कही-सुनी @ रवि भोई
*राजभवन और सरकार के बीच बर्फ की दीवार*
पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र की तरह छत्तीसगढ़ में राजभवन और सरकार के बीच हर बात पर म्यान से तलवार निकाल लेने की ख़बरों ने लोगों के बीच में दोनों संस्थाओं को लेकर नई धारणा पैदा कर दी है। कहा जाना लगा है कि छत्तीसगढ़ गैर भाजपा शासित राज्य है, इसलिए ऐसा हो रहा है, या सरकार अपने संवैधानिक प्रमुख को भरोसे में लेकर काम नहीं कर रही है, इसलिए ऐसा हो रहा है। बहरहाल जो भी कारण हो , पर कहावत हैं “ताली दोनों हाथों से बजती है।” यह भी याद रखना होगा दो पक्षों में तलवारें चलती है तो चोटें दोनों को ही आती है। राज्य के संवैधानिक प्रमुख के नाते राज्यपाल को किसी भी मुद्दे पर सहमति या अनुमति देने से पहले सरकार से पूछने या शंका के समाधान का अधिकार है, वहीँ राज्य में कानून-व्यवस्था को ठीक करने की जिम्मेदारी तो चुनी हुई सरकार की है। पिछले एक साल में कई बार राजभवन और सरकार में तनातनी की ख़बरें आईं। ताजा घटनाक्रम विधानसभा के विशेष सत्र की मंजूरी को लेकर हुआ। कहते हैं विधानसभा के विशेष सत्र की मंजूरी की फाइल राजभवन भेजने से पहले संसदीय कार्यमंत्री राज्यपाल से भेंटकर उन्हें ब्रीफ कर देते तो शायद फाइल दोबारा भेजने की नौबत न आती। छत्तीसगढ़ के राजभवन और सरकार के बीच कई बार बर्फ की दीवार बनती और पिघलती दिख रही है। एक मान्य परंपरा है कि मुख्यमंत्री समय-समय पर राज्यपाल से भेंटकर आते हैं, जिससे गलतफहमियां होती हैं,तो दूर हो जाती है। पर कभी-कभी राज्यपाल और मुख्यमंत्री का मिठास भी लोगों को नहीं भाता। जब छत्तीसगढ़ के राज्यपाल दिनेश नंदन सहाय थे , तब तत्कालीन मुख्यमंत्री अजीत जोगी से निकटता को लेकर भाजपा नेताओं ने दिल्ली में शिकायत की थी। केंद्र में अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार थी और दिनेश नंदन सहाय का तबादला त्रिपुरा कर दिया गया था। छत्तीसगढ़ के पहले राज्यपाल सहाय आईपीएस से रिटायर होने के बाद समता पार्टी से जुड़े थे। वर्तमान राज्यपाल अनुसुइया उइके जमीनी राजनेता हैं, भाजपा में कई पदों पर रहीं हैं, पर सुश्री उइके ने तो राजनीति का ककहरा कांग्रेस में सीखा है। ऐसे में कांग्रेस सरकार के साथ शीतयुद्ध लोगों को समझ नहीं आ रहा है।
*अवस्थी की जगह जुनेजा का खेल*
कहते हैं कि मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के कुछ करीबी लोग राज्य का डीजीपी डीएम अवस्थी की जगह अशोक जुनेजा को बनाने के लिए लॉबिंग कर रहे हैं। वैसे कहा जा रहा है एक वर्ग 1989 बैच के जुनेजा को डीजीपी बनाने की वकालत तब से कर रहा है, जब वे डीजी प्रमोट नहीं हुए थे। सुप्रीम कोर्ट की रूलिंग के आधार पर डीजीपी के पद पर किसी अफसर की नियुक्ति के बाद उसे दो साल तक पद पर बनाये रखना जरुरी है। अवस्थी दिसंबर 2018 में डीजीपी बने हैं। दिसंबर 2020 में उनके दो साल पूरे हो जायेंगे। दो महीने बाद बाधा दूर हो गई। कहा जा रहा है कि पुलिस महकमे का एक लॉबी और सरकार का एक वर्ग 1986 बैच के आईपीएस डीएम अवस्थी को अपना मन माफिक नहीं पा रहा है। सरकार की तगड़ी लॉबी अशोक जुनेजा को अपने अनुकूल ज्यादा पा रही है। अवस्थी और जुनेजा दोनों ही समय-समय पर भाजपा सरकार के करीबी रहे हैं। राज्य बंटवारे के वक्त डीआईजी के तौर पर छत्तीसगढ़ आए डीएम अवस्थी रायपुर एसएसपी, आईजी से लेकर ख़ुफ़िया प्रमुख और ईओडब्ल्यू के चीफ रहे हैं, इस पद के मुखिया का सीधा वास्ता मुख्यमंत्री से होता है। अवस्थी विरोधी लॉबी जरूर प्रचार कर रही है कि उन्होंने 20 सालों में राजधानी एक भी बार नहीं छोड़ी है। कहा जा रहा है पुलिस महकमे में जितना भी कयासबाजी चले बदलाव तो नए साल में ही संभव है, क्योंकि एक दिसंबर को चीफ सेक्रेटरी बदल जायेंगे, फिर सरकार अगला कदम उठाएगी।
*भाजपा नेताओं की फिसली जुबान*
कहते हैं मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के विधानसभा क्षेत्र पाटन में एक कार्यक्रम में भाजपा नेताओं की जुबान फिसलने से अर्थ का अनर्थ हो गया। पाटन में एक घटना को लेकर दुर्ग के सांसद विजय बघेल अनशन पर बैठे। इस कार्यक्रम में पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह और कई बड़े नेता शरीक थे। कहते हैं कार्यक्रम में भाषण से पहले पार्टी के एक नेता ने ” विजय बघेल जिंदाबाद” की जगह” भूपेश बघेल जिंदाबाद” का नारा लगा दिया, वहीं एक नेता ने साजा के पूर्व विधायक लाभचंद बाफना की जगह पूर्व विधायक रविंद्र चौबे कह दिया। भाजपा नेताओं के गलत बोल से कार्यक्रम में मौजूद लोग सकते में आ गए। बोलने वाला तो बोल गया, पर कांग्रेस सरकार को कोसने के मकसद से आयोजित कार्यक्रम में जुबान फिसलने की घटना चर्चा का विषय बन गया और लोग चटखारे भी लेने लगे। कांग्रेस के लोगों ने भी मजे लिए। यहाँ तक कि कांग्रेसी नेताओं ने अपने फेसबुक और सोशल मीडिया के दूसरे साइट में भी इसे जमकर वायरल किया। यह अलग बात है कि भाजपा ने यहाँ शक्ति प्रदर्शन कर अपने नेता का अनशन तुड़वा दिया।
*नल-जल योजना के टेंडर में नेता का खेल*
कहते हैं एक राजनेता के चक्कर में पीएचई विभाग की नल-जल योजना के टेंडर में छत्तीसगढ़ के लोगों को काम नहीं मिला। मिला तो भी आदिवासी और नक्सली इलाकों का काम मिला। दूसरे राज्यों के ठेकेदार मालदार निकले, जिसके कारण मैदानी और सुरक्षित क्षेत्रों का काम मिल गया। कहते हैं बड़े ठेकेदारों से ठेके से पहले दान-दक्षिणा के लिए राज्य के एक पावरफुल व्यक्ति के निवास से ही का फोन किया गया। चर्चा है नल-जल योजना में ठेकेदारी के लिए कांग्रेस के कई छोटे-बड़े नेता लगे थे , पर जिला स्तर के एक नेता को मनपसंद काम न मिलने से मामला गड़बड़ा गया और शिकायतबाजी हो गई। इसके बाद गड़बड़झाला उजागर हो गया। केंद्र और राज्य की मदद से गांव-गांव में पानी पहुँचाने की करीब 15 हजार करोड़ की इस योजना के टेंडर में गड़बड़ी के जाँच मुख्यमंत्री ने दे दिए हैं। मुख्य सचिव की अध्यक्षता में अफसरों की समिति बना दी गई है। जांच में जो भी नतीजे आएं, पर इस लफड़े से ग्रामीणों तक शुद्ध पानी पहुँचाने के काम में लेटलतीफी तो तय मानी जा रही है।
*नियम को ताक में रखकर दौड़*
पद और प्रमोशन की दौड़ में हर कोई भागता है। इसमें कोई बुराई भी नहीं है , लेकिन जब नियमों की अनदेखी कर प्रमोशन पाने की दौड़ लगाईं जाती है, तब सवाल भी उठते हैं। कहते हैं कृषि विभाग के अंतर्गत आने वाले कृषि इंजीनियरिंग शाखा के एक अधिकारी अपने रिपोर्टिग अधिकारी से गोपनीय चरित्रावली लिखवाने की जगह दूसरे से सीआर लिखवाकर प्रमोशन की दौड़ में शामिल हो गए हैं। चर्चा है कि कृषि इंजीनियर ने संयुक्त संचालक बनने के लिए यह कारनामा किया है। कहते हैं गरियाबंद जिले के आदिवासी ग्राम पंचायत कुल्हाड़ीघाट में इसी कृषि इंजीनियर ने पुराने ट्रैक्टर को नया बताकर अनुदान स्वीकृत करवा दिया था । अनुदान के लिए फ़ाइल बैंक पहुंची तो बैंक प्रबंधक ने गड़बड़झाला को पकड़ा और शिकायत की। जाँच के बाद गड़बड़ी सही पाई गई और कृषि इंजीनियर को कारण बताओ नोटिस दिया गया , लेकिन विभाग ने मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया। कुल्हाड़ीघाट वही गांव है, जहां 34 साल पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी पहुंचे थे।
*बड़े नेता को छोटा उपक्रम*
राजनीति में अस्तित्व बचाने के लिए राजनेता को कभी-कभी कडुवा घूंट पीकर भी चेहरे में मुस्कराहट बिखेरनी पड़ती है। ऐसा ही कुछ छत्तीसगढ़ के एक कांग्रेस के नेता के साथ घटित हो गया। इंदिरा गाँधी- राजीव गाँधी के जमाने के ये नेता संयुक्त मध्यप्रदेश में एक बड़े निगम के अध्यक्ष थे , पर छत्तीसगढ़ में एक छोटे से निगम के अध्यक्ष पद से ही संतोष करना पड़ा। यह निगम जिस विभाग में आता है , उस विभाग को ही वजनदार नहीं माना जाता है, तो फिर उस निगम का कितना महत्व होगा, अंदाजा लगाया जा सकता है। कहते हैं नेताजी को पीएल पुनिया की सिफारिश पर यह निगम मिल गया, बाकी नेता तो कुछ देने के लिए सहमत ही नहीं हो रहे थे।
*साहब हुए बैचेन*
कहा जा रहा है कि कृषि विभाग की एक इकाई के मुखिया इन दिनों बड़े परेशान हैं। बताते हैं मुखिया पर दोहरी-तिहारी मार पड़ रही है। अखिल भारतीय सेवा के यह अफसर बड़े सपने लेकर वहां गए थे। लेकिन वे ऐसे चक्कर फंस गए कि अब उन्हें दिन में ही तारे नजर आने लगे हैं। किसानों के साथ सबके कल्याण की भावना वाले इस इकाई में केंद्र सरकार का डंडा अलग चलता है तो विभागीय मंत्री ने डीबीटी का पेंच फंसा दिया। इस इकाई के जरिए अपने हित साधने वाले पुराने खिलाडी अलग उनका बाल नोच रहे हैं। कमाई- धमाई ढेले का नहीं और मुसीबतों का अंबार देख साहब दूसरे ठौर की तलाश में लग गए हैं। देखे अब उन्हें कब नया ठिकाना मिलता है। वैसे सरकार ने उन्हें एक और भी काम दे रखा है, पर चर्चा वाला विभाग नहीं है।
*मंत्री जी क्यों घंटों बैठे अफसर के कमरे में*
कहते हैं छत्तीसगढ़ के वर्क्स डिपार्टमेंट के एक कैबिनेट मंत्री पिछले दिनों एक मुख्य अभियंता स्तर के अधिकारी के कमरे में घंटों बैठे रहे। मुख्य अभियंता का दफ्तर शहर के भीतर ही है। कहा जा रहा है कि कुछ दिनों पहले इस वर्क्स डिपार्टमेंट का टेंडर खोला गया था। मंत्री जी को टेंडर प्रक्रिया में गड़बड़ी की आशंका हुई या और कुछ, पता नहीं चला, पर मंत्री जी का मुख्य अभियंता के दफ्तर में घंटों बैठना चर्चा का विषय है। कहते हैं मंत्री जी के विभाग में लंबे समय से गड़बड़ी की शिकायत आ रही है और इसके चलते मंत्री जी पर भी तलवार लटक रही है।
(-लेखक, पत्रिका समवेत सृजन के प्रबंध संपादक और स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
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