सुख का राज मार्ग भोग में नहीं त्याग करने में है: आचार्य प्रवर

कोरबा 14 मार्च। सुखी कौन है, गृहस्थ जीवन में जीने वाले आप लोग या संतजन। सुख का मार्ग यही है जरूरत है तो उसे समझने और उस पर आगे बढ़कर पाने की। सुख का राज मार्ग यही है, क्योंकि सुख भोग में नहीं त्याग में है। आत्मकल्याण में नहीं वरन स्वभाव में है। सुख कल्पनाओं में नहीं है। यह संयम का राजमार्ग है।

यह बात सोमवार को आचार्य प्रवर श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वर महाराज ने भव्य अंजन शलाका व प्रतिष्ठा महोत्सव के दौरान आशीर्वाद पाइंट टीपीनगर में कही। उन्होंने मुनि सुव्रतस्वामी परमात्मा के मोक्ष मार्गी बनने का वर्णन सुनाया। उन्होंने बताया कि इस मार्ग पर चलना आसान नहीं होता है लेकिन अगर संकल्प कर लिया जाए तो कठिन भी नहीं रहता। यह मोक्ष मार्ग प्राप्त करने वालों से पता चलता है। आचार्य प्रवर ने बताया कि मुनि सुव्रतस्वामी परमात्मा का जब बरगुड़ा निकला। दीक्षा के लिए निकले तो सभी लोग दुखी हो गए। क्योंकि अब वे उन्हें छोड़कर जा रहे हैं। क्योंकि स्वयं के कहीं ज्यादा अपनों का दुख लगता है। परमात्मा को जो लोग अपना मानते थे। दीक्षा लेंगेए जंगल में चले जाएंगेए कोई पास नहीं, कोई द्रव्य नहीं, कोई सोना नहीं, कोई साधन नहीं आखिर कैसे रहेंगे। यह सोच कर सारी जनता दुखी हो रही थी। उन्होंने बताया कि पुण्य का पुरुषार्थ परमात्मा ही कर सकते हैं।

मुनि सुव्रतस्वामी परमात्मा के पांच कल्याणक चमन, जन्म, दीक्षा, केवल ज्ञान है व निर्वाण हैं। चमन कल्याणक पुण्य का परिणाम है, जन्म भी पुण्य का परिणाम है लेकिन दीक्षा पुरुषार्थ का परिणाम है। वर्तमान के पुण्य में पुरुषार्थ का उदय जरूरी है। दीक्षा कल्याणक सबसे महत्वपूर्ण है। क्योंकि दीक्षा है तो केवल ज्ञान है। तो ही निर्वाण है। एक भी तीर्थंकर ऐसे नहीं हैं जिन्हें बिना दीक्षा लिए ज्ञान हो गया हो। गृहस्थ जीवन में जरूर मिल जाएंगे। हालांकि भावों से वे दीक्षित हो चुके थे।

आचार्य प्रवर ने बताया कि भाग्य से ज्यादा जीवन में किसी को नहीं मिलता। ऐसे में अगर परमात्मा को प्राप्त करने का संकल्प प्राप्त कर लिया है तो कदम उनकी दिशा में बढ़ेंगे। ऐसा तभी होता है जब लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करने का हो। तीर्थंकर परमात्मा की विशेषता है कि वे रात में भोजन करते नहीं लेकिन त्याग नहीं करते। व्रत नहीं करते लेकिन व्रत का त्याग नहीं करते है। अभक्ष भोजन करते नहीं लेकिन उसका त्याग नहीं करते। हिंसा करते नहीं हैं लेकिन हिंसा का त्याग नहीं करते। वे सीधे सर्व विरती धारण करते हैं।

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