प्राचीन ग्रन्थों में भारत महिमा

उत्तरं यत् समुद्रस्य, हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।
वर्षं तद्भारतं नाम, भारती यत्र सन्ततिः॥
(ब्रह्मपुराण, अध्याय १९, श्लोक – ०१)

जो समुद्र से उत्तर दिशा, एवं हिमालय से दक्षिण दिशा की ओर स्थित है, उस वर्ष का नाम भारतवर्ष है, जहां की प्रजा भारती(य) कहलाती है।

अतः सम्प्राप्यते स्वर्गो मुक्तिमस्मात् प्रयाति वै।
तिर्य्यत्वं नरकं चापि यान्त्यतः पुरुषा द्विजाः॥
इतः स्वर्गश्च मोक्षश्च मध्यं चान्ते च गच्छति।
न खल्वन्यत्र मर्त्त्यानां कर्म्मभूमौ विधीयते॥
(ब्रह्मपुराण, अध्याय – १९, श्लोक – ०४-०५)

इसी (भारत) से व्यक्ति स्वर्ग जाता है, यहीं के मोक्ष के लिए प्रस्थान करता है, पशु पक्षी आदि की योनि में भी यहीं से जाता है एवं इसे ही कर्मभूमि निर्धारित किया गया है, इसके अतिरिक्त कहीं अन्यत्र यह बात नहीं है।

अत्रापि भारतं श्रेष्ठं जम्बूद्वीपे महामुने।
यतो हि कर्म्मभूरेषा यतोऽन्या भोगभूमयः॥
अत्र जन्मसहस्राणां सहस्रैरपि सत्तम।
कदाचिल्लभते जन्तुर्मानुष्यं पुण्यसंचयात्॥
(ब्रह्मपुराण, अध्याय – १९, श्लोक – २३-२४)

इस पूरे जम्बूद्वीप में भारतवर्ष अत्यंत श्रेष्ठ है, क्योंकि यह कर्मभूमि है, जबकि अन्य सभी भोगभूमि हैं। हज़ारों जन्मों के पुण्य जब संचित होते हैं तब किसी किसी को यहां मनुष्य योनि में जन्म मिलता है।

क्षारोदधेरुत्तरं यद्धिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।
ज्ञेयं तद्भारतं वर्षं सर्वकर्मफलप्रदम्॥
अत्र कर्माणि कुर्वन्ति त्रिविधानि तु नारद।
तत्फलं भुज्यते चैव भोगभूमिष्वनुक्रमात्॥
भारते तु कृतं कर्म शुभं वाशुभमेव च।
तत्फलं क्षयि विप्रेन्द्र भुज्यतेऽन्यत्रजन्तुभिः॥
अद्यापि देवा इच्छन्ति जन्म भारतभूतले।
संचितं सुमहत्पुण्यमक्षय्यममलं शुभम्॥
कदा लभामहे जन्म वर्षभारतभूमिषु।
कदा पुण्येन महता यास्याम परमं पदम्॥
(नारद पुराण, पूर्वभाग, प्रथमपाद, अध्याय – ०३, श्लोक – ४६-५०)

खारे समुद्र से उत्तर एवं बर्फ के पर्वत (हिमालय) से दक्षिण के भूभाग को सभी कामनाओं की पूर्ति करने वाला भारतवर्ष जानना चाहिए। हे नारद ! यहां तीन प्रकार के (उत्तम, मध्यम, अधम) कर्मों को करने के बाद उसके फल को अन्य भोगभूमि में क्रमशः भोगा जाता है। भारत में किया गया शुभ अथवा अशुभ कर्म प्राणियों के द्वारा अन्यत्र (स्वर्ग-नरक आदि सूक्ष्म लोकों में, पुष्कर- शाल्मलि आदि सूक्ष्म द्वीपों में अथवा म्लेच्छ देशों में) भोगा जाता है। आज भी देवतागण इस भारतभूमि में जन्म लेने के लिए, महान् निर्मल अक्षय पुण्य के सञ्चय हेतु इच्छा करते हैं। वे कहते हैं – “वह दिन कब आएगा, जब हम भारतभूमि में जन्म लेंगे और कब महान् पुण्यबल से परमपद (मोक्ष) को प्राप्त करेंगे !!

ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्या मध्ये शूद्राश्च भागशः।
इज्यायुतवणिज्यादि वर्तयन्तो व्यवस्थिताः॥
तेषां सव्यवहारोऽयं वर्तनन्तु परस्परम्।
धर्मार्थकामसंयुक्तो वर्णानान्तु स्वकर्मसु॥
(मत्स्यपुराण, अध्याय – ११४, श्लोक – १२-१३)

(इस भारत में) विभागपूर्वक ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं उनके मध्य में शूद्रों का वास है जो यज्ञ, रक्षा, व्यापार आदि के माध्यम से व्यवस्थित हैं। वे सभी आपस में अच्छा व्यवहार करते हुए अपने अपने वर्णानुसार कर्म करते हुए, धर्म-अर्थ-काम में लगे रहते हैं।

भारते तु स्त्रियः पुंसो नानावर्णाः प्रकीर्तिताः।
नानादेवार्चने युक्ता नानाकर्माणि कुर्वते॥
परमायुः स्मृतं तेषां शतं वर्षाणि सुव्रताः।
(कूर्मपुराण, पूर्वभाग, अध्याय – ४७, श्लोक – २१)

भारत में (ब्राह्मणादि) अलग अलग वर्णों वाले स्त्री-पुरुष रहते हैं जो विभिन्न देवताओं के पूजन और विभिन्न आजीविका वाले कर्मों को करते हैं। उनकी परमायु सौ वर्षों की बताई गई है।
(यदि यहां वर्ण का अर्थ शारीरिक रंग से लें, तो भी देखते हैं कि भारत में गोरे, काले, और सांवले, तीनों रंग के लोग बहुतायत से हैं)

शुभानामशुभानां च कर्मणां जन्म भारते।
पुण्यक्षेत्रेऽत्र सर्वत्र नान्यत्र भुञ्जते जनाः॥
(ब्रह्मवैवर्त पुराण, प्रकृतिखण्ड, अध्याय – २६, श्लोक – १५)

(अत्यंत प्रबल) शुभाशुभ कर्मों के फलस्वरूप भारत में यदि जन्म मिले तो इस पुण्यक्षेत्र में ही उसका फल भोगना होता है, अन्यत्र नहीं। (सामान्य के लिए म्लेच्छ भूमि में जन्म मिलता है और वहीं भोगते हैं, किन्तु अत्यंत तीव्र प्रारब्ध के पाप-पुण्य भारत में ही क्षीण किये जाते हैं)

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