ममता बनर्जी: सामने है नैतिकता की परीक्षा, कुर्सी छोड़ेंगी या जमी रहेंगी?

कोलकाता 3 मई। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कॉंग्रेस को विधानसभा चुनाव में तो भारी बहुमत हासिल हो गया, लेकिन वे स्वयं नन्दीग्राम से चुनाव हार गया हैं। इसके बाद सवाल उठना लाजिमी है, कि चुनाव हारने के बाद भी ममता बनर्जी मुख्यमंत्री पद पर काबिज रहेंगी अथवा उच्च नैतिकता की मिसाल पेश करते हुए अपनी पार्टी के किसी निर्वाचित विधायक को मुख्यमंत्री बनाएंगी?

ममता बनर्जी ने अपना साथ छोड़ गए सिपहसालार शुवेन्दु अधिकारी को सबक सिखाने के लिए अपनी खुद की सीट छोड़कर नन्दीग्राम से चुनाव लड़ा। कड़ी टक्कर में उन्हें हार का सामना करना पड़ा। हालांकि उनकी पार्टी ने एक तरफा जीत दर्ज की। लोग इस बड़ी हार को दरकिनार कर ममता बनर्जी को महिमा मंडित करने में जुट गए हैं। बंगाल में बहुमत हासिल करना अपनी जगह है और नैतिकता का पाठ पढ़ाने वालों का नैतिक होना अपनी जगह। इसीलिए यह सवाल उठता है कि ममता बनर्जी मुख्यमंत्री बनती हैं या अपने दल के किसी निर्वाचित विधायक का ताजपोशी करती हैं?

जहां तक किसी गैर निर्वाचित व्यक्ति का मंत्री अथवा मुख्यमंत्री का पद धारण करने का सवाल है तो इसकी स्पष्ट व्यवस्था है। वैधानिक दृष्टि से कोई भी व्यक्ति 6 माह तक विधानसभा या विधान परिषद का सदस्य नहीं होते हुए भी पड़ धारण कर सकता है। लेकिन शर्त यह है कि 6 माह के भीतर ऐसे व्यक्ति को सदन के लिए निर्वाचित होने होगा।

उदाहरण के लिए भारत के तीन सबसे अधिक आबादी वाले राज्यों के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, योगी आदित्यनाथ और उद्धव ठाकरे, सभी अपने-अपने राज्यों की विधान परिषदों के सदस्य हैं जबकि विधान सभा का हिस्सा नहीं है। सीधे शब्दों में कहें तो वे मुख्यमंत्री बनने के लिए विधानसभा चुनाव नहीं जीते हैं। इनमें से बिहार के मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार ही एक ऐसे मुख्‍यमंत्री है जिन्‍होंने 36 साल पहले विधानसभा चुनाव लड़ा था। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने कभी आम चुनाव नहीं लड़ा है। योगी आदित्यनाथ लोकसभा चुनाव लड़ और जीत चुके हैं। पश्चिम बंगाल में विधान परिषद नहीं है। हालांकि तृणमूल कांग्रेस ने इस तरह के ढांचे को बनाने की बात कही है।

अनुच्छेद 164 कहता है, एक मंत्री जो लगातार छह महीने तक किसी राज्‍य के विधानमंडल का नहीं होता है, वह इस समय सीमा के खत्‍म होने के बाद मंत्री नहीं बन सकता। इसका मतलब है कि ममता बनर्जी के पास विधायक बनने के लिए 6 महीने का समय है। पश्चिम बंगाल में क्‍योंकि विधान परिषद नहीं है ऐसे में ममता बनर्जी को 6 महीने के अंदर किसी खाली सीट से नामांकन दाखिल करना होगा और उप-चुनाव जीतकर विधायक बनना होगा। ममता बनर्जी यही करना चाहेंगी। लेकिन स्पष्ट बहुमत के बाद भी किसी पार्टी विधायक पर भरोसा नहीं करना और खुद ही मुख्यमंत्री बने रहना, क्या उनकी महत्वाकांक्षा का परिचायक नहीं होगा? नैतिकता का तकाजा तो यही है कि ममता अब पार्टी संभालें और सत्ता की बागडोर अपनी पार्टी के किसी योग्य विधायक को सौंप दें। वरना तृणमूल कांग्रेस भी अन्य क्षेत्रीय दलों की तरह परिवार विशेष और व्यक्ति केंद्रित पार्टी बनकर रह जायेगी। यह एक बड़ा अवसर है, जब ममता बनर्जी अपने लोकतांत्रिक या अलोकतांत्रिक होने का संदेश आम जनता को देंगी। हालांकि इस दौर में सत्ता सुख छोड़ने की अपेक्षा किसी से नहीं की जा सकती।

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