समीक्षा @ डॉ. महीप सिंह
मध्यप्रदेश में आजादी की लड़ाई और आदिवासी
इतिहास के अनेक अनजाने तथ्यों से साक्षात्कार
• डॉ. महीप सिंह
‘मध्यप्रदेश में आज़ादी की लड़ाई और आदिवासी श्री सुधीर सक्सेना की बड़ी महत्वपूर्ण कृति है। इस देश में अंग्रेज़ों सरकार के विरुद्ध निरन्तर संघर्ष चलता रहा। अंग्रेज इतिहासकारों का यह कथन सही नहीं है कि भारत के लोगों ने स्वयं ही देश के एक-एक राज्य को जीत कर हमारी झोली में डाल दिया। हमें इसके लिये कोई विशेष प्रयाप्त नहीं करना पड़ा। इस कथन में आंशिक सच्चाई हो सकती है, किन्तु इस तथ्य की उपेक्षा नहीं की जा सकती कि अंग्रेज़ों को इस विशाल देश पर अपना राज्य स्थापित करने मैं सौ वर्ष से अधिक का समय लगा और इस पूरी अवधि में बड़े-बड़े राजाओं-महाराजाओं- नवाबों से लेकर छोटे-छोटे रजवाड़ों और जागीरदारों से विरोध झेलना पड़ा और उनसे युद्ध करना पड़ा। लेखक ने यह सही लिखा है कि छल-कपट, जालसाजी, धोखा धड़ी और प्रपंच भारत में अंग्रेजी सरकार के तख्त के पांचों की भाँति थे।
ऐतिहासिक महत्व की इस कृति को लेखक ने मध्यप्रदेश और वहाँ के आदिवासियों के संघर्ष पर केन्द्रित किया है। यह बात भी मुझे महत्वपूर्ण लगती है। हमारे इतिहासकार ने अंग्रेजों का विरोध किए गए संग्राम का कोई एकीकृत और समग्र इतिहास नहीं लिखा है। सभी इतिहास हमें क्षेत्र अथवा वर्ग-विशेष के योगदान का परिचय कराते हैं। इस दृष्टि से मध्यप्रदेश और आदिवासियों की भूमिका पर इससे पहले कोई अन्य पुस्तक मेरी नज़र से नहीं गुज़री।
पंद्रहवीं शती से ही यूरोप के विभिन्न देशों के साहसी लोग संसार के नये भागों को ढूँढने, वहाँ अपनी बस्तियाँ बसाने, समृद्ध देशों से व्यापार करने, वहाँ ईसाई धर्म का प्रसार करने के अभियान पर निकलना प्रारम्भ कर चुके थे। इनमें इंग्लैंड, फ्रान्स, हालैण्ड (डस) स्पेन, पुर्तगाल के लोग विशेष रूप से सक्रिय थे। यह अभियान दो प्रकार का था। कोलम्बस जैसे लोग अमेरिकी तट पर पहुँचे। फिर कितनी ही यूरोपीय जातियों ने उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका में पहुँचकर वहाँ के मूल निवासियों का या तो संहार कर दिया था उन्हें जंगलों-पहाड़ों में खदेड़ दिया। आज ये दोनों महाद्वीप अपना मूल स्वरूप खोकर यूरोपीय संस्कृति, धर्म और भाषा ग्रहण कर चुके हैं। यही बात आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड जैसे देशों के साथ हुई ।
दूसरा अभियान दक्षिणी और पूर्वी ऐशियायी देशों की ओर था। ये देश सांस्कृतकि दृष्टि से बहुत सम्पन्न थे। इनकी अपनी राज व्यवस्था थी। इनका अपना इतिहास था किन्तु इनके पास युद्ध की अधुनातन तकनीक, अस्त्र-शस्त्र, रणनीति और कूटनीति को ऐसी युक्तियाँ नहीं थी जैसी यूरोपीय देशों ने विकसित कर ली थीं। इसी का परिणाम था कि ये यूरोपीय शक्तियों का सफलतापूर्वक सामना नहीं कर सके। भारत के साथ भी यही हुआ। यहाँ के छोटे-बड़े राज्य एक-एक करके अंग्रेजों की आधीनता में आते चले गए।
इस धरती पर मुख्य रूप से पुर्तगाली, फ्रान्सीसी और अंग्रेज आए, किन्तु अंग्रेज सबसे अधिक चतुर निकले। उन्होंने अपने पाँव जमाने के लिए स्थानीय राजसताओं में बड़े छल-कपट से आतंरिक विग्रह भी उत्पन्न किया और कभी एक पक्ष, कभी दूसरे का साथ देते हुए धीरे-धीरे सभी को हड़प लिया।
1857 के स्वतन्त्रता संघर्ष को प्रायः बैरकपुर में मंगल पांडे के विद्रोह, मेरठ छावनी के हिन्दुस्तानी सिपाहियों की बगावत, दिल्ली में बहादुर शाह ज़फर की ताजपोशी, लखनऊ, कानपुर और झाँसी की घटनाएँ, नाना साहब पेशवा, तात्याटोपे, झाँसी की रानी के कार्यकलापों को सीमा में देखा और परखा जाता है। इस पुस्तक में मध्यप्रदेश के अनेक भागों में उभरे विद्रोह और उसके उन्नायकों पर बहुत अच्छी सामग्रो दी गई है। मध्यप्रदेश की एक छोटी सी रियासत नरसिंह गढ़ के युवराज चैन सिंह ने मंगल पांडे को शहादत से 33 वर्ष पूर्व स्वतन्त्रता की उत्कट अभिलाषा में जो संग्राम छेड़ा था उसे भो स्मरण किया जाना चाहिए। युवराज चैन सिंह अपने अभियान में सफल नहीं हुए थे। परिणाम स्वरूप उन्हें 24 जून 1824 में अपने 44 सैनिकों सहित सिहोर के दशहरा वाले मैदान में मृत्यु दंड दे दिया गया था।
इंदौर, नीमच, मंदसौर, सम्पूर्ण बुंदेलखंड आदि क्षेत्रों में भी 1857 के संग्राम की आग भड़की थी। अमझेरा के राजा बख्तावर सिंह और उनके अनेक साथियों का किस प्रकार का योगदान था, सतना जिले के मनकहरी ग्राम के निवासी ठाकुर रणमत सिंह का रीवा और पन्ना के बीच के क्षेत्र को मुक्त कराने के प्रयास और अंत में आगरा जेल में उन्हें फाँसी पर चढ़ाया जाना आदि इस प्रकार के विवरण हैं जो अन्यत्र सुलभ है।
इस पुस्तक का महत्वपूर्ण भाग स्वतन्त्रता संग्राम में आदिवासियों के सहभाग से सम्बन्धित हैं। लेखक के शब्दों में मध्यप्रदेश में एक छोर ते दूसरे छोर तक दूरस्थ व दुर्गम अंचलों में बसे आदिवासियों में प्रचलित लोकगीत इस बात के जीवंत प्रमाण है कि आदिवासी समुदाय सात समुन्दर पार से आए अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की भावना के कभी रिक्त नहीं रहा। उन्होंने जब-तब शस्त्र उठाकर अंग्रेज़ों व उनके पिछलग्गू आतताइयों से लोहा तो लिया किन्तु उनके समुदाय में उन विद्वानों का निंतात अभाव था, जो उनकी स्वतन्त्रता को उद्दाम आकांक्षा और आज़ादी के रक्तरंजित प्रयासों को लिपिबद्ध करते।
श्री सुधीर सक्सेना ने इस पक्ष पर बड़ी खोजपूर्ण सामग्री अपनी पुस्तक में उपलब्ध कराई है। सोनाखान में वीरनारायण सिंह ने 1856 में अंग्रेज़ों के खिलाफ संघर्ष प्रारम्भ किया। निमाड़ में भीमा भील ने विद्रोह का जो अभियान छेड़ा था, वह आदिवासियों के मध्य लोकगीतों में आज भी जीवित है। 1857 के शहीद इस लोकनायक की गाथा से कितने लोक परिचित है? यह उल्लेखनीय है कि सम्पूर्ण उत्तर भारत में 1857 के विद्राह की एक डेढ़ वर्ष में कुचल दिया गया था, किन्तु निमाड़ क्षेत्र के आदिवासी अपना संघर्ष 1861 तक चलाते रहे। इस क्षेत्र में यह विद्रोह इतना तीव्र हो गया था कि इसे कुचलने के लिए अंग्रेजों को नौंवी बंगाल इन्फेन्ट्री को वहाँ बुलाना पड़ा था।
बंकिमचंद्र चटर्जी की रचना वन्देमातरम को इस देश में असीम लोकप्रियता प्राप्त हुई है। इस गीत को रचना उन्नीसवीं शती के अंत में हुई थी। कुछ इसी प्रकार की एक कविता गढ़ामण्डला के गौड़ शासक शंकरशाह ने देवी की स्तुति करते हुए लिखी थी। इस पुस्तक में वह गीत उद्धृत किया गया है-
मूँद मुख डडिन को चुगलन को चबाई खाई,
खुद दौड़ दृष्टन को शत्रुन संहारिका।
मार अंगरेज रेज कर देई मात चंडी
बचै नहि बैरी ऐरी प्रलयंकारिका।
संकट को इच्छा कर दास प्रतिपाल कर
दीन को सुन देर आकै मात प्रनपालिका।
खाय लेई म्लेच्छन को झेल नहिकरों अब,
भच्छन कर ततच्घन घोर मात कालिका।।
इस छंद में व्यक्त विचारों ते अंग्रेज शासक इतने कुपित हुए थे कि उन्होंने इसके रचयिता को तोप के मुँह ते बाँधकर उड़ा दिया था।
उस युग की लोक भावना को व्यक्त करने वाले अनेक गीतों का उल्लेख इस पुस्तक में किया गया है। 1857 के विद्रोह का दमन हो जाने के पश्चात अंग्रेज शासकों ने इस देश की सम्पदा को व्यापार के नाम पर दोनों हाथों से लूटना प्रारम्भ कर दिया। 19वीं शती के उत्तरार्द्ध में इस देश के दरिद्रता चरम पर पहुंच गई थी। 1860 से 1901 के बीच पड़े अकाल से लगभग 3 करोड़ व्यक्तियों की मौत हुई। मध्यप्रदेश में ‘छप्पनिया अकाल’ आज भी ग्रामीणों की स्मृति में जीवित है। फकीर खाँ का लिखा यह फाग वहां गाया जाता है-
चूना मुंडन पै बुद्धावा दये
हाथ पाँव कील ठोंके, पाछे से संदवा दये।
तेरा दिन चार मइना लौ, गौडन खून मिटा दये।
जार दओ-है बिला बिलखुरा, लूटो धन भगवा दये।
अंगरेजन खां बुला इनन ने बंटा द्वार करा दये।
खान फकीर कालौँ कइये, ऐसे हाल करा दये।
ऐसे अनेक लोकगीतों का प्रचलन बुंदेलखण्ड में है।
बस्तर क्षेत्र में विद्रोह की अटूट परम्परा की पर्याप्त चर्चा इस पुस्तक में की गई हैं। लेखक कहता है कि 1777 से लेकर 1977 तक दो शताब्दियों के अंतराल में कम से कम दस बार यहां विद्रोह भड़का। बीसवीं शती के स्वतन्त्रता संग्राम में भी मध्यप्रदेश की व्यापक भूमिका की चर्चा इस पुस्तक में प्राप्त है।
इस देश के आदिवासियों, बनवासियों, जनजातियों के इतिहास पर बहुत कम चर्चा हुई है। यह तथ्य भी दृष्टव्य है कि इस देश में उभरा सभी तत्व-चिंतन, धर्म क्षेत्र में आए सभी परिवर्तन, यहाँ तक हमारा बहुचर्चित भक्ति आन्दोलन भी मैदानी प्रदेशों के नगरों-गाँवों तक सीमित रहा। इस देश के संत-भक्त अपनी तीर्थ यात्राओं में उत्तर से दक्षिण और पश्चिम से पूर्व के प्रदेशों में जाते थे, किन्तु घने जंगलों में बसे आदिवासियों के बीच वे भी नहीं गए थे। यह भी कम आश्चर्यजनक नहीं है कि इस्लाम जैसी धार्मिक लहर भी एक हज़ार वर्ष तक इस देश के लगभग सभी प्रदेशों को आप्लावित करती रही, वह भी आदिवासियों के बीच अधिक नहीं गई। यूरोपीय जातियों के आगमन के साथ ही इस देश में आए ईसाई मिशनरियों ने ही इन प्रदेशों में अपनी पैठ बनाई।
इस बीच हमारे समाजशास्त्रियों और इतिहासकारों का ध्यान इस उपेक्षित वर्ग की ओर गया है। संताल क्षेत्र के स्वतन्त्रता सेनानी विरसा मुण्डा को इन वर्षों में पहचाना गया है और उसकी व्यापक चर्चा हो रही है।
श्री सुधीर सक्सेना रचित यह पुस्तक हमें इतिहास के अनेक अनजाने पहलुओं से परिचित कराती है।
डॉ सुधीर सक्सेना
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