सामयिकी @ डॉ. दीपक पाचपोर
अखंड भारत की अवधारणा और यथार्थ
-डॉ. दीपक पाचपोर
‘अखंड भारत’ पुनः चर्चा में है। स्वाभाविकतः इस बारे में एक बार फिर से बात वहीं से उठी है जहां से पिछले करीब 75 वर्षों से वह उठायी जाती रही है। जी हां, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हलके से ही यह चर्चा उठी है और बात को छेड़ने वाले और कोई नहीं बल्कि स्वयं सरसंघचालक मोहन भागवत हैं। अवधारणा तो मनमोहक है पर कई आयाम अनुत्तरित भी हैं। इनका भी स्पष्टीकरण होना बहुत जरूरी है।
किसी भी अन्य देश को अपने में मिलाने के दो ही तरीके हो सकते हैं- युद्ध में उसे परास्त करना अथवा दूसरे, वहां की जनता में इस आशय की मांग उठवाकर कि वे आपके देश में शामिल होना चाहते हैं। प्राचीन समय में किसी भी देश को ज्यादातर युद्ध में जीतकर ही अपने में मिलाने की परम्परा रही है, लेकिन जबसे आधुनिक युग आया जिसमें अंतर्राष्ट्रीय संगठन (पहले राष्ट्र संघ तत्पश्चात संयुक्त राष्ट्र संघ, गुट निरपेक्ष आंदोलन, सोवियत संघ, सार्क, यूरोपीय संघ) बने और आपसी विवादों को बातचीत के जरिये निपटाने की सभ्यता विकसित हुई। दो-दो महासमर झेलकर बेज़ार हो चुके विश्व ने जान लिया कि लड़ाइयां किसी के भी हित में नहीं हैं। निःशस्त्रीकरण, देशों की संप्रभुता व राष्ट्रीय सीमाओं का सम्मान तथा शांति वार्ताएं सशस्त्र टकरावों का स्थान लेने लगीं। दोनों विश्व युद्धों के जनक यूरोप ने भी 1945 के बाद इससे तौबा कर ली और यूरोपीय संघ के माध्यम से एक इकाई बन गया। उसके किसी भी दो देशों के बीच इसके पश्चात एक गोली भी नहीं चली। ज्यादातर अंतर्राष्ट्रीय सरहदें एक दूसरे देशों के नागरिकों के लिये खोल दी गयीं। हैं भी तो प्रतीक स्वरूप, जहां न कोई सैनिक होते हैं न चेक पोस्ट और न ही शस्त्र। शेंजेंग वीज़ा एवं यूरो करेंसी ने (ग्रेट ब्रिटेन को छोड़कर) पूरे महाद्वीप को एक महादेश बना दिया जो परस्पर सहयोग के साथ अपने नागरिकों को जीवन यापन के बेहतरीन साधन मुहैया करा रहा है। वहां शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, पानी, सड़कें, सामाजिक सुरक्षा, बेहतरीन भविष्य का निर्माण आदि प्रमुख मुद्दे हैं, न कि एक दूसरे पर हमला कर उन्हें अपने देश में मिलाने की प्रवृत्ति। यूरोपीय देशों की तरक्की का प्रमुख कारण है सेना व गोला-बारूद पर उनका कम खर्च। अलबत्ता उनमें से अनेक युद्धक सामग्रियों के बड़े निर्यातक हैं और इससे खूब धन बटोर रहे हैं। फिर, सोवियत संघ का विभाजन भी सामने है। जब पाया गया कि सबको एक में बांधे रखना मुश्किल है तो सदस्य देशों पुराने स्वरूप में लौट आये- थोड़ी-मोड़ी मुश्किलों के साथ। एकीकरण के शानदार उदाहरण भी सामने हैं- जर्मन डेमोक्रेटिक रिपब्लिक व फेडरल रिपब्लिक ऑफ जर्मनी जो कुछ ही वर्षों तक अलग रह पाये। आखिरकार एक खुशनुमा दिन में दोनों देशों के नागरिकों ने उन्हें विभाजित करने वाली बर्लिन की दीवार गिरा दी। नागरिक गले लग गये जिन्हें महायुद्ध-2 ने अलग कर दिया था। 20 सालों तक युद्ध की विभीषिका झेलने के बाद उत्तर एवं दक्षिण वियतनाम भी एक दूसरे से मिल गये, जब उन्हें समझ आ गया कि दो महाशक्तियों- अमेरिका व सोवियत संघ- के हाथों का खिलौना बनकर वे अपने ही नागरिकों की गर्दनें नाप रहे हैं। बांग्ला देश का उदाहरण भी सामने है, जिसने पाकिस्तान से अलग होने की अपनी लड़ाई में भारत की मदद ली। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के लिये यह आसान था कि वे बांग्ला देश को भारत में किसी तरह से मिला लेतीं लेकिन उन्होंने नागरिक इच्छा का पालन करते हुए उन्हें सिर्फ स्वतंत्रता प्राप्ति में सहायता की। अगर वे एक मौकापरस्त राजनेता की तरह उस पर कब्जा कर लेतीं तो भारत की गिनती ‘मानवता के रक्षक’ से एक ‘आक्रांता व विस्तारवादी’ देश की हो जाती जिस पर कोई भी पड़ोसी देश कभी विश्वास न करता- चीन की तरह। अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी में थू-थू होती सो अलग।
आजाद भारत में ही देखें तो हैदराबाद के नवाब सम्प्रभु देश बने रहना चाहते थे जबकि वहां की हिन्दू बहुल जनता भारत में विलय चाहती थी। दूसरी ओर जूनागढ़ के मुसलिम शासक अपनी रियासत को पाकिस्तान में मिलाने के पक्ष में थे परन्तु हिन्दू जनता ने भारत में शामिल होना बेहतर समझा। आज दोनों ही भारत के हिस्से हैं। एक अन्य उदाहरण है कश्मीर का, जहां की जनता व हिंदू राजा दोनों ही स्वतंत्र रहना चाहते थे पर सैनिक कार्रवाई से वह भारत का हिस्सा बना। कहने का तात्पर्य यह है कि इतिहास में सभी तरह के उदाहरण मौजूद हैं। इसलिये संघ एवं संगठन प्रमुख मोहन भागवत को स्पष्ट करना चाहिये कि वे अगले 15 वर्षों में किस मार्ग पर चलकर अपने लक्ष्य को प्राप्त करेंगे? क्या अखंड भारत की उनकी परिकल्पना में जो देश आते हैं, उन्हें भारत आक्रमण से अपनी सीमाओं में मिलाएगा या बातचीत से? अगर ऐसा होता है तो क्या भारत सरकार की इसके लिये सहमति है? अगर है तो इसकी अधिकृत घोषणा प्रधानमंत्री, रक्षा मंत्री या गृह मंत्री की ओर से होनी चाहिये।
यह भी साफ हो कि अखंड भारत का भूगोल क्या हो? उसकी सांस्कृतिक अवधारणा में हमारे पड़ोसियों के अलावा थाईलैंड, इंडोनेशिया, मलेशिया व कम्बोडिया भी शामिल हैं जहां हिन्दू संस्कृति का आज भी प्रभाव दिख पड़ता है। मान लिया जाये कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्ला देश, म्यांमार, श्रीलंका, नेपाल आदि को ही आप अखंड भारत में शामिल करते हैं तो इससे हमारी जनसंख्या में इज़ाफ़ा होगी, उसका आप क्या करेंगे? मुसलिमों की आबादी बढ़कर लगभग 52 करोड़ हो जायेगी। आज 14 प्रतिशत के साथ जब रहना मुश्किल हो रहा है तो 34-35 फीसदी को कैसे सम्भाला जायेगा? अभी देश के अनेक राज्यों में हिन्दू-मुसलिम आमने-सामने हैं। संघ की वैचारिक प्रेरणा से परिचालित लोग, अधिकतर उसके राजनैतिक विंग यानी भारतीय जनता पार्टी के सदस्य हैं जो मस्जिदों में घुसकर भगवा झंडे लहरा-फहरा रहे हैं अथवा हनुमान चालीसा पढ़ रहे हैं; या फिर ऐन अजान के समय शोभा यात्राएं निकालकर डीजे बजाते हुए नाच-गाना इस उद्देश्य से कर रहे हैं कि उनके धार्मिक विधान में खलल पड़े। क्या परिकल्पित अखंड भारत में समाहित किये जाने वाले देशों के मुसलिम यह देखकर हमारे साथ रहने के लिये तैयार होंगे?
संघप्रमुख कहते हैं- “अखंड भारत के रास्ते में जो आएगा वह मिट जायेगा।” अगर आप 15 साल में दर्जन भर पड़ोसी देशों पर हमला करने वाले हैं तो साफ हो कि इसके लिये हमारी क्या सैन्य तैयारियां हैं? कूटनीतिक व रणनीतिक तरीके से हम अंतर्राष्ट्रीय समुदाय, खासकर चीन व रूस से कैसे निपटेंगे? फिर, देशवासियों को विश्वास में लिये बगैर क्या कोई भी सरकार युद्ध जीत सकती है? इसीलिये तो शासक दल विपक्षी पार्टियों को हर स्थिति से अवगत कराते हैं तथा विश्व समुदाय से बात करते हैं। क्या भारत सरकार ऐसा करेगी? अनेक सवाल हैं! असली बात यह है कि संघ ने यह मुद्दा कई बार उठाया है परन्तु उसकी अव्यवहारिकता को जानकर; एवं राजनैतिक ज़रूरतों के मद्देनज़र इसकी चर्चा ठहर जाती थी। यह मुद्दा फिर से ऐसे समय पर उठाया गया है जब भारतीय जनता पार्टी के समक्ष 2024 में पुनः सत्ता प्राप्त करने का लक्ष्य है। कश्मीर से अनुच्छेद 370 की समाप्ति, तीन तलाक, राममंदिर, गाय-गोबर आदि मुद्दों को वोटों के लिहाज से पर्याप्त निचोड़ लिया गया है। चौतरफा प्रशासकीय असफलता के बीच उसे नया मसला चाहिये ताकि 2024 की वैतरणी पार हो। लगता है कि भागवत एक बार पुनः भाजपा की मदद के लिये दौड़ पड़े हैं। अखंड भारत की कल्पना व उसकी चर्चा को एक राजनैतिक उपकरण के रूप में देखा जाना चाहिये।
सामयिकी @ डॉ. दीपक पाचपोर, सम्पर्क- 098930 28383