नील्स बोर
परमाणु को समर्पित वैज्ञानिक

डॉ. सुधीर सक्सेना

आज से ऐन सौ साल पहले एक नाम दुनियाभर में छा गया था। यह नाम था नील्स बोर का। पूरा नाम नील्स हेनरिक डेविड बोर। जन्म 7 अक्टूबर, सन् 1885 को डेन्मार्क में कोपेनहेगेन में। मां एलेन एडलर और पिता क्रिश्चियन बोर। नाना समृद्ध बैंकर और राजनीतिज्ञ थे और दादा शिक्षक। पिता भी दादा के नक्शे-पा चले और कोपेनहेगेन में ही शरीर विज्ञान के प्रोफेसर हो गये। कला, विज्ञान और दर्शन में उनकी गहरी अभिरुचि थी। उनके वैज्ञानिक आलेख सराहे जाते थे। वह विचारों से उन्मुक्त और प्रगतिशील थे, धर्म के मामले में संशयवादी और स्त्रियों को लेकर प्रगतिशील। उनके सरोकारों का दायरा बड़ा था। खेलों में उनका मन रमता था। अपने देश में फुटबॉल को लोकप्रिय बनाने में उन्होंने उळ्लेखनीय भूमिका निभायी। उनकी मान्यता थी कि बच्चों के व्यक्तित्व का स्वतंत्र विकास हो। वे चाहते थे कि बच्चे अपनी पसंद का संकाय स्वयं चुने, ताकि सर्वोत्तम योगदान दे सकें। 19वीं सदी के अवसान काल के मान से ये बातें मायने रखती थीं। बहरहाल, ऐसे ही सुसंस्कृत, प्रेरणाप्रद और उन्मुक्त वातावरण में नील्स पढ़े-बढ़े और उन्होंने विज्ञान को समृद्ध करने के साथ-साथ बड़ी संख्या में लोगों को विज्ञान की ओर आकृष्ट किया। उनके मानवतावादी दृष्टिकोण ने उनके व्यक्तित्व को अलग छवि दी। यह उनके व्यक्तित्व का चुंबकीय आकर्षण ही था कि दुनिया के भौतिकी के सर्वश्रेष्ठ छात्र उनकी ओर खिंचे चले आते थे। महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने उन्हें खत में लिखा : जीवन में बिरले ही अवसरों पर किसी व्यक्ति की उपस्थिति मात्र से मुझे इथना आनंद मिला है, जितना कि आपकी मौजूदगी ने दिया है।’’ अन्यत्र उनके बारे में आइंस्टीन ने टिप्पणी की : ‘‘वह (बोर) अपनी राय किसी निश्चित सत्य के स्वामी की तरह नहीं, बल्कि ऐसे जाहिर करते थे, मानो कोई निरंतर कुछ टटोल रहा है।’’ नील्स बोर के बहाने क्या यह किसी भी अडिग और जिद्दी सत्यान्वेषी के बारे में कहा गया ‘सच’ नहीं है?

तीन भाई-बहनों में नील्स मंझले थे। बड़ी बहन जेनी ने अध्यापन को करियर बनाया। वह इतिहास और डेनिश भाषा की अध्यापिका बनी। छोटा भाई हेराल्ड विख्यात गणितज्ञ बना। नील्स और हेराल्ड आजीवन घनिष्ठ मित्रवत रहे। बोर-बंधुओं ने गैमेलहोल्म ग्रामर स्कूल में शिक्षा प्राप्त की। कक्षा के मेधावी छात्रों में वे गिने जाते रहे। सन् 1903 में नील्स और फिर हेराल्ड ने भी कोपेनहेगेन यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया। इन्हीं दिनों कविताओं में उनकी गहरी रुचि जग गयी। अनेक डेनिश और जर्मन कविताएं उनकी जुबान पर थीं। नील्स और हेराल्ड ने पिता के मित्र हैराल्ड हाफडिंग से फिलॉस्फी पढ़ी। नील्स सोरेन आबाई कीर्वेगार्द (1813-1855) की कृतियों में डूब गये। दोनों भाइयों ने एक विमर्श समूह भी गठित किया। डेनिश कथाकार पॉल मार्टिन मॉलर की पुस्तक टेल आॅफ ए डेनिश स्टूडेंट ने उन्हें गहरे प्रभावित किया। बाद में उनके जीवन पर क्रिश्चियन क्रिश्चियसेन, लॉर्ड रदरफोर्ड और जेजे थॉमसन ने पर गहरा प्रभाव डाला। इन सबने मिलकर ऐसे अनूठे व्यक्तित्व का निर्माण किया, जो परमाणु से जुड़े विज्ञान का पर्याय हो गया।

नील्स बोर के व्यक्तित्व को रचने में दो और बातों का अहम योगदान रहा। प्रथम मानवतावादी दृष्टिकोण और दूसरा उनका यहूदी होना। उन्होंने अपना जीवन सैद्धांतिक भौतिकी को समर्पित कर दिया। वे आजीवन परमाणु संरचना को जानने में जुटे रहे और अपनी खोज में सफल हुए। क्वांटम-थ्योरी उनका प्रस्थान बिंदु या आधार रही। इसकी सहायता से उन्होंने परमाणु संरचना की रूपरेखा प्रस्तुत की। इसके परिष्कृत रूप से तत्वों के भौतिक और रसायनिक गुणों की सटीक व्याख्या आज तक होती आ रही है। बोर मॉडेल, बोर रेडियस, बोर-मैग्नेटोन आदि की महत्ता विज्ञान के विद्यार्थी और अध्येता बखूबी जानते हैं। उन्होंने अंतिम सांस तक काम किया। मृत्यु से पहले की रात वे निष्क्रिय या शांत न थे। बताते हैं कि वह आइंस्टीन के सिद्धांतों की काट के लिए ब्लैकबोर्ड पर चित्र बना रहे थे। यह चित्र आज भी वैसे ही सुरक्षित है। नील्स बोर का वैज्ञानिक-जीवन उन्नीस वर्ष की वय से शुरू होता है। सन् 1905 में रॉयल डेनिश एकेडमी आॅफ साइंसेज ने एक पुरस्कार प्रतियोगिता का आयोजन किया। विषय था तल तनाव। पिता ने हौसला बढ़ाया और प्रयोगशाला में उपलब्ध सुविधाएं सुलभ कर दीं। बोर ने प्रयोगों के आधार पर लेख तैयार किया। लेख में उन्होंने लार्ड रेले (सन् 1842-1919) की मान्यता पर कुछ सवाल उठाये। बोर भी अनेक विजेताओं में एक रहे। जेट-कंपन से जल के तल तनाव (श्यानता) के निर्धारण पर सन् 1909 में उनका एक लेख ब्रिटिश रॉयल सोसायटी की पत्रिका ‘फिलासोफिकल ट्रांजेक्शन’ में छपा और चर्चित रहा।

नील्स बोर सन् 1907 में कोपेनहेगेन विश्वविद्यालय से स्नातक हुए। सन् 1909 में उन्होंने पीजी किया और सन् 1911 में डॉक्टरेट। धातुओं के इलेक्ट्रॉन सिद्धांत पर आधारित अपना शोध उन्होंने 13 मई, 1911 को कुछ माह पूर्व दिवंगत अपने पिता को समर्पित किया। उनके शोध पर एक डेनिश-पत्र ने टिप्पणी की ‘‘…उन्होंने जो शब्द लिखे और जो सवाल उठाए, वे इतने नवीन और असामान्य थे कि उन पर सवाल उठाने में कोई सक्षम नहीं था।’’ दिलचस्प बात है कि बोर भाषा में कभी दक्षता हासिल नहीं कर सके। वह अपनी पत्नी मार्गरेथ, सचिव और सहकर्मियों को ‘डिक्टेट’ कर लिखना पसंद करते थे। प्रारूप में समय लगता था। सात-आठ मसौदे तैयार करना सामान्य बात थी। वैज्ञानिकों के वे पसंदीदा वैज्ञानिक रहे। हेंस क्रैमर, आॅस्कर क्लीन, जार्ज डि हैवसी, वर्नर हाइजेनबर्ग आदि के साथ उन्होंने काम किया। वोल्फगैग, पाउली, पाल डिराक, लीस मीटनर, मैक्स डेलब्रुक, कारेन बराऊ आदि को प्रभावित किया। लेव लंडाऊ, हेन्ड्रिक क्रेमर्स और आईएच उस्मानी उनके छात्र रहे।

पिता का पुत्र के प्रति अनुरागजन्य कार्य देखिए कि वे मृत्युपूर्व व्यवस्था कर गये थे कि पुत्र को स्नातकोत्तर अध्ययन के लिए कार्ल्स बर्ग ब्रुअरी से अनुदान मिल जाए। ब्रुअरी से ग्रांट के सहारे नील्स सितंबर, 1911 में कैंब्रिज पहुंच गये। वहां उन्हें इलेक्ट्रॉन के खोजी विख्यात वैज्ञानिक और कैवेंडिश प्रयोगशाला के निदेशक डोसेफ जॉन थॉमसन (1856-1940) के मार्गदर्शन में काम करना था। 16 साल पहले अर्नेस्ट रदरफोर्ड भी थॉमसन के अधीन काम करने वहां आये थे। बहरहाल, थॉमसन नील्स से प्रभावित हुए। यद्यपि पहली मुलाकात में ही नील्स ने उनकी सन् 1898 में प्रस्तुत परमाणु की आलूबुखारे की पुडिंग जैसी संरचना पर आपत्ति दर्ज की। आगे बातचीत के लिए प्रौढ़ थॉमसन ने युवा नील्स को रविवार को ट्रिनिटी कॉलेज में भोज पर आमंत्रित किया। थॉमसन की सलाह पर नील्स ने कैथोड किरणों के उत्पादन पर कार्य शुरू किया, लेकिन उनकी रुचि रेडियोधर्मिता में थी। बोर ने मैनचेस्टर में कार्यरत रदरफोर्ड से संपर्क किया। रदरफोर्ड की सलाह पर नील्स कैवेंडिश लैब में काम पूरा कर थॉमसन की अनुमति से मैनचेस्टर चले आये।

बोर मार्च, सन् 1912 में मैनचेस्टर आए, जहां रदरफोर्ड के नेतृत्व में भौतिकी की प्रयोगशाला विश्व की उर्वरतम लैब के रूप में विकसित हो रही थी। वहां बोर को अनुकूल वातावरण मिला। चार्ल्स वान हैवेसी के विशद रसायन मान से बोर बड़े लाभान्वित हुए। नाभिकीय भौतिकी के अग्रदूत हैंस विल्हेम ग्रेगर (1882-1945) से भी उन्होंने प्रशिक्षण लिया। डॉक्टरेट के बाद जुलाई 1912 में बोर जेन्मार्क लौट आये। वहां उनके लिए उपयुक्त पद न था। उन्हें कोपेनहेगेन विश्वविद्यालय में सहायक शिक्षक पद से संतोष करना पड़ा। उनकी जिज्ञासा थी कि क्वांटम सिद्धांत का उपयोग परमाणु संरचना के लिए कैसे किया जा सकता है। सन् 1913 में उनके इस विषय पर तीन लेख प्रकाशित हुए। इनमें लॉर्ड रदरफोर्ड ने किंचित सुधार किया। इन लेखों ने भौतिकी पर दूरगामी प्रभाव डाला। बोर ने परमाणु का न केवल मॉडेल प्रस्तुत किया था, बल्कि दर्शाया था कि क्वांटम यांत्रिकी प्रकृति की कार्यप्रणाली का आधारभूत अंग है। सन् 1914 में बोर सैद्धांतिक भौतिकी के प्रोफेसर नियुक्त हुए, लेकिन रदरफोर्ड के आग्रह पर वे मैनचेस्टर में रीडर पद पर काम करने चले गए। लौटने पर उन्होंने कोपेनहेगेन में सैद्धांतिक भौतिकी संस्थान की स्थापना का प्रस्ताव रखा। यह प्रस्ताव प्रथम विश्वयुद्ध के खात्मे के बाद स्वीकृत हुआ। बोर ने संस्थान भवन के लिए 20 हजार डॉलर जुटाये। तभी उन्हें फिर रदरफोर्ड का आॅफर मिला। रदरफोर्ड चाहते थे कि बोर मैनचेस्टर में गणितीय भौतिकी के प्रोफेसर हो जाएं। वे बोर के साथ मिलकर विज्ञान में ‘अपूर्व योगदान’ को व्यग्र थे, किन्तु राष्ट्रप्रेम की रौ में बोर ने विनम्रतापूर्वक इंकार कर दिया। सितंबर, 1921 में संस्थान का उद्घाटन हुआ। बोर निदेशक बने। आजीवन पद पर रहे। संस्थान में ऊपरी मंजिल पर रहते हुए उसे जैसा कि सुबोध महंती कहते हैं कि उन्होंने सैद्धांतिक भौतिकी के क्षेत्र में अंतिम मंजिल बना दिया। इसके पूर्व वह सन् 1916 में सादृश्यता सिद्धांत प्रस्तुत कर चुके थे। सन् 1927 में उन्होंने पूरकता सिद्धांत प्रस्तुत किया। तदंतर उन्होंने रेडियोधर्मी विस्थापन के नियमों को सूत्रबद्ध कर दिखाया। सन् 1936 में उन्होंने परमाणु नाभिक के ‘द्रवबूंद मॉडेल’ की परिकल्पना प्रस्तुत की। सन् 1939 में इसी आधार पर जॉन हक्लर के सहयोग से नाभिकीय विखंडन का पहला सैद्धांतिक विवरण सामने आया। उन्होंने ही सर्वप्रथम यूरेनियम 238 के बजाय दुर्लभ समस्थानिक यूरेनियम 235 के नाभिकीय विखंडन की संभावना व्यक्त की।

द्वितीय विश्वयुद्ध के दरम्यान यहूदी होने से बोर देश छोड़ने को बाध्य हुए। वे लास अलमोस (अमेरिका) चले गये। वहां उनका बेटा भी कनिष्ठ वैज्ञानिक अधिकारी था। नील्स ने परमाणु बम परियोजना में सलाहकार का दायित्व निभाया। युद्ध समाप्ति के बाद उनका अधिकांश वक्त नाभिकीय अस्त्रों पर नियंत्रण हेतु वैज्ञानिकों से संपर्क-संवाद में बीता। उन्होंने सरोकारों के तहत सन् 1955 में जेनेवा में पहली एटम फॉर पीस कांफ्रेंस आयोजित की। भारतीय विज्ञान कांग्रेस के न्यौते पर सन् 1960 में वे भारत आए। उन्होंने मुंबई में कांग्रेस के सत्र में भाग लिया। क्वांटम भौतिकी और मानवीय ज्ञान तथा परमाणु पर व्याख्यान दिये। वे कलकत्ता, मद्रास, आगरा और दिल्ली भी गये। पं. जवाहरलाल नेहरू इस यात्रा में उनके साथ रहे।

सन् 1922 में परमाणु संरचना के लिए नोबेल पुरस्कार से नवाजे गये नील्स बोर ने 18 नवंबर, 1962 को आंखें मूंद लीं। ‘न्यूयार्क टाइम्स’ ने लिखा-‘‘नील्स बोर के निधन से विश्व ने इस सदी के एक महान वैज्ञानिक को ही नहीं, बल्कि सार्वकालिक महत्ता के एक दिग्गज बुद्धिजीवी को भी खो दिया है।’’

( डॉ. सुधीर सक्सेना देश की बहुचर्चित मासिक पत्रिका ” दुनिया इन दिनों” के सम्पादक, देश के विख्यात पत्रकार और हिन्दी के लोकप्रिय कवि- साहित्यकार हैं। )

@ डॉ. सुधीर सक्सेना, सम्पर्क- 09711123909

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