@ सतीश कुमार सिंह
मई दिवस पर ••
उन हाथों के फफोलों को
चूमने का दिन है साथी
जिन हाथों ने
श्रम के गीतों की कड़ियां उठाईं
अधनंगे और भूखे पेट रहकर
वे गाते गाते नहीं थके
रोपा लगाते गाते
नाव चलाते गाते
भार ढोते सड़कों पर गाते
वे कहाँ नहीं गाते
ले •• ले•• लाला ,
जोर लगा के
हइया रे हइया ••••
हो मोरे भैया •••
उनके इस गाने से ही तो
मिट्टी की रंगत बदलती है
कलेजे की आँच से
पिघलता है लोहा
पर उनका सोना
कोई और ले जाता है
बाजार तक ?
हमने कल्पनाओं में जन्म दिये
कितने स्वर्ग अपवर्ग
पर बिना उफ किये
यथार्थ की पथरीली जमीन पर
वे चलाते रहे हथौड़ा
नतशीश हो खोदते रहे कोयला
राख होते हुए
रात – रात दिन – दिन
उन गर्म राखों से
कभी कभी फूटती चिंगारियाँ
मेहनतकश इंसान की
चटक आवाज है
जिसे सुनकर भी अनसुना करते रहे
वातानुकूलित कक्ष में
सिगार के छल्ले उड़ाने में मशगूल लोग
उन आँखों में हम बहुत गिर चुके
उन आँखों में आज
उतरने का दिन है साथी
जिनके पसीनों की बूंदों
खून और आँसुओं से तर
कब से यह जमीन है साथी