समीक्षा@संध्या नवोदिता
पुस्तक समीक्षा – संध्या नवोदिता
पुस्तक- छत्तीसगढ़ में मुक्ति-संग्राम और आदिवासी
लेखक- डा. सुधीर सक्सेना
प्रकाशक- भारतीय ज्ञानपीठ
जब अंग्रेजों के खिलाफ भारत के आंदोलनों की बात आती है तो राष्ट्रीय स्तर के तमाम नेताओं के नाम हमें याद आते हैं. भारतीय शहीदों की एक लम्बी सूची है. इस में ऐसे बहुत से नाम हैं जो सितारों की तरह दूर से ही चमकते दिखाई दे जाते हैं, लेकिन तमाम सितारे ऐसे भी हैं जिनका कहीं नाम दर्ज होना तो दूर उन्हें हम जान ही नहीं पाए. बड़े इतिहासकारों के महत्वपूर्ण ग्रंथों में आज़ादी के नायकों की कथा कही गई, लेकिन इन्हीं ग्रंथों में आज़ादी के आदिवासी नायकों की कथाएँ या तो अनकही, अनंकित रह गयीं या फिर उनकी महान लड़ाइयों को महज एक दो पैरा में निपटा दिया गया.
बदलाव के लिए उठा कोई भी स्वर छोटा नहीं होता, मुक्ति के युद्ध बहुत धारदार होते हैं. डा. सुधीर सक्सेना की यह किताब पढ़ते हुए मैं भी चकित हुई और इस अफ़सोस से भर गयी कि नेतानार के गुन्डाधुर का नाम इतिहास की पाठ्य पुस्तक में क्यों नहीं पढ़ा. अजमेर सिंह, यादोराव, धुर्वाराव, गेंदासिंह, सोनाखान के शहीद वीर नारायण सिंह महान नायक हैं, जो अपनी अंतिम साँस तक मातृभूमि के लिए लड़ते रहे. 1910 का महान भूमकाल, जिसके कम्पन आज भी बस्तर की धरती में महसूस किये जाते हैं, क्या इतना मामूली था कि हमारी पाठ्य पुस्तकों में उसके बारे में चार पेज भी नहीं होने चाहिए थे. क्या बस्तर की क्रांतिकारी चिंगारियां कानपुर, बिठूर, झाँसी, सतारा, अवध से कम ज्वलनशील थीं. फिर मध्य भारत कहे जाने वाले हिन्दुस्तान के दिल की धडकनें उस तरह कहीं दर्ज क्यों नहीं हैं. यह जानना अपने देश को जानना है कि कम्पनी सरकार से संघर्ष का पहला परिचय बस्तर ने सन 1795 में दिया है जब कैप्टन ब्लंट को बस्तर में घुसने से रोक दिया. यानी 1857 के विद्रोह से भी पहले.
इतिहास लेखन बहुत ज़िम्मेदारी का काम है. इसे किसी की पसंद नापसंद या अपने व्यक्तिगत नजरिये पर छोड़ना भी बेईमानी है. इसमें सेलेक्टिव होना खतरनाक है. यह कहानी नहीं है कि हम जिसे चाहे नायक बना दें. हालाँकि बस्तर की मिट्टी के बाशिंदे अपनी स्मृतियों, लोक कथाओं और गीतों के माध्यम से अपने नायकों को ज़िंदा रखे हुए हैं. यही कारण है कि आज आप अगर इंटरनेट पर खोजेंगे तो बस्तर और भूमकाल दोनों आपको मिलेंगे. बुरा लगता है कि मध्य भारत अपने संसाधनों से भरपूर धरती और जीवट वाली ऊर्जा के बावजूद केन्द्रीय सत्ता का प्रिय कभी नहीं बन पाया. बैलाडीला को अंग्रेज व्यापारियों के खूनी पंजे से तो बचा लिया गया पर आज़ाद भारत में सौदागरों ने उस पर वक्र दृष्टि गड़ा ही दी.
लेखक: डॉ. सधीर सक्सेना
इस अर्थ में डा सुधीर सक्सेना की किताब छत्तीसगढ़ में मुक्ति संग्राम और आदिवासी बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है कि यह काम बहुत पहले हो जाना चाहिए था, कम से कम आज़ादी के बाद भारत के हर हिस्से से लड़ रहे आज़ादी के नायकों की संघर्ष कथा के तथ्य संकलित करके इतिहास लेखन और इसका पठन पाठन सुनिश्चित करना आज़ाद भारत की सत्ता का मुख्य कार्य होना चाहिए था, आखिर अपने इतिहास के बिना हम क्या हैं!
यह पुस्तक में मध्य भारत का इतिहास है. यूँ जानिये कि जिस दिन बस्तर में गोरे लुटेरे का पहला कदम पडा उसी दिन उसके खिलाफ लड़ाई का बिगुल भी बज गया, 1857 से पहले 1824 में परलकोट के जमींदार गेंद सिंह, 1856 में लिंगागिरी के फांसी पर चढ़ा दिए गए धुर्वाराव, वन मित्र नागुल पोटला , निर्वासित किये गए लाल कालेन्द्र सिंह, कारावास में डाली गई राजमाता सुवर्ण कुमारी, शहीद हूंगा मांझी, आयतू महरा, एडका, कोला, भीमा, बिज्जा, बेन्द्री, कांकेर रियासत के इन्दरू केवट, शहीद रमोतीन बाई … ऐसे कितने ही नाम पुस्तक में दर्ज करके लेखक ने हम सब का कर्ज ही उतारा है. कम्पनी राज से शुरू होकर गाँधी के आगमन तक के तमाम विद्रोहों पर विस्तार से जानकारी है. बहुत छोटी छोटी डिटेल हैं. इनमें काफी कुछ अँगरेज़ सरकार के गैजेटियर से लिया गया है. यह पुस्तक बस्तर को लेकर भारतवासियों में गौरव बोध कराती है. अपने मामूली संसाधनों में, एक धोती लपेटे आदिवासी अपने तीर कमान, कुल्हाड़ी, गंडासे के दम पर दुनिया की सबसे ताकतवर, अन्यायी और बेरहम औपनिवेशिक सत्ता से भिड़ गए. ये तथ्य जानकर तत्कालीन अंग्रेजों से नफरत गाढ़ी हो जायेगी. जिनके खाते में भूमकाल से लेकर जलियांवाला तक की हत्याएं दर्ज हैं. यादोराव से लेकर गुन्डाधुर और भगतसिंह जैसे नौजवानों की हत्याओं का कलंक इन अंग्रेजों के माथे पर है. इतनी क्रूरता, अमानवीयता, डकैती, लूट के लिए उन को आज सचमुच कटघरे में खड़े किये जाने की जरूरत है. इसलिए भी कि आज की लुटेरी सत्ताएँ भी इससे सबक ले सकें.
पुस्तक की भूमिका अजित प्रमोद जोगी ने लिखी है. वही जिन्हें आप और हम अजित जोगी के नाम से जानते हैं. आज जब यह पुस्तक हमारे हाथ में है, दुर्भाग्य से वे नहीं हैं. बमुश्किल हजार शब्दों की यह भूमिका पुस्तक के बारे में रुचि जगा देती है. वह लिखते हैं- ‘इतिहास का सच बहुत मूल्यवान होता है. इस सच की हमें हर कीमत पर खोज और रक्षा करनी चाहिए. भारत की आजादी की लड़ाई में शरीक कांग्रेस के नेताओं और खुदीराम, भगत, आज़ाद, बिस्मिल, अशफाक को तो हम जानते हैं, किन्तु बड़ी संख्या ऐसे नायकों की भी है जिनके नाम, गाँव हम नहीं जानते. आजादी की लड़ाई की अंकित गाथा में बहुत सारे लोग अनंकित हैं. यह छूटा हुआ बहुत कुछ हमारे लिए बहुत मूल्यवान और सार्थक है. बीते कल को जानकर हम अपने आज को समझ सकते हैं और आगामी कल को सँवार सकते हैं.’
लगभग ३६० पेज की इस शोधपरक इतिहास पुस्तक में मध्यभारत के निवासियों की अंग्रेजो के विरुद्ध शौर्य और संघर्ष गाथा है. इस किताब को लिखने में लेखक को बहुत श्रम करना पड़ा है. बहुत से आर्काइव खंगालना, गजेटियर देखना, जन स्मृतियों और स्थानीय इतिहासकारों की मदद लेना. यह पुस्तक पाठक में और जानने की जिज्ञासा जगाती है. अभी ऐसी कई किताबों की दरकार है. और उम्मीद की जानी चाहिए कि लेखक इस किताब को मध्य भारत के इतिहास की प्रस्तावना मानते हुए आगे अभी बहुत कुछ जोड़ेंगे.
पुस्तक बेहद पठनीय है. आमतौर पर इतिहास को उबाऊ विवरणों से भरा माना जाता है. लेखक एक पत्रकार हैं और कवि भी. पूरी दुनिया की घटनाओं पर उनकी पैनी निगाह रहती है. वह एक कमरे में बैठ कर नहीं लिखते बल्कि उन्होंने देश दुनिया की तमाम यात्राएं की हैं. वह बस्तर में रहे हैं. उनके इस स्वभाव का लाभ पुस्तक को मिला है. यह पुस्तक मृत तथ्यों का भंडारण नहीं है. बल्कि किताब में बस्तर का हृदय धड़कता है. खुद लेखक के शब्दों में- ‘कैसा आश्चर्य है कि बस्तर के महान भूमकाल के नायक गुन्डाधुर का नाम बस्तर से सैकड़ों योजन दूर भोपाल में पहले पहल सुनने को मिला. बस्तर की आत्मा से एकाकार आचार्य डा. हीरालाल शुक्ल के जरिये हुआ. भूमकाल घटे एक सदी हो चुकी है. यह विचारणीय है कि इन्द्रावती के तट पर हुए इस लोहित प्रतिकार की स्मृति को संजोने की दिशा में सत्ता, साहित्य और समाज ने अपनी-अपनी भूमिका का निर्वाह कितना और किस तरह किया.’
हाँ, पुस्तक का एक अध्याय गाँधी पर है. गाँधी इस तरह और विराट बनकर उभरते हैं. वे दक्षिण अफ्रीका में भी हैं, लंदन में भी, दिल्ली, गुजरात में और गहन बस्तर के आदिवासियों में भी. गाँधी सचमुच इस देश की आत्मा हैं. लेखक के शब्दों में नव वामन के दस डग विराट यानी गाँधी ने अपने दस विराट कदमों में मध्य भारत को नाप डाला था. जंगल सत्याग्रह आग की तरह फैल गये.
यह भी जानना दिलचस्प है कि गुन्डाधुर से ही क्या नकारात्मक शब्द गुण्डा आया ! क्योंकि क्रूर अंग्रेजों ने हमारे नायकों की नकारात्मक छवि गढ़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी. हालाँकि गुण्डा की उत्पत्ति पश्तो से बताई गई है, पर दूसरा दावा करने वाले भी कम नहीं हैं.
पुस्तक में प्रूफ की गलतियाँ हैं. आशा है आने वाले संस्करण में इसे दुरुस्त कर लिया जायेगा. यह पुस्तक सामान्य छात्र, बुद्धिजीवी, आंदोलनकर्ताओं, दुनिया बदलने में लगे नौजवानों और जिज्ञासुओं के लिए बहुत उपयोगी है. लेखक डा. सुधीर सक्सेना इस पुस्तक को पाठकों के बीच लाने के लिए बधाई के पात्र हैं. इस ज़रूरी और सार्थक प्रकाशन के लिए भारतीय ज्ञानपीठ का धन्यवाद. खासकर इसलिए कि यह पुस्तक बहुत कम जाने गए मध्य भारत का इतिहास है. सजिल्द किताब की कीमत 650 रूपये है. अच्छी किताबें अधिकतम चार सौ में उपलब्ध हो जाये तो कितना अच्छा हो. यह सरकारों की भी जिम्मेदारी है कि अच्छा और ज़रूरी साहित्य जन जन तक पहुँचाने में हर संभव सहयोग किया जाए.