसरे पक्ष में फिर इस पर देर तक विचार-विमर्श चलता और लंबे अरसे के बाद निर्णय सामने आता । कई बार दोनों पक्ष के मुखिया उठकर एक तरफ चले जाते और लौटकर आते तो आगे की कार्रवाई चलती ।

अगर रजामंदी बन गई तो तय हुआ सामान या पैसे दुबारा भेजे जाते । यदि रजामंदी नहीं हुई तो टंटा शुरू हो जाता और बात मारपीट में बदल जाती ।
और बारात को खाली हाथ वापस कर दिया जाता ।

सबसे विचित्र बात यह होती कि वर-वधू के बीच फेरे तो पहली ही रात को हो चुके होते । यानी दोनों का वैधानिक विवाह तो पहले ही संपन्न हो चुका होता । लेकिन फिर भी विदाई के इस विवाद में शादी टूट जाती और रिश्तेदारी खत्म मानी जाती ।

तो नाना की चिठ्ठी ने बारात से पहले ही ऐसी परिस्थितियां पैदा कर दी थीं । यह गांव और बिरादरी के इतिहास में एक नया फ्लैश पाइंट जुड़ने जैसा था । सभी को लग रहा था कि न केवल सुल्ला सिंह और भरत सिंह के परिवार में हमेशा के लिए रिश्तेदारी खत्म होकर पारिवारिक दुश्मनी के इतिहास का प्रारंभ होगा बल्कि पूरे गांव के साथ भी वही होगा । ऐसे उदाहरणों की गांवों में कमी नहीं थी जहां पारिवारिक या पूरे गांवों की दुश्मनियां कितनी ही पीढ़ियों से जारी थीं ।

सब लोग मान रहे थे कि यह जो दुश्मनी का नया अनजाना अध्याय गांवों के इतिहास में जुड़ रहा है वह अब तक की जानी दुश्मनियों के सारे रिकार्ड तोड़ने वाला है ।

लेकिन ताऊ सुल्ला सिंह कच्ची गोटियां नहीं खेले थे । बहुत सुलझे हुए और आजकल की शब्दावली में “कूल” आदमी थे । उन्होंने मन ही मन इस अपमान के घूंट को पी लिया और कोई निर्णय ले लिया । अगले दिन पत्र लिखवाकर पंडित को दे दिया कि जैसा लिखा है वैसा ही होगा और बारात निश्चित दिन मदनपुर में प्रवेश कर विधिपूर्वक विवाह के सभी कार्य संपन्न करेगी ।

बारात जाने के समय में अभी दो महीने थे । ताऊ सुल्ला ने एक तरफ कई नाइयों को बुलाकर आसपास के पूरे इलाके के गांवों में न्यौता भिजवाया कि हर घर से कम-स-कम एक बाराती चाहिए । अगर घर में दस लोग जवान हैं तो दस ही चलें । दूर के नाते-रिश्तेदारों के यहां भी खबर भिजवा दी कि इज्जत का सवाल है इसलिए पूरी संख्या में आएं । इसके अलावा भी ताऊ का लंबा-चौड़ा महाजना था जिन्हें सम्मान सहित न्यौता भिजवाया गया । दूसरी जाति-बिरादरी के लोगों में भी ताऊ सुल्ला के अच्छे रसूख थे इसलिए उनको भी न्यौता गया ।

उस समय बारात रथों, बहेलियों, घोड़े, तांगों, हाथी, बैलगाड़ियों पर जाती थी । इलाके में जितने भी रथ, बहेलियां, तांगे, बैलगाड़ियां , घोड़े, हाथी थे सबको तीन दिन के लिए मांग लिया गया मय सारथी ।

कहते हैं जिस दिन बारात जाने का दिन आया, उस दिन इस पच्चीस मील के १०० गांवों के पूरे इलाके में लगभग महाभारत का नज्जारा था । सब जगह रथों, बहेलियों, घोड़ा गाड़ियों, तांगों, बैलगाड़ियों की कतारें और उनसे उड़ती धूल । इन वाहनों और इनके खींचने वाले घोड़ों, बैलों को इस तरह से सजाया गया था कि नज्जारा देखते ही बनता था । चारों तरफ लोग ही लोग थे अपने जीवन की सबसे सुंदर वेशभूषा में सजे हुए ।

ऐसा लगा लोगों में बारात को ऐतिहासिक बनाने का एक जुनून सवार था और जितने भी बच्चे, बूढ़े और जवान पुरुष थे सब चाहते थे कि वे इस इतिहास का हिस्सा बनने से न रह जायं । यह सुल्ला सिंह की नाक का सवाल नहीं था, यह पूरे इलाके की नाक का सवाल था ।

कहते हैं उस दिन दोपहर से बारात जब रवाना हुई तो सात मील के पूरे रास्ते में रथों, बहेलियों, तांगों, बैलगाड़ियों की बहार थी । दूल्हे का रथ जब मदनपुर की सरहद पर पहुंच चुका तब तक बरात का एक चौथाई हिस्सा ही रास्ते में था बाकी सब तो अपनी बारी के इंतजार में खड़े थे । जिनको कोई सवारी नहीं मिली वे पैदल ही चल पड़े ।

एक अनुमान के अनुसार लगभग दस हजार से भी ज्यादा लोग बारात में गए । हजार के ऊपर वाहन और उनसे दुगने घोड़े और बैल ।

अब जो उन दिनों की बारात की करीबी जानकारी रखते हैं वे जानते हैं कि गांव की इन बारातों का कोई इकहरा उद्देश्य नहीं होता था । अब जब बारात है तो रास्ते में बैलगाड़ियों की, रथों की दौड़ प्रतियोगिता भी आयोजित होतीं । सब लोग अपने और बैलों के करतब और दम दिखाते । इस तरह कई घंटों का अधबीच का यह मनोरंजन बारात का अभिन्न अंग था । तो वह सब भी साथ-साथ चल रहा था ।

नाना इतना तो जानते थे कि सुल्ला ने जिस शांति से उनकी चुनौती को लिया था उसका मतलब साफ था कि वे उसका माकूल जवाज देंगे । इसलिए उन्होंने तैयारी भी उसी हिसाब से कर रखी थी । बारात के वाहनों और वाहनों को खींचने वाले पशुओं और सारथियों के लिए गांव के बाहर बड़े मैदान को घेरकर अलग से इंतजाम किया गया था जिसमें उनके रहने, बांधने, चारे और खाने-पीने का इंतजाम शामिल था । बारात के लिए गांव के मुख्य बारात घर, स्कूल की इमारत, गांव की तमाम बैठकों में लोगों के रहने-सहने का इंतजाम किया गया था । साथ ही गांव के मंदिर के सामने के बड़े मैदान में तंबू छवाकर हलवाइयों और खाने की जगह का विशाल प्रबंध किया गया था ।

इसके बावजूद यह व्यवस्था इस महा-बारात के हिसाब से एकदम नाकाफी थी ।
जितना भी जगह का इंतजाम था, वह सब भर गईं और बारात का एक सिरा अभी सदरपुर गांव में ही था ।

कहते हैं, उस दिन पहली बार बोहरे भरत सिंह को अपनी गलती का अहसास हुआ । बारात का सिलसिला खतम ही नहीं होता था और पूरे गांव में पैर रखने को भी जगह बची नहीं थी । जगहंसाई की नौबत आ गई थी । आखिरकार उन्होंने सुल्ला सिंह के सामने जा अपनी पगड़ी उतारी और उनके पैरों में रख दी । बस फिर क्या था ! सुल्ला सिंह ने उन्हें पगड़ी पहनाते हुए बाहों में भरकर अपनापा जताया । समधियों का ऐसा मिलन आज तक लोगों ने नहीं देखा ।

इस मिलन का होना था कि अभी तक जो चारों तरफ अफरा-तफरी, अव्यवस्था का माहौल था वह सब व्यवस्थित होने लगा । जो जगह छोटी पड़ रही थी वह सबके लिए पर्याप्त लगने लगी । आखिर दोनों पक्षों की इज्जत का सवाल था ।
यह उस जमाने की बात है जब बारात दो रात और तीन दिन रुकती थी । इसमें पहला दिन तो बारात के पहुंचने और व्यवस्थित होने का ही होता और शाम को द्वारचढ़ी और रात्रि -भोज ही हो पाता ।

अगला पूरा दिन सांस्कृतिक कार्यक्रमों का होता जिसमें स्वांग, नौटंकी या अन्य कोई नाट्यकथा का मंचन होता और दोनों पक्ष के लोग भारी संख्या में पूरा दिन उसे देखते । इसके लिए वर पक्ष के लोग पूरे इलाके से मशहूर नाट्य-कर्मियों या टोली को लेकर आते और उसकी चर्चा महीनों तक चलती । दोपहर और रात का भोजन होता ।

क्योंकि बारात काफी बड़ी थी इसलिए अलग-अलग जगहों पर यह सांस्कृतिक कार्यक्रम चला । एक जगह उस जमाने के मशहूर स्वांगी लखमीचंद की मंडली बिछे तख्तों पर खुले में चारों ओर जन-समूह से घिरे नल-दमयंती की कथा का मंचन कर रहे थे । दूसरी जगह चार भजनी भक्त नरसिंह की कथा कह रहे थे, एक जगह नौटंकी तो एक जगह फिल्मी गीतों का कार्यक्रम । मतलब पूरा दिन इसी सांस्कृतिक उत्सव में बीता ।

तीसरा दिन विदाई का निश्चित था जिसमें दोनों पक्ष के लोग आमने-सामने बैठकर तमाम चीजों का निपटारा करते ।

इतनी बड़ी बारात में ऐसे सैकड़ों मौके हो सकते थे जिसमें किसी भी बात पर दोनों पक्षों के बीच युद्ध की स्थिति बन सकती थी । लेकिन यहां दोनों समधियों में जो सद्भावना और सौहार्द्र विकसित हुआ उसने तमाम रस्मों, रिवाजों और कार्यक्रमों को शांतिपूर्ण माहौल में संपन्न होना संभव बनाया । तीन दिनों तक लगभग मेले-ठेले का माहौल रहा जिसका लुत्फ सब लोगों ने भरपूर उठाया ।

नाना ने बारात की आवभगत करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी । उन्होंने अपनी अमीरी को सबके लिए खोल दिया । कहते हैं ऐसा भोजन, ऐसा मनोरंजन, ऐसा आदर-सत्कार उनकी याद में किसी बारात को कभी नहीं मिला । जब बारात विदा होने लगी तो नाना ने हर बाराती को पांच बर्तन, महिला-पुरुष-बच्चों के एक-एक जोड़ी कपड़े, चांदी के सिक्के के साथ दिए जो उस जमाने में काफी बड़ी रकम मानी जाती थी ।

इस तरह यह विवाह संपन्न होकर लोगों की स्मृति में हमेशा के लिए चला गया और किस्से कहानियों में आज तक विस्तार पाता चला आया ।

बाद में मैं मां को, जब तक वे जीवित रहीं, हमेशा “बड़े घर की बेटी” कहकर ही संबोधित करता रहा । मां भी सारा जीवन सचमुच स्वयं को लक्ष्मी ही मानकर चलती रहीं ।

उसके बाद तो नाना ने अपनी दो अन्य छोटी लड़कियों की शादियां भी इसी परिवार में कीं जो अब हमारी चाचियां कहलाती हैं । हालांकि उन्हें बस इसी बात का मलाल है कि उनकी शादी तो जैसे उधार की हो गई, उसमें वैसा कुछ गौरवशाली नहीं बना जो मां की शादी में हुआ था ।

प्रस्तुति- लक्ष्मीकांत मुकुल
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