देश-दुनिया@ डॉ. सुधीर सक्सेना

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बांग्लादेश : अब सेना की नेकनीयत का आसरा

  • डॉ. सुधीर सक्सेना

बांग्लादेश अशांत है। वह हिंसा, अराजकता और अनिश्चितता के बोगदे में है और रोशनी का सिरा फिलवक्त नज़र नहीं आता। जो पुष्ट-अपुष्ट खबरें सीमा-पार से आ रही हैं, वे ऐसी नहीं हैं कि राहत अथवा सुकूं की सांस ली जा सके। बांग्लादेश में तख्तापलट के बाद कमान अब फौज़ के हाथों में है। सेना प्रमुख वकार उज जमान की मानें तो विभिन्न सियासी पार्टियों से बात की जा रही है, नज़रबंद पूर्व प्रधानमंत्री बेगम खालिदा जिया की रिहाई का आदेश किया गया है और माइक्रोफाइनेंसिंग के लिए चर्चित नोबुल विजेता 84 वर्षीय मोहम्मत यूनुस को महत्त्वपूर्ण दायित्व सौंपा गया है।

ढाका से टेलीफोनिक संपर्क किया तो ज्ञात हुआ कि वहाँ स्थितियाँ अभी भी नियंत्रण के बाहर हैं। देश अराजकता की चपेट में है और पूरे मुल्क में ख़ौफ तारी है। व्यापक छात्र आंदोलन और हिंसा से त्यागपत्र देने को बाध्य शेख हसीना को इतना आनन-फानन ढाका छोड़ना पड़ा कि वह राष्ट्र के नाम संदेश भी प्रसारित नहीं कर सकीं। उन पर नागरिक अधिकारों के हनन, राजनीतिक बैरियों के दमन और उत्पीड़न, चुनावी-धांधली और अधिनायकवादी वृत्ति के आरोप सही हैं और यही उनके पतन का कारण बने, लेकिन शेख हसीना के पतन के बाद ऐसा कुछ नहीं हुआ है कि उस पर किसी की बाँछें खिलें। दरअसल, बांग्लादेश आसमान से गिरकर खजूर में अटक गया है। बांग्लादेश में निरंकुशप्राय हो चली हसीना के हाथों से सत्ता गयी है, किंतु वह जम्हूरियत-पसंद ताकतों के हाथों में नहीं आई है। उल्टे वहाँ नियंत्रक शक्ति फौज ने हासिल कर ली है।

प्रसंगवश, आज से करीब चार दशक पहले की ईरान की इस्लामी क्रांति को याद करें। रजा शाह पहलवी की राजशाही की समाप्ति पर प्रगतिशील और लोकतांत्रिक ताकतों ने खूब जश्न मनाया था, लेकिन ईरान के हालात कैसे हैं? वहाँ कट्टरपंथी, अनुदार मजहबी ताकतें काबिज हैं। बनी सद्र जैसा तरक्की और जम्हूरियत-पसंद शख्स पेरिस में निर्वासन में मर गया। जलावतनी, गिरफ्तारी, सेंसरशिप और मृत्युदण्ड का दौर जारी है। यह सच झुरझुरी पैदा करता है। कहीं हमारा पड़ोसी देश भी तो इसी तरफ आगे नहीं बढ़ गया है?

बांग्लादेश के तख्तापलट में कई कीमती पाठ छिपे हुए हैं। राष्ट्रपिताओं या राष्ट्रनायकों के साथ यह सलूक चिंतनीय है। ढाका में बंगबंधु की प्रतिमा ध्वस्त की गयी, धानमंडी का दफ्तर नष्ट तथा म्यूजियम नेस्तनाबूद किया गया। वस्तुतः बांग्लादेश की नयी पीढ़ी को बंगबंधु के बलिदान पर गर्व होना चाहिए था। उसे वहाँ जाकर लोकतंत्र की बहाली का संकल्प लेना था। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। क्या हम रूस में लेनिन, चीन में माओ जे दुंग, भारत में महात्मा गांधी, दक्षिण अफ्रीका में नेल्सन मंडेला, वियेतनाम में हो ची मिन्ह और इंडोनेशिया में सुकर्णो के महान योगदान की अनदेखी कर सकते हैं? नयी पीढ़ी इन महान नायकों से अनभिज्ञ है अथवा इन देशों में ऐसी ताकतें सक्रिय हैं, जो नयी पीढ़ी को वैचारिक अराजकता तथा अधिनायकवाद में आस्था की ओर धकेल रही हैं?

लोकतंत्र में लेकर दुनिया भर में बहस जारी है। विश्व में ज्ञात व्यवस्थाओं में लोकतंत्र सबसे कम खराब व्यवस्था है। यह फौजी शासन से हर मान से बेहतर है। उगांडा, पाकिस्तान, म्यांमार जैसे उदाहरण हमारे सामने हैं। हम इदी अमीन, पोल पोट, मार्कोस, चाऊ शेहकू को याद करें। सेना की दाढ़ों से खून लग जाये तो वह आसानी से सत्ता नहीं छोड़ती है। बांग्लादेश के घटनाक्रम का स्याह पहलू यही है कि वहाँ फौजी शासन का खतरा उठ खड़ा हुआ है।

भारत बांग्लादेश का पड़ोसी राष्ट्र है, बड़ा शक्तिशाली पड़ोसी। शेख हसीना का भारत आना स्वाभाविक है और भारत के महत्व का परिचायक भी। हालाँकि, अभी हसीना का गंतव्य तय नहीं है, किंतु भारत के विदेश-मंत्री जयशंकर ने उन्हें हरसंभव सहायता का यकीन दिया है। यह भी सुखद है कि इस नाजुक मसले पर अपनी लीक से हटकर सर्वदलीय बैठक बुलाई गई, जिसमें राहुल गांधी ने भी भाग लिया। सारे मामले में भारत के इर्द-गिर्द चीन की घेराबंदी की कोशिशें भी मायने रखती हैं। अभी तो प्रार्थना और उम्मीद कीजिये कि बांग्लादेश में सेना सदाशयता का परिचय देगी। भारत के लिए यह कूटनीतिक परीक्षा की घड़ी है।

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