‘कालापानी’ की मौक्तिक – प्रतिभा @ डॉ. सुधीर सक्सेना

‘कालापानी’ की मौक्तिक – प्रतिभा
• डॉ. सुधीर सक्सेना
कालापानी यानि भारतीय उपमहाद्वीप का हिन्दमहासागरीय द्वीप समूह। एक दो टापू नहीं, अपितु द्वीपों की लंबी लड़ी। जल के अछोर विस्तार में पार्थिव द्वीपों की खूबसूरत झालर। दुनिया जिसे अंडमान-निकोबार के नाम से जानती है, उसे औपनिवेशिक काल में आम लोगों की जुबान ने नाम दिया कालापानी। इसके उल्लेख के बिना न तो इस उपमहाद्वीप की जानजातियों का इतिहास लिखा जा सकता है और न ही भारत की स्वतंत्रता की गाथा लिपिबद्ध की जा सकती है।


नरेशचंद्र लाल इसी अंडमान-निकोबार से ताल्लुक रखते हैं। वह कालापानी की मौक्तिक प्रतिभा हैं। उनका व्यक्तित्व मोती की मानिंद है; चमकीला और आबदार। साहित्य, सिनेमा और कला-जगत में आज अंडमान-निकोबार को उनके कारण जाना जाता है। वह पद्म श्री से सम्मानित अंडमान-निकोबार की पहली और इकलौती शख्शियत हैं। स्वतंत्र भारत के सतहत्तर वर्षों के इतिहास में नरेशचंद्र लाल अंडमान-निकोबार में जनमें पहले कलाकार हैं, जिन्हें महामहिम राष्ट्रपति ने पद्म पुरस्कार से नवाजा। वह सन 2016 में सम्मानित हुये।
11 मार्च , 1955 को कालापानी में जनमें नरेशचंद्र की आनुवंशिकी को जानना बड़ा दिलचस्प है। वह जन्मना अंडमानी है, लेकिन उनके वंश-वृक्ष पर गौर करें तो उन्हें सहज ही पैन-इंडियन के खाने में वर्गीकृत किया जा सता है। उनकी पांच पीढ़ियों का गुजर-बसर यहीं हुआ। उनके दादा के पिता यानि पड़दादा आंध्र से अंडमान आये थे। नाम था गोपाल रेड्डी। रेड्डी यानि कम्मा। मगर योगायोग देखिये कि दादी-बंगाल की थीं और नानी मायाबाई महाराष्ट्र की। नानी ने शादी की एक पंजाबी से। अंतर्जातीय व अंतर्प्रांतीय विवाहों का सिलसिला यहीं नहीं थमा। नरेश के अनुज ने विवाह रचाया मलयाली लड़की से। इस तरह तेलुगु, मराठी, बंगला, पंजाबी और मलयाली रक्त-परिवार परस्पर घुलमिल गये। भिन्न-भिन्न गुणसूत्रों का अद्भुत सायुज्य। सब एक छत तले रहे, पले-बढ़े। जातपांत, रंग या भाषा का कोई भेद नहीं। हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोस्तां हमारा। नरेश के परिवार के मन में अंडमान की धरती से गहरा अनुराग है। आजादी के महायज्ञ में रणबांकुरों की आहुति के चलते वे इसे महातीर्थस्थल मानते हैं और स्वयं को वहां का वासी होने का परम सौभाग्य।


नरेश उम्र की 70वीं पायदान से कुछ ही कदमों के फासले पर हैं। नवागत वर्ष की पहली तिमाही में वह सत्तर के हो जायेंगे। उनका जीवन-वृत्त उपन्यास की कथावस्तु है; रोचक और रोमांचक। वह विविधवर्णी है। वस्तुत: कला नरेशजी को पुरखों से विरासत में मिली। उनके दादा मोहन प्रसाद फाग गायक थे और उनके पिता सरजू लाल रंगकर्मी थे। वह थियेटर से जुड़े हुये थे। खूब ड्रामे करते थे। वह ‘ए’ ग्रेड रेडियो आर्टिस्ट भी थे। उनकी आवाज बुलंद थी। सोहराब मोदी या पृथ्वीराज कपूर मार्का। उनके साथ बड़ा दिलचस्प संदर्भ जुड़ा हुआ है। उन्होंने 36 साल नाटकों में रावण की भूमिका निभायी। नरेश बचपन से अपने पिता के साथ रेडियो स्टेशन और नाट्यशालाओं तथा प्रस्तुतियों में जाते थे। पिता की भाव-भंगिमायें उन्हें आकर्षित करती थीं। वह मुस्लिम खलनायकों की भूमिका भी बखूबी निभाते थे। दिलचस्प संदर्भ कि उन्होंने अपने पुत्र के निर्देशन में भी नाटकों में काम किया। ‘आषाढ़ का एक दिन’ में उन्होंने अभिनय किया तो तुगलक और तैमूरलंग में क्रमश: तुगलक और तैमूर का किरदार अदा किया। कालांतर में पुत्र ने ‘रावण’ तुझे सलाम का निर्माण कर पिता को भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की।


यह एक बारगी अविश्वसनीय प्रतीत हो सकता है, किंतु यह सच है कि इन्हीं पिता ने पुत्र का अभिनय की दुनिया में जाने का रास्ता छेंक दिया था। हुआ यह कि नरेश के एक शिक्षक तिवारी जी ने शिष्य में अभिनय की छिपी प्रतिभा को चीन्हा और उसे दिल्ली में नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (एनएसडी) में भर्ती कराने का परामर्श दिया। नरेश बताते हैं कि यह सन 1970 की बात है। इब्राहीम अल्काजी जैसा नामचीन कलाकार तब एनएसडी का संचालक था। उन्होंने अर्जी भेज दी। कुछ ही दिनों में वहां से सकारात्मक जवाब आ गया। अल्काजी ने उन्हें इंटरव्यू के लिये दिल्ली बुलाया।
नरेशजी की उम्र तब फकत पंद्रह वर्ष थी। संभावना यही है कि उन्हें दाखिला मिल जाता, मगर पिता को न जाने क्या सूझा कि उन्होंने मना कर दिया। संभवत: बतौर कलाकार या अभिनेता बेटे का भविष्य उन्हें अनिश्चित लगा। बहरहाल, बात आई गई हो गयी। घड़ी की सुइयां घूमती रहीं। कैलेंडर के पन्ने फड़फडाते रहे। चौदह साल बीत गये। इच्छा कुलबुलाती रही। कीड़ा रेंगता रहा। आखिरकार सन 1984 में फिर आवेदन किया। चयन हो गया और तीन माह की ट्रेनिंग भी ले ली, मगर प्रवेश छह सौ पचास रूपये के वजीफे और स्पांसर पर आकर अटक गया। तत्कालीन निदेशक मोहन महर्षि ने बुलाया और आत्मीयतापूर्वक नियमों का हवाला दिया। नरेश दाखिले से वंचित रहे, मगर इस हादसे ने उन्हें भीतर तक कोंध दिया। उन्होंने ठान लिया कि कुछ भी हो जाये, लेकिन एनएसडी में प्रवेश लेना है।


तब केन्द्र में कांग्रेस की सरकार थी। श्रीमती कृष्णा संस्कृती मंत्री थीं। नरेश उनसे जाकर मिले। उन्होंने धैर्यपूर्वक सुना। सुना ही नहीं, रास्ता भी सुझाया। अंडमान-निकोबार प्रशासन की ओर से सिर्फ डेढ़ सौ रूपये की छात्रवृत्ति का प्रावधान था। केंद्रीय संस्कृति मंत्री ने उत्साही युवा को सलाह दी कि वह संस्कृति क्षेत्र में युवाओं के लिये निर्धारित छात्रवृत्ति के लिये आवेदन करे। युवक ने आवेदन किया। उसे साढ़े छह सौ मासिक का वजीफा मिल गया और शासकीय सेवा से अतिरिक्त अवकाश भी। विधि का विधान देखिये कि सन 1970 में पिता के बरजे पुत्र को संस्थान में सन 1987 में विधिवत प्रवेश मिला और वह तीन साल बाद सन 1990 में वहां से स्नातक होकर निकला।
नरेश एनएसडी में बिताये अपने तीन सालों को बड़ा कीमती मानते हैं। शुरूआती छह माह बड़े खराब रहे। कुछ पल्ले नहीं पड़ा। मन किया कि पोर्ट ब्लेअर लौट जायें। भागने का मन करता तो वही मन टोकता कि लोग क्या कहेंगे? पोर्ट ब्लेअर के लोगां को क्या जवाब देंगे? लोग हंसेंगे, मखौल उड़ायेंगे। उसने जी कड़ा किया। पाठयक्रम में रस लेना शुरू किया। नरेश कहते हैं-“फिर तो मुझे मजा आने लगा। आई एन्ज्वॉयड ए लॉट”। पहला वर्ष तो सामान्य था। बड़ा फलक। सोफोक्लीज, इब्सन से लेकर ब्रेख्ट तक। क्लासिकल इंडियन और वर्ल्ड थियेटर। मॉडर्न थियेटर। कार्पेन्ट्री। मेकअप। कास्ट्यूम डिजाइनिंग। साउंड सिस्टम। कोरियोग्राफी। और भी बहुत कुछ।
दूसरे वर्ष में चुनना था – अभिनय या निर्देशन। अभिनय में आकर्षण था। ग्लैमर और शायद अधिक वैभव भी। लेकिन नरेश ने निर्देशन चुना, जिसका फलक बड़ा था और जहां रचने की संभावना ज्यादा थी। वहां “क्रियेट” करने का ‘स्पेस’ अधिक था। आप वहां चीजों को नयाकार दे सकते थे और विचारों को आयाम। समय ने इस चयन को सही सिद्ध किया। चयन के समय उनके जेहन में अंडमान भी था, वह धरती जो अचीन्ही, अंदेखी और अप्रस्तुत थी। बहरहाल, एनएसडी से स्नातक होकर निकले नरेश ख्यातनाम सिने-निर्माता एफसी मेहरा की ईगल फिल्म्स से जुड़ गये। वहीं वह उनके सुपुत्र उमेश मेहरा के असिस्टेंट हुए। नरेश आज भी उनके कृतज्ञ हैं। कहते हैं “मैं आज जो भी हूँ, उन्हीं की बदौलत। उन्होंने मुझे चांस दिया। मुझे रचा। गढ़ा। निर्देशन से लेकर डायलाग डिलीवरी तक की बारीकियां, जो मेरे जीवन में बहुत काम आया।


नरेश बतौर चीफ असिस्टेंट उमेश के साथ तीन साल रहे। भाई राजीव मेहरा तब फिल्म बना रहे थे। ‘चमत्कार,’ यह शाहरूख खान की पहली फिल्म थी। फिर आई उमेश की सैफ अली और ममता कुलकर्णी अभिनीत फिल्म ‘आशिक आवारा’ कालांतर में वह निश्चित अवधि के शेड्यूल के तहत बोनी कपूर और प्रियदर्शन के सहयोगी रहे। इसी क्रम में वह मणिरत्नम, विवियन (केरल) और पी. शरद (तेलुगु) से भी जुड़े। वह स्पष्ट कहते हैं कि डायरेक्टर शुरू नो प्रोडक्शन। उसे पोस्ट प्रोडक्शन की भी जानकारी होनी चाहिये। नरेश ने फिल्म निर्माण में सहयोग किया और फिल्में बनायीं भी, लेकिन थियेटर उनका पहला प्रेम है। थियेटर में वह बा.व. कारंथ, बैरी जान, सत्यदेव दुबे, रामगोपाल बजाज, प्रसनना, देवराज अंकुर, फ्रिट्ज बेनेविट्ज जैसी हस्तियों के साथ काम किया। बैरी जॉन की ‘खिसियानी बिल्ली में उन्होंने चमेली बाई का किरदार निभाया और मुंबई में कमानी सभागार में प्रस्तुति पर खूब सराहना पाई। बिज्जी के साथ वह ‘सी गल’ में जुड़े। उनकी मान्यता है कि थियेटर नवाचार के दौर से गुजर रहा है। नाटयकर्म में प्रयोगधर्मिता है। थियेटर ओलंपिक भी नाट्यकर्म को बढ़ावा देने का उपक्रम है। प्रतिवर्ष 23 मार्च को वर्ल्ड थियेटर डे उन्हें नव उमंग और उत्साह से भर देता है। वे कहते हैं कि लोग पैसा कमाने के मकसद से थियेटर में नहीं आते। यह व्यवसाय नहीं, वरन जुनूं है। बहुतेरे थियेटर कलाकार कभी फिल्मों में नहीं जाते। मुगले आजम और कारगिल जैसे नाटकों ने मंच पर आशातीत सफलता पाई है।
नरेश भारत सरकार के स्वच्छ भारत मिशन के राजदूत भी हैं। उनकी फिल्मों में कालापानी की झलक है और उसका सौन्दर्य भी। उनके सरोकारों में प्रमुख है पर्यावरण और राष्ट्रीय एकता व अखंडता। उनकी अत्यंत उत्कृष्ट फिल्म है ‘गांधी : द महात्मा’। उन्होंने कई फिल्म दूरदर्शन के लिये बनायी है। निकट भविष्य में उनकी योजना दो शॉर्ट फिल्मों की है : एक किन्नरों की प्रणयगाथा पर और दूसरी सुंदरवन में विधवाओं की बस्ती पर। अन्य अनेक योजनाएं भी उनके मन में है। इस पकी आयु में भी वह जोश से लबरेज हैं। नेकी, श्रम और गांधी में उनकी अनन्य आस्था है। वह कहते हैं – “गांधी कभी मरा नहीं करते।” यकीनन गांधी भारत की पहचान, विश्वास और आशा है। आत्मविशवास उनकी वाणी में झलकता है। जब वह पूर्वोक्त बात कहते हैं, तो उसमें यह जोड़ना नहीं भूलते कि वक्त कैसा भी हो, थियेटर भी कभी मरेगा नहीं।
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