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महात्मा फुले : युयुत्सु महानायक

डॉ. सुधीर सक्सेना

यूं तो वह उपेक्षित-तिरस्कृत और अंत्यज समाज में जनमे थे, अलबत्ता उन्होंने अपने क्रांतिकारी आचार-विचार से ‘महात्मा’ की उपाधि पाई। सड़ी-गली मान्यताओं, अंधविश्वासों और लांछनों को नतशिर होकर स्वीकार करने के विपरीत वह असमानता, शोषण और प्रताड़ना के खिलाफ जूझते रहे। उन्होंने अपने जीवन को अकारण नहीं जाने दिया। उन्होंने सुधार और परिवर्तन की साहसिक शुरूआत अपने घर से की और पत्नी को लिखना-पढ़ना सिखाया। उन्होंने पहली कन्या पाठशाला खोली। अस्पृश्यता के विरुद्ध मुहिम छेड़ी और पुरोहितों तथा पाखंड़ियों से लोहा लिया। उन्होंने शब्दों को हथियार बनाया और विद्रोह का शंखनाद किया।
अंत्यजों को पहलेपहल दलित की संज्ञा देने और शूद्रों के उत्थान के लिए प्राणपण से संघर्षशील इस योद्धा का नाम था ज्योतिराव गोविंदराव फुले यानी ज्योतिबा फुले। उनका जन्म 11 अप्रैल, सन् 1827 को बाम्बे प्रेसीडेंसी में पेशवाओं की नगरी पुणे में हुआ था। शूद्रों में परिगणित माली समाज में जन्म लेने के कारण वह शूद्रों की पीड़ा और मनोभावों से बखूबी परिचित थे। माली समुदाय परंपरागत तौर पर फूलों और तरकारियों को उगाने के व्यवसाय से जुड़ा हुआ था। ज्योतिबा के पुरखों के पुणे आने का वृत्तांत बड़ा रोचक है। उनके पूर्वज सातारा के समीप काटगन गांव में रहते थे। उनका कुलनाम था गोढ़े। ज्योतिबा के प्रपितामह जो गांव में छोटे दर्जे के ओहदेदार (चौघुला) थे, आजीविका के फेर में पुणे में खानवाड़ी चले आये थे। वहां उन्होंने फूलों के एख व्यवसायी की शरण ली, जिसने उन्हें कारोबार के गुर सिखाये। नये व्यवसाय ने परिवार को नया कुल नाम दिया फुले। देखते-देखते फुले-परिवार फूलों से मालाएं, गजरे, चटाइयां, आभूषण और सजावटी कलाकृतियां बनाने में इतना दक्ष हो गया कि उसकी ख्याति पेशवा तक पहुंची। फूलों के हुनर ने पेशवा का दिल जीत लिया। शाही प्रसंगों और रीति रिवाज में फुले परिवार की पूथ-परख होने लगी। पेशवा बाजीराव द्वितीय ने बतौर ईनाम फुले परिवार को 35 एकड़ जमीन बिना कर के अता की। बड़े भाई ने संपत्ति की देखभाल की जिम्मेदारी संभाली और फूलों की खेती और व्यवसाय का दायित्व छोटे भाई गोविंदराव के कांधे पड़ा। इन्हीं गोविंदराव ने चिमनाबाई से शादी की। चिमनाबाई ने दो संतानों को जन्म दिया। इनमें छोटे थे ज्योति, जिन्होंने 19वीं शती के उत्तरार्द्ध में अपने साहसिक नवाचार से बड़ा नाम कमाया।
माली-परिवार ने बतौर फुले परिवार पुणे में धन और प्रतिष्ठा तो अर्जित की, किन्तु शिक्षा से अब तक उसका वास्ता न था। बालक ज्योति भी दाखिले के बावजूद ज्यादा दिन स्कूल नहीं जा सके। उन्हें खेत और दुकान से जुड़ना पड़ा। दैवयोग से एक माली सज्जन ने गोविंदराव से गुजारिश की कि ज्योति को पढ़ने से न रोकें। फलत: वह पुन: स्कूल में प्रविष्ट हुए और उन्होंने सन् 1847 में स्थानीय स्काटिश मिशन हाईस्कूल से अंग्रेजी की शिक्षा पूरी की। गौर करें कि ज्योति की उम्र तब 20 साल हो चुकी थी। जैसा कि तब रिवाज था, तेरह साल की उम्र में उनकी शादी सावित्री नामक सजातीय कन्या से कर दी गयी, जिससे उन्हें एख संतान की प्राप्ति हुई।
ज्योतिबा के जीवन में निर्णायक मोड़ सन् 1848 में तब आया, जब वह अपने एक ब्राह्मण मित्र के विवाह में शरीक हुए। ब्राह्मण मित्र के पिता ने ज्योतिबा को उसकी जाति की याद दिलाते हुए सरेआम बुरी तरह फटकारा। इस घटना ने उन्हें घृणित जातिप्रथा के दंश का एहसास तो कराया ही, उनके जीवन की दिशा याकि कहें उनके क्रांतिकारी मिशन का स्वरूप तय कर दिया। लाख बाधाएं आईं, लेकिन वह अपने पथ से विचलित न हुए और अंततोगत्वा समाज-सुधार के नभोमंडल में ध्रुवतारे-सा प्रतिष्ठित हो गये।
सन् 1848 का ही वाकया है। इसी साल ज्योतिबा को अहमदनगर में एक कन्याशाला में जाने का मौका मिला। यह पाठशआला ईसाई मिशनरियों से परिचलित थी। घटनाएं अफना प्रभाव छोड़ रही थीं। इसी साल ज्योतिबा के हाथ एक किताब लगी। ‘राइट्स आॅफ मैन’। लेखक थॉमस पेन। थॉमस पेन अमेरिकी युद्ध में कांग्रेस के विदेशी मामलों का सचिव था। सन् 1791 में प्रकाशित इस किताब ने ज्योतिबा पर अमिट प्रभाव छोड़ा और उनके मन में सामाजिक अन्याय के खिलाफ संघर्ष की लौ जला दी।
नवाचार की आधारशिला रंग लाई। ज्योतिबा तालीम की अहमियत जान गये थे। जान गये थे कि अज्ञान ही दासता है। सबसे पहले उन्होंने अपनी जीवनसंगिनी सावित्री को लिखना-पढ़ना सिखाया। फुले युगल ने सन् 48 में ही पुणे में कन्याओं के लिए पहली स्वदेशी पाठशाला खोल दी। ज्योतिबा ने अपनी मौसेरी बहन सगुनाबाई क्षीरसागर को भी मराठी लिखना सिखा दिया। पुणे के उच्च जातियों ने इसे पसंद नहीं किया और अड़चने डालीं, लेकिन प्रगतिशील भारतीयों और योरोपियों ने फुले-दंपत्ति का साथ दिया।

हालात ऐसे बने कि फुले परिवार ने सावित्री – ज्योतिबा को घर से निष्कासित कर दिया। ऐसे में उनके मित्र उस्मान शेख ने उन्हें शरण दी और उन्हीं के अहाते में फुले का स्कूल भी खुला। उस्मान और उसकी बहन फातिमा शेख का साथ और योगदान रंग लाया। फुले दंपत्ति ने महार बच्चों की शिक्षा के लिए स्कूल खोला। सन् 1852 तक पुणे में फुले-दंपत्ति के तीन स्कूल खुल चूके थे और वहां 273 लड़कियां तालीम पा रही थी। दुर्योग से सन् 1858 आते न आते सभी शालाएं बंद हो गयीं। इसका बड़ा कारण एक तो यह था कि सन् 1857 की क्रांति के फलस्वरूप योरोपियों से वित्तीय सहायता बंद हो गई थी। सरकारी इमदाद भी रूक गयी थी और तीसरा कारण कि पाठ्यक्रम पर मतभेदों के चलते ज्योतिबा ने स्कूलों के प्रबंधन से राजीनामा (इस्तीफा) दे दिया था। यह वह काल था, जब अंचल अपनाना सहने को बाध्य थे। उन्हें कमर से झाड़ू बांधकर चलना पड़ता था। उनकी बेटियां-बहनें जलसों में निर्वस्त्र नाचने को बाध्य थीं। विधवाओं को सिर मुड़ाकर रहना पड़ता था और उन्हें मांगलिक कार्यों से दूर रहना पड़ता था। बाल विवाह जोरों पर था। पुणे में विश्रामबाग वाड़ा में कन्या शाला खोलने के उपरांत ज्योतिबा ने अनेक कदम उठाये। उन्होंने विधवाओं के पुनर्विवाह की हिमायत की। सन् 1863 में उन्होंने विधवा महिलाओं की प्रसूति के लिए केन्द्र खोला। नवजात-मृत्यु की रोकथाम के लिए उन्होंने अनाथालय की स्थापना की। इसके पीछे काश्ीबाई नामक विधवा ब्राह्मणी की अपने संतान की हत्या और उसे दंड़ित किए जाने के मार्मिक प्रसंग का हाथ था। ज्योतिबा ने अपने घनिष्ट मित्र सदाशिव गोवंडे और पत्नी सावित्री के सहयोग से प्रसुति केन्द्र खोलकर साहसिक उदाहरण प्रस्तुत किया। उनकी ओर से पुणे में दीवारों पर पर्चे चिपकाये गये, जिसमें लोगों से हृदयस्पर्शी अपील थी। यह केन्द्र नवें दशक के मध्य तक जीवित रहा। शोषित, वंचित जनों के लिए उन्होंने अपने घर के द्वार खोल दिये। अस्पृश्य जन वहां आकर उनके कुयें से निस्संकोच पानी पानी भर सकते थे।
ज्योतिबा वर्ण-व्यवस्था या जातिप्रथा के घोर विरोधी थे। उनकी मान्यता थी कि बाहर से आये आक्रामक आर्यों ने स्थानीय समुदाय पर पाबंदियां और वर्जनाएं लाद दीं। अपनी बहुचर्चित कृति ‘गुलामगिरी’ में उन्होंने ईसाई मिशनरियों और ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के प्रति इस नाते कृतज्ञता ज्ञापित की कि उनके कारण शेषित जातियों को एहसास हुआ कि वे भी मानवीय अधिकारों की पात्रता रखते हैं। उनके मुताबिक विष्णु के अवतार आर्यों की विजय गाथा के प्रतीक है। राजो बालि उनके तईं नायक था। उन्होंने वेदों के विरुद्ध भी मत व्यक्त किया। शूद्रों के लिए दलित संज्ञा का उफयोग करने का श्रेय ज्योतिबा को जाता है।
सन् 1882 में एख श्ैक्षिक आयोग के सम्मुख गवाही में ज्योतिबा ने शओषितों के बच्चों के लिए शिक्षा में मदद की गुहार की और कहा कि हाईस्कूलों और कॉलेजों में इन बच्चों को ‘प्रोत्साहन’ दिया जाना चाहिए। उन्होंने गांवों में प्राथमिक शिक्षा की अनिवार्यता की भी मांग की। जातीय समानता, दलित उत्थान, अंधविश्वास और भेदभाव उन्मूलन और खुशहाली के लिए उन्होंने सितंबर, सन् 1874 को सत्यशओधक समाज की स्थापना की। उन्होंने पुरोहितों के खिलाफ निर्भीकतापूर्वक आवाज उठाई। पुणे से प्रकाशित मराठी पत्र ‘दीनबंधु’ समाज का प्रवक्ता बनकर उभरा। अनेक ब्राह्मण, मुसलमान और सरकारी अफसर समाज के सदस्य बने।
ज्योतिबा फुले ने अपने जीवन में व्यापारी, कृषक और ठेकेदारी की भूमिका भी निभाई। मूला-मूठा नदी पर बांध, कूटराज टनल और यरवदा जेल के निर्माण में उनकी दिलचस्प भूमिकाएं रहीं। सन् 1873-86 में वह पुणे म्यूनिस्पैल्टी के मनोनीत कमिश्नर रहे। उनके अभंग तथा अनेक गद्य कृतियां हमारी थाती हैं। 11 मई सन् 1888 को बंबई के ख्यातनाम सुधारक विठ्ठलराव कृष्णाजी वाडेकर ने उन्हें ‘महात्मा’ की उपाधि से विभूषित किया। उनकी अनेक जीवनियां लिखी गईं। धनंजय कीर ने उन्हें ‘फादर आॅफ सोशल रिवल्यूशन’ कहकर पुकारा। डॉ. बीआर अंबेडकर ने उन्हें अपना गुरू माना। उनका देहांत 28 नवंबर, सन् 1890 को पुणे में हुआ। देश में अनेक स्थानों पर उनकी प्रतिमाएं हैं और अनेक संस्थानों का नामकरण उनके नाम पर हुआ। उन पर फिल्म भी बनी। भारत में समाज-सुधार की गाथा महात्मा फुले के जिक्र के बगैर अधूरी है।

( डॉ. सुधीर सक्सेना देश की बहुचर्चित मासिक पत्रिका ” दुनिया इन दिनों” के सम्पादक, देश के विख्यात पत्रकार और हिन्दी के लोकप्रिय कवि, लेखक- साहित्यकार हैं। )

@ डॉ. सुधीर सक्सेना, सम्पर्क- 09711123909

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