दास्ताने काश्मीर @ डॉ. सुधीर सक्सेना
कर्रा के हाथों में कांग्रेस की कमान
- डॉ. सुधीर सक्सेना
काश्मीर घाटी में हलचल दिनों दिन तेज होती जा रही है। जम्मू-काश्मीर असेंबली के लिये चुनाव के ऐलान ने घाटी में आमदरफ्त बढ़ा दी है। इस चुनाव पर देश ही नहीं, बल्कि पड़ोसी राष्ट्रों समेत दुनिया भर की नज़रे हैं और इसकी वजह साफ है। दरअस्ल, यह चुनाव दस साल बाद हो रहे हैं। जम्मू-काश्मीर के लोग दस साल तक अपनी नुमाइंदगी की मजलिस से महरूम रहे। राज्य में विधानसभा के लिए चुनाव इसके पूर्व सन 2014 में हुये थे। दूसरे धारा 370 के विलोपन के बाद यह चुनाव पहली बार हो रहे हैं, लिहाजा इसे रायशुमारी या जनमतगणना के तौर पर भी देखा जा रहा है। इसके अलावा इस चुनाव के साथ पुनर्सीमन का संदर्भ भी जुड़ा हुआ है तथा एक बड़ा और महत्त्वपूर्ण मुद्दा यह भी है कि जम्मू-काश्मीर अब पूर्ण राज्य के बजाय केन्द्र शासित प्रदेश है और लद्दाख को उससे अलग कर दिया गया है। केन्द्र शासित प्रदेश होने के नाते सूबे में लेफ्टिनेंट गवर्नर की तूती बोलती है और उसके फैसलों व आचरण को लेकर नुक्ताचीं का दौर लगातार जारी है।
जम्मू-काश्मीर में मुमकिन है कि अभी चुनाव नहीं होते, अगर्चे सुप्रीम कोर्ट ऐसी हिदायत न देती। मुमकिन है कि केन्द्र सरकार चुनाव-स्थगन की कोई न कोई युक्ति निकाल लेती। मगर ऐसा मुमकिन नहीं हो सका, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव बाबत सख्त ताकीद की। यहां यह भी काबिले जिक्र है कि आसेतु हिमाचल पांव पसारने को व्यग्र भारतीय जनता पार्टी लोकसभा चुनाव में घाटी में प्रत्याशी खड़ा करने की हिम्मत नहीं जुटा सकी थी। उसे डर था कि ऐसा करने से उसरी बुरी तह भद्द पिटेगी। उसका यह डर जायज था। उसे पता है कि जाफरान की बादी में बादाम उसके लिये अभी भी कड़ते हैं। उसकी दूसरी बड़ी दिक्कत यह है कि कोई भी उसका बगलगीर होने या उससे हाथ मिलाने को तैयार नहीं है। मेहबूबा मुफ्ती की पीडीपी से बीजेपी की गलबाँह का दौर तीन साल भी नहीं चला और उसका अंत अंततः खटास में हुआ। आज मेहबूबा मुफ्ती बीजेपी की कटु आलोचक हैं और उस पर तंज का कोई मौका नहीं छोड़तीं। वह केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह से हेकड़ी छोड़ने, काश्मीर और पीओके में आवाजाही और दमन के बजाय संवाद की बहाली की गुजारिश कर चुकी हैं। गौरतलब है कि पीओके की नुमाइंदगी के लिये जम्मू-काश्मीर विधानसभा में 25 सीटों का प्रावधान था। वह पूछती है कि सरकार ने इसके लिये क्या किया? सुश्री मुफ्ती, जो अतीत में अनंतनाग से नेशनल कांफ्रेंस के मियां अल्ताफ के हाथों शिकस्त का सामना कर चुकी हैं, ने इस दफा असेंबली का चुनाव लड़ने से इंकार कर दिया है। अपने इस फैसले के पीछे उन्होंने तर्क भी दिये हैं। उनका कहना है कि आज के हालात में वह पार्टी-घोषणापत्र के साथ न्याय नहीं कर सकेंगी। वह अपने मुख्यमंत्रित्व काल का उदाहरण देते हुए बताती हैं कि सन 2016 में उन्होंने बारह हजार एफआईआर रद्द किये थे, अलगाववादियों को वार्ता क लिए न्योता दिया था और सीज-फायर लागू किया था। क्या आज की तारीख में ऐसा कुछ कर पाना संभव है?
तथ्य दर्शाते हैं कि जम्मू-काश्मीर की सियासी पार्टियों को लेफ्टिनेंट गवर्नर के कार्यों और प्रणाली से ढेरों शिकायतें हैं। केन्द्र सरकार ने उन्हें अपरिमित शक्तियां दी हैं। जम्मू-काश्मीर के केन्द्र शासित राज्य होने से यह आशंका स्वाभाविक है कि लेफ्टिनेंट गवर्नर के साये तले निर्वाचित सरकार क्या कुछ कर सकेगी ? फिजा में यह आशंका तैर रही है कि यदि जम्मू-काश्मीर में गैर भाजपा दल सत्ता में आये तो फिर लेफ्टिनेंट गवर्नर महाशय उसकी मुश्कें कसने से बाज नहीं आयेंगे? नेकां नेता उमर अब्दुल्ला तो यहाँ तक कह चुके हैं कि चपरासी के तबादले तक के लिए एलजी के दरवाजे पर खड़ा होना पड़ेगा। पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल के उदाहरण इस आशंका को बल प्रदान करते हैं।
यही वे सन्दर्भ हैं, जिनके चलते इस चुनाव में जम्मू-काश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा का मुद्दा, मुख्य मुद्दा बनकर उभरा है। अपने काश्मीर प्रवास में राहुल गाँधी और मल्लिकार्जुन खरगे ने भी इस मांग को समर्थन दिया है। हालांकि धारा 370 की बहाली की मांग किसी भी कोने से नहीं उठी है, किंतु काश्मीरियत यानि काश्मीर के गौरव की बहाली और जम्हूरियत की स्थापना के मुद्दे सुर्ख और सुर्ख़ियों में हैं। विवादों की फेहरिस्त लंबी है, लेकिन चुनाव की पूर्व वेला में पुलिस के सात आला अफसरों के तबादलों को लेकर एलजी नेशनल कांफ्रेंस के निशाने पर हैं। श्रीनगर, कुपवाड़ा और बारामूला जगहों के आला अफसरों के तबादलों के पीछे की नीयत पर नेकां सांसद आगा सैयद रुहुल्ला मेहंदी ने सवाल खड़े किये हैं। जम्मू-काश्मीर विशेषकर घाटी में बीजेपी का कमजोर पक्ष यह भी है कि उसके पास कोई चमकीला चेहरा या पोस्टर ब्वॉय नहीं है। एक वक्त कांग्रेस के कद्दावर नेता रहे पूर्व मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद से बीजेपी को बड़ी उम्मीदें थी, लेकिन वह बिजूका सिद्ध हुए। उनकी पार्टी डीपीएपी कोई जमीन नहीं गोड़ सकी। फलतः गुलाम हाशिये में सरकं गये हैं। बीजेपी को अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार फूटी आंखों नहीं सुहाते किंतु नेकां और पीडीपी की जड़ों में मठा डालने की उसकी कोशिशें निरर्थक रही। अब उसकी कोशिश पर्दे के पीछे से अधिक से अधिक निर्दलीय प्रत्याशियों को शह की है किंतु उसकी इस चाल और चालाकी को ‘काश्मीरियत’ की ध्वजवाहक पार्टियों ने बूझ लिया है। घाटी की तो छोड़िये, जम्मू में ‘ भी बीजेपी अब पहले सी मजबूत नहीं है। लोस चुनाव में विजयी उसके दोनों उम्मीदवारों- जितेंद्र सिंह और जुगलकिशोर के वोटों में दो-दो लाख मतों की कमी आई है। यही नहीं, भगवा-शिविर में असंतोष गहरा रहा है और उसके चंदर मोहन शर्मा और काश्मीरा सिंह जैसे तपे-तपाये नेताओं ने पार्टी छोड़ दी है। जहां तक आरएसएस-बीजेपी की रणनीति का प्रश्न है, राम माधव और जी. किशन रेड्डी को क्रमश: प्रभारी और सहप्रभारी बनाकर भेजना बहुत कुछ कहता है। राम माधव के बारे में माना जाता है कि वह अमित शाह की गुडबुक में नहीं हैं। बहरहाल, सर्वत्र मुस्लिम प्रत्याशियों से घोषित चिढ़ और परहेज के बावजूद बीजेपी लाल चौक, ईदगाह, खान साहिब, चरारे शरीफ और राजौरी जैसे अनेक क्षेत्रों से मुस्लिम उम्मीदवार खड़े करने को बाध्य हुई है। चुनाव की अहमियत के मद्देनजर राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने सत शर्मा, निर्मल सिंह और कविंदर गुप्ता को महत्वपूर्ण दायित्व सौंपे हैं।
जम्मू-काश्मीर के इस ऐतिहासिक चुनाव का सबसे अहम पहलू यह है कि कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस एक ही पाले में पड़े हैं और इस इकलौते, लेकिन धारदार पहलू ने चुनावी बाधा दौड़ में इस गठजोड़ को बढ़त दे दी है। नेकां और कांग्रेस क्रमश: 51 और 32 सीटों पर चुनाव लड़ेंगे। करीब आधा दर्जन सीटों पर इनमें दोस्ताना मुकाबला होगा। एक सीट पर भाकपा भी मैदान में है। कांग्रेस ने बहुत सोच-समझकर कमान घाटी के जांबाज नेता तारिक हमीद कर्रा को सौंपी है। कर्रा राज्य में मंत्री रह चुके हैं। सन 2014 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने डॉ. फारूक अब्दुल्ला जैसे कद्दावर नेता को हराया था। तब वह पीडीपी में हुआ करते थे, लेकिन उन्हें पीडीपी का बीजेपी से हाथ मिलाना रास नहीं आया। सन 2017 में उन्होंने पीडीपी छोड़कर कांग्रेस का दामन थान लिया। इसी अगस्त में उन्होंने वकार रसूल वानी की जगह कांग्रेस की कमान संभाली। ताराचंद और रमन भल्ला उनके सहयोगी हैं। वह सेंट्रल तालशेंग से चुनाव लड़ रहे हैं और मानते हैं कि इस चुनाव में मानक और तकाजे भिन्न हैं। जेएंडके को पूर्ण राज्य का दर्जा उनकी वरीयता है और वह केंद्र शासित राज्य बनाने को असंवैधानिक मानते हैं। बकौल कर्रा, यह ऐसा ऐतिहासिक मौका है जब अवाम अपने वोट के जरिये जम्मू-काश्मीर के आगामी सौ सालों की रूपरेखा तय करेगा। बीजेपी नेताओं के बयानों को वह थोथा और तोतारटंत बताते हैं और कहते हैं कि बीजेपी ने राजनीतिक लाभ के लिए ‘काश्मीर’ को सारे मुल्क में बेचा है। अब उसके खोखले वायदों और बिकवाली का अंत हुआ। वह बीजेपी की ‘अंधराष्ट्रीयता’ पर भी वार करते हैं। जहां तक मुख्यमंत्री की कुर्सी का प्रश्न है, कांग्रेस और नेकां की जीत के प्रति आश्वस्त 69 वर्षीय कर्रा कहते हैं कि यह चुनाव नतीजों के आने के बाद का विषय है।
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