स्मृति@ विजेन्द्र
पगडंडी
मैं जहाँ तक चला हूँ
वहीं तक
मेरी पगडण्डी है
उसके आगे फिर —
पथरीली कँकरीली धरती है
और घने वन
गूँजते थर्राते ढलान
वहाँ अभी कोई पथ नहीं
न कोई पगडण्डी
वहाँ सबसे पहले जो जाएगा
वही होगा मेरा कवि ।
मैं अपनी पगडण्डी
अलग भले न बनाऊँ
पर जो दूसरों ने
मुझसे पहले बडे आघात सहकर बनाई हैं
उन्हें धुँधलाऊँ नहीं
उन्हें विकृत न होने दूँ
पशुओं के पैने खुर —
जिन आभामय अँकुरों को खूँदकर गए
उन्हें उगा नहीं सकते —
पहली पगडण्डी पर चलकर
आगे अपनी बनाना ही —
कविता है।
डरो मत…
मैं हर बार
बनी-बनाई पगडण्डियों से
चलकर ही
नयी पगडण्डियॉं बनाता हूँ —
पिता की पगडण्डी पर भले ही मैं न चलूँ
पर अपने लिए
बेहतर और ऐश्वर्यवान पगडण्डी तो बनाऊँ
पर उनका क्या
जिन्हें —
आगे-आगे बनी पगडण्डियाँ
दिखाई नहीं देतीं !
कल्पित जी को एफबी वाल से महान कवि, आलोचक, चित्रकार, संपादक व शिक्षाविद विजेन्द्रजी के अवसान की सूचना मिली तो हतप्रभ रह गया। अस्वस्थता की जानकारी तो थी पर, यों अकस्मात चले जाएँगे, ऐसी उम्मीद नहीं थी। उनके जयपुर निवास के दौरान न जाने कितनी ही बार उनसे मिलना हुआ। उनके प्रति मेरे अगाध आदर के चलते जब कभी भी मैं उनके समक्ष अधो-आसन पर बैठना चाहता तो उन्होंने मुझे कभी अधो-आसन पर बैठने नहीं दिया और अपने समीप ही बैठाया। समय-समय पर उनके द्वारा संपादित पत्रिका ‘ओर’ (कृति ओर) में मेरी कविताएं भी प्रकाशित की। मुझे स्मरण है कि ‘अलाव’ में जब मेरी कविता प्रकाशित हुई तो उन्होंने ही मुझे सूचित किया था तथा पत्रिका की प्रति उपलब्ध करवाई थी।
उनके कविता संग्रह ‘ऋतु का पहला फूल’ पर बिहारी पुरस्कार मिला तो उन्होंने सम्मान समारोह किसी भव्य ऑडिटोरियम में करवाने की बजाय गोपाल बाड़ी स्थित रोटरी क्लब सभा भवन में आयोजित करवाना पसंद किया था। वे किसी ताम-झाम व दिखावे के समर्थक नहीं थे। इसी अवसर पर उन्होंने पत्रकारों को साक्षात्कार देने से मना कर दिया किंतु उन्होंने मेरे इस अनुनय को स्वीकार कर मुझे गौरवान्वित किया। यह साक्षात्कार कई दैनिक समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ (नीचे चित्र)
उनके जयपुर निवास के आखिरी दिनों में वे बहुत व्यथित थे। गाज़ियाबाद जाने का उनका बिल्कुल भी मन नहीं था। उनकी इस व्यग्रता पर केंद्रित मैंने एक कविता भी लिखी जो मेरे कविता संग्रह ‘रंग अब वो रंग नहीं’ में भी शामिल है।
वे मूलतः अंग्रेजी साहित्य के प्रोफेसर थे तथा हिन्दी साहित्य की विभिन्न विधाओं- कविता, आलोचना, निबंध, संस्मरण आदि के समर्थ रचनाकार रहे। जाते समय उन्होंने मुझे पुस्तक ‘आधी रात के रंग’ पढ़ने को दी। इस पुस्तक में चित्र, चित्राधारित कविता और उस कविता का अंग्रेजी रूपांतरण संकलित है।
मेरे मानस गुरु कवि विजेंद्र की जो मैं स्मृतियाँ सहेज पाया हूँ, वे यहाँ छवि रूप मे प्रस्तुत हैं। शत शत नमन ! विजय सिंह, जगदलपुर
मानस गुरू
कितना रोया था
उनका मन
जब छोड़नी पड़ी थी उन्हें
झारखंड शिव मन्दिर की
शरण में बसी
अभिजात्य कालोनी
‘वैशाली नगर’
कितनी आत्मीयता थी उनकी
‘सी’ ब्लाक में
अपने खून-पसीने से बनाए
एक सौ तेतीसवें घर से
तपोभूमि थी यह
एक तपस्वी की
इसी मकान की पहली मंजिल पर
बनाई थी उसने यज्ञशाला
जहां महका करती थी
साहित्य के अजस्र कुण्ड में
उस होता द्वारा दी गई
कविता, आलोचना, संस्मरण, कहानियां
और अनेकानेक साहित्यिक विधाओं की
बहुआयामी आहूतियों की गंध
एक निर्मलहृदय, आडम्बर से परे
सृजनरत निर्मोही सन्त
निवास करता था वहां
जिसने दिखाई थी रोशनी की ‘लौ’
अज्ञानता की कन्दरा में फंसे
मुझ अकिंचन को
सोचता हूं
उनकी उम्र के हाथ अब
लगे होंगे कांपने
किन्तु, हृदय अभी भी होगा उनका
तरल और कठोरता का संगम
सन्नाटों में भले ही गुम हो गए हों
हमारे उपनिषद् व पारस्परिक संवाद
किन्तु, फिर भी मेरे मन के आश्रम में
आज भी गूंज रहे हैं
उनके द्वारा गाई गईं
वैदिक ऋचाओं के स्वर
जब भी मुझे मिलता था
उनका सारस्वत सान्निध्य
तब मेरे कान, मन और हृदय ही
हुआ करते थे मेरी दैहिक इन्द्रियों में मौजूद
वाणी, नेत्र, मस्तिष्क आदि इन्द्रियां
वहां नहीं होती थीं
मेरे साथ
जब मैं होता था उनके समक्ष
वरण कर चुका था मैं
उन्हें अपना मानस-गुरू
पूजता रहा हूं आज तक
किन्तु, नहीं कर पाया हूं व्यक्त
पता नहीं
कैसे रोक पाया हूं मैं अब तक
भीतर ही भीतर मच रही
इस अव्यक्त हल-चल को
जो अव्यक्त ही रही है आजतक
000
/ (मेरे मानस-गुरू कविवर विजेन्द्र के लिए)
-भानु भारवि