सामयिकी @ डॉ. दीपक पाचपोर
क्या भारत में मुद्दों पर आधारित राजनीति के दिन लद गये?
-डॉ. दीपक पाचपोर
5 राज्यों के समाप्त हुए विधानसभा के चुनावों के गुरुवार को घोषित परिणाम इस लिहाज से खतरनाक हैं कि वे भारत में मुद्दों पर आधारित राजनीति की विदाई के संकेत दे रहे हैं। अगर भावनात्मक मुद्दों पर चुनाव लड़े एवं जीतते जाते रहे तो जन सरोकार पीछे छूटता चला जायेगा।
सरकारों से कामकाज का हिसाब लेने की एकमात्र जगह संसद, विधानसभाएं या स्वायत्त संस्थाएं हैं तथा अच्छा काम न करने के लिये उन्हें सजा देने का तरीका विरोधी मतदान करना होता है। लगभग 70 वर्षों के हमारे राजनैतिक इतिहास में हमने कई सरकारों को अच्छे कामों के लिये पुरस्कृत एवं खराब प्रदर्शन के लिये दण्डित होते हुआ देखा है। प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू एवं उनकी पार्टी (कांग्रेस) को खुश होकर 3 बार लोगों ने जीत का उपहार दिया। प्रिवी पर्स की समाप्ति, बैंकों के राष्ट्रीयकरण, गरीबी उन्मूलन के उनके प्रयासों ने इंदिरा गांधी को 1971 में जबर्दस्त जीत दिलाई, तो वहीं आपातकाल जैसे जनविरोधी निर्णय के लिये 1977 में उन्हें नेस्तनाबूद कर दिया। 1984 में इंदिरा गांधी की मृत्यु से ऊपजी सहानुभूति लहर ने राजीव गांधी को बम्पर विजय दिलाई, पर बोफर्स कांड के कारण उन्हें 1989 में हार का सामना भी करना पड़ा। भ्रष्टाचार के आरोपों में पीवी नरसिंह राव व मनमोहन सिंह की सरकारों को भी जाना पड़ा था। अच्छा काम करने के लिये सत्तारुढ़ दलों को सत्ता में लौटाना एवं खराब काम करने पर उन्हें सत्ताच्युत करना जनता का न केवल अधिकार है बल्कि लोकतांत्रिक प्रणाली का मूलाधार। जनता की यही शक्ति सरकारों को कमर कसकर ईमानदारीपूर्वक काम करने पर मजबूर करती है। अगर जनहित के कार्य न करने या जनविरोधी काम करने के बाद भी मतदाता किसी पार्टी को सत्ता में बनाए रखते हैं या फिर अच्छे काम करने के बाद भी किसी उम्मीदवार या पार्टी को हरा देते हैं तो यह लोकतंत्र के लिये खतरे की घंटी है। लोग अपने मनपसंद प्रत्याशी या राजनैतिक दल के हर हाल में (काम किये बगैर या उनके हितों के विरूद्ध काम करने के बावजूद) जीतने की चाहत रखते हैं अथवा उनके पक्ष में ही वोट करते हैं तो नागरिक के रूप में उनका लोप हो गया है। वे राजनैतिक दलों के लिये एक‘टेकन ऑर ग्रांटेड मतदाता’ से अधिक कुछ नहीं हैं जो किसी भी हाल में उनकी जेब से रहेगा।
यह भावना ही अलोकतांत्रिक है जिसमें मान लिया जाता है कि हमारा कोई नेता ही देश है और कोई राजनैतिक पार्टी ही देश की एकमेव प्रतिनिधि है। उनके विरोध में बात करना देश के खिलाफ होना नहीं है। लोकतांत्रिक दृष्टि से परिपक्व देशों में सरकारों को पार्टी मंचों पर जनता की प्रतिनिधि समझी जाने वाली कार्यकारिणी समिति के समक्ष कामकाज का लेखा-जोखा देना होता है। यह प्रधानमंत्री-राष्ट्रपति से लेकर हर किसी के लिये ज़रूरी है। हमारे यहां निर्वाचित नेताओं को ही सब कुछ मान लिया जाता है। मान्य प्रक्रिया के ठीक उलट यहां बड़े पदों पर बैठे लोग ही संगठन एवं उनके प्रतिनिधियों पर हावी होते हैं। यहां तक कि साम्यवादी देशों में भी, जहां एक दलीय शासन प्रणाली है, संगठन ही सत्ता को नियंत्रित करता है। पार्टी का महासचिव राष्ट्रपति से हिसाब लेता है, सरकार की नीतियां निर्धारित करता है। एक समय तक पूर्ववर्ती जनसंघ एवं वर्तमान भाजपा में यह प्रवृत्ति थी। हालांकि अब दुनिया भर में यह मानसिकता बदल रही है। अब संगठन को सत्ता नियंत्रित करने लगी हैं। सम्भवतः इसका कारण यह है कि हाल के वर्षों में, खासकर नब्बे के दशक की शुरुआत से लागू नई आर्थिक प्रणाली में सत्ताएं आर्थिक रूप से बेहद ताकतवर एवं प्रशासकीय शक्तियों से लैस हो गई हैं। संगठन उन पर वित्तीय ज़रूरतों के लिये आश्रित है और उनसे घबराता भी है। फिर, सत्ता पर काबिज लोग उद्योग जगत, निवेशकों, देशी-विदेसी कारोबारियों आदि की सुविधानुसार अपनी नीतियों का निर्धारण करते हैं जिसमें वे संगठन की दखलंदाजी पसंद नहीं करते।
अगर इस चुनाव में हम प्रचार का तरीका देखें तो इनमें मुद्दों का ध्रुवीकरण हुआ था। एक ओर तो भाजपा ने अपने परिचित अंदाज में ही चुनाव लड़ा; यानी कि जनता के भावनात्मक मुद्दों को हवा दी। साम्प्रदायिकता, धार्मिकता, जातीय समीकरण, कथित देशभक्ति, आक्रामक राष्ट्रवाद आदि के मामले उठे। विरोधी दलों को ‘माफिया’ बतलाया गया, किसी से पिता का प्रमाण मांगा गया, कोई ‘कुत्ता’ हुआ, ‘श्मशान-कब्रिस्तान’, ‘गर्मी-चर्बी’, ‘तमंचा-माफिया’, हिन्दू-मुसलिम, भारत-पाकिस्तान, जिन्ना, देशद्रोह, टुकड़े-टुकड़े गैंग, माफिया, तमंचा की बातें हुईं। लोगों के जीवन से जुड़े मुद्दे सत्ताधारी दल भाजपा के प्रचार के दौरान नदारद रहे। इसी चुनाव में, खासकर उत्तर प्रदेश में ‘नमक खाने-खिलाने’ के सन्दर्भ में एक ‘बेहद गरीब’ बुजुर्ग महिला का जिक्र आया। यह उसी उप्र का मामला है जहां कि सम्पन्नता और खुशहाली का दावा किया जाता है। इसके विपरीत उस राज्य में आधी आबादी यानी 12-13 करोड़ लोग भीषण गरीब की परिभाषा में आते हैं। यही हाल पूरे देश का है। एक सरकारी रिपोर्ट के अनुसार देश में 80 करोड़ लोगों की आय पिछले दो साल के दौरान घटी है और 27 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे चले गये हैं। 5 में से चार राज्यों ने उसी दल यानी भाजपा को जिताया है जिसकी सरकार द्वारा लाई गई नोटबंदी, जीएसटी, स्टार्टअप, मेक इन इंडिया, जन धन आदि जैसी नाकाम योजनाओं के साथ अपने शासित कई राज्यों में कोविड-19 के नियंत्रण में बेहद खराब प्रदर्शन किया है। कोरोना की विभीषिका के कारण लाखों छोटे व मध्यम श्रेणी के उद्योग-धंधों एवं व्यवसायों के बंद हो गये और मध्य वर्ग, निम्न मध्य वर्ग तथा निम्न वर्ग की कमर टूट गई।
दूसरी तरफ समाजवादी पार्टी व राष्ट्रीय लोक दल गठबन्धन के प्रमुख क्रमशः अखिलेश यादव एवं जयंत चौधरी ने जमीनी मुद्दों पर चुनाव लड़ा। इसके साथ ही कांग्रेस की राष्ट्रीय महासचिव व प्रदेश प्रभारी प्रियंका गांधी ने‘लड़की हूं, लड़ सकती हूं, का नारा देकर महिलाओं के राजनैतिक सशक्तिकरण का प्रयोग किया। 40 फीसदी महिलाओं को टिकटें देकर उन्हें मैदान में भी उतारा। ऐसे ही, युवाओं को रोजगार देने के लिये ‘भर्ती विधान’ के नाम से अलग घोषणापत्र भी जारी किया।
त्रासदी यह है कि जिस लखीमपुर खीरी में केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्र टेनी के लड़के आशीष मिश्र मोनू ने सभा से लौटते किसानों पर अपना वाहन चढ़कर 4 किसानों, एक पत्रकार एवं 3 भाजपाइयों को ही मार दिया, उसी के अंतर्गत पड़ने वाले आठों विधानसभा क्षेत्रों में भाजपा के प्रत्याशी जीत गये। ऐसे ही, एक बलात्कार पीड़िता की मां ने भी कांग्रेस की टिकट पर चुनाव लड़ा लेकिन उन्हें करीब 700 वोट ही मिले। एक ओर तो इन मतदाताओं ने बता दिया कि वे किसके साथ खड़े हैं, वहीं दूसरी ओर सम्भवतः संगठन के भीतर ही प्रियंका की इस बात के लिये आलोचना हो सकती है कि यह कदम रणनीतिक रूप से गलत था जिससे पार्टी को भारी नुकसान हुआ।
इसके साथ ही उत्तराखंड, मणिपुर, गोवा एवं पंजाब में भी चुनाव हुए परन्तु उनका आकलन इसलिये यहां नहीं किया जा रहा है कि उनका असर वैसा राष्ट्रव्यापी नहीं होता जैसा कि उप्र के चुनावी नतीजों का। अलबत्ता, पंजाब में आम आदमी पार्टी द्वारा जिस प्रकार से कांग्रेस को हराया गया, उसके अलग तरह के असर होंगे जो इस विषय से इतर हैं। उप्र के चुनावों में जीत का फार्मूला अगर आगे के चुनावों में भी दोहराया जाता है तो जमीनी मुद्दे हमेशा पिछड़ते रहेंगे एवं सरकारों का बनना-गिरना भावनात्मक मुद्दों पर निर्भर हो जायेगा जो अच्छी बात नहीं होगी।
सामयिकी @ डॉ. दीपक पाचपोर, सम्पर्क- 098930 28383