प्रस्तुति- सतीश कुमार सिंह

गज़ल

रगों में चीखते नारे लहू-सा चलते हैं
मिरे जिगर में हज़ारों जुलूस पलते हैं।

सदी की आग का अंदाज़ा क्या लगाओगे
फ़क़त ये जिस्म नहीं साये भी पिघलते हैं।

बहार भी न गुलों को खिला सके शायद
यहां दरख़्त फ़ज़ा में धुआं उगलते हैं।

कोई नहीं है नया कुछ भी सोचने वाला
यहां ढले हुए सांचे में लोग ढलते हैं।

पता न था कि ज़माने का रंग यूँ होगा
हमारे खून के रिश्ते भी अब बदलते हैं।

सितमगरों की सियासत ठठा के हंसती है
घरों से ख़ौफ़ज़दा लोग जब निकलते हैं।

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दर्द सहकर मुस्कुराने के ज़माने आ गये
दिल को अपने आज़माने के ज़माने आ गये।

फिर बंधेंगे आशिक़ों के सर पे साफे सुर्ख़गूं
इश्क़ में फिर जां लुटाने के ज़माने आ गये।

टूटने वाली हैं दरवाज़े की सारी बंदिशें
उनको अपने घर बुलाने के ज़माने आ गये।

घर से लेकर मंडियों तक है खरीदारों की भीड़
खुद को बिकने से बचाने के ज़माने आ गये।

अब न गीली मिट्टियों से तू कोई फरियाद कर
पत्थरों पर गुल खिलाने के ज़माने आ गये।

क्या करेंगे क्या नहीं ये पंछियों के क़ाफ़िले
आसमां के थरथराने के ज़माने आ गये।

मुंह न खोलो साथियों ख़ामोश रहकर सब कहो
आग आंखों से लगाने के ज़माने आ गये।

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