सामयिकी @ डॉ. दीपक पाचपोर
आखिर यह नमक खाने-खिलाने की बात कहां से आ गयी?
-डॉ. दीपक पाचपोर
राजनैतिक भाषावली में भारत लगातार नये-नये कीर्तिमान स्थापित कर रहा है। देश की बहुदलीय व्यवस्थाएवं समग्र सियासत ही एक दूसरे को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति पर टिकी हुई है जो चुनावी माहौल में और भी उग्र, हिंसक, प्रतिस्पर्धियों के प्रति अदिक क्रूर एवं अपमानजनक तो होती ही जा रही है, उसके लपेटे में आम जनता भी आ रही है जिसके सम्मान एवं गौरव को हमारे राजनेता लगातार धूल धूसरित कर रहे हैं। कमोवेश सभी लोग इसके दोषी हैं, परन्तु सबसे दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इस पर नियंत्रण करने की बजाये जिन संस्थाओं को इस पर काबू पाने व कार्रवाई करने की जिम्मेदारी है वे भी मौन रहकर इस खेल को बढ़ने दे रही हैं। राजनैतिक दलों या व्यक्तियों द्वारा परस्पर आरोप-प्रत्यारोप लगना-लगाना वैसे तो आपसी प्रतिद्वंद्विता तक सीमित रखना चाहिये था लेकिन येन केन प्रकारेण इस प्रक्रिया में उन नागरिकों का अपमान करना बेहद दुखद महसूस होता है जो पहले से ही पीड़ित और शोषित हैं। सार्वजनिक मंचों से शासकों के उद्बोधन एवं वाक्य जनता के घावों पर मरहम लगाने की बजाये उसे अधिक पीड़ा देते हैं। सर्वाधिक यातनापूर्ण तो यह है कि इस अलोकतांत्रिक व्यवहार का नेतृत्व स्वयं शासक दल यानी भारतीय जनता पार्टी एवं उनके शीर्ष नेता कर रहे हैं, जिनमें प्रमुखतः प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह, भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा, कुछ राज्यों के मुख्यमंत्री एवं कई प्रवक्तागण कर रहे हैं।
पिछली सरकारों पर 60 वर्षों के दौरान कुछ न करने की बात करने वाले प्रधानमंत्री मोदी तो एक से एक बातें सामने ला रहे हैं। भरी लोकसभा में महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) को ‘विफलता का स्मारक’ या एक पूर्व प्रधानमंत्री द्वारा रेटकोट पहन कर नहाने जैसी बातें कहने वाले मोदी यह कभी नहीं बतला सके कि वे उस विफल योजना (मनरेगा) क्यों जारी रखे हुए हैं और जिस भ्रष्टाचार की ओर वे रेनकोट वाली बात के जरिये कर रहै थे उस बाबत उन्होंने अब तक क्या किया है? पुराने शासकों को भ्रष्टाचारी, परिवारवादी, अंधविश्वासी, आतंकवादी, अपराधी आदि कहने की बात अगर सच है तो उन्हें बताना चाहिये कि इन करीब आठ वर्षों में उन्होंने कितनों के खिलाफ कार्रवाई की है। अब तो सारी जांच एजेंसियां एवं व्यवस्थाएं उन्हीं के हाथों में हैं। इसी कड़ी में मोदी का नया आईटम है- ‘नमक खाना-खिलाना।’ सन्दर्भ है उत्तर प्रदेश की एक चुनावी सभा में उनके द्वारा एक वीडियो का जिक्र जिसमें एक बुजुर्ग महिला यह कहती सुनी गई कि “वह भाजपा को इसलिये वोट करेंगी क्योंकि उसने मोदी का नमक खाया है।” इसे लेकर जब कांग्रेस की नेता प्रियंका गांधी ने उनकी जमकर खबर ली तो वाक् कला में निष्णात मोदी ने अगली सभा में स्थिति सुधारने की कोशिश की और कहा कि “बुजुर्ग का यह कथन उनके लिये आशीर्वाद की तरह है। यह नमक न उनका दिया हुआ है और न ही योगी (यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ जिनके नेतृत्व में चुनाव लड़ा जा रहा है) का, बल्कि वे खुद जनता का दिया नमक खा रहे हैं। मतदान करके जो हमें सरकार थमाई है यह उसी नमक की अदायगी है।” यह आश्चर्य की बात है कि मोदी उसे ‘बेहद गरीब’ बुजुर्ग महिला कहकर सम्बोधित कर रहे हैं। अब तक जो भाजपा उप्र में खुशहाली का दावा करती है तो उसे यह बतलाना चाहिये कि यह ‘बेहद गरीब’ कहां से आई? अब तो लोग कहने लगे हैं कि क्या यह राशन और नमक मोदी के घर से आ रहा है। 5 किलो राशन एवं नमक के इस मुद्दे का भाजपा ने उप्र के चुनावों में फायदा उठाने की कोशिश की थी लेकिन लाभार्थी का यह मुद्दा भी उनके इस बयान से उलटा पड़ रहा है। वास्तविकता तो यह है कि उप्र में आज 12-13 करोड़ लोगों के सामने भीषण गरीबी का संकट है। वैसे तो पूरे देश का यही हाल है। स्वयं सरकार की रिपोर्ट बताती है कि देश में 80 करोड़ लोगों की आय घटी है और 27 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे चले गये हैं। इतना ही नहीं, यह हमारे नागरिक बोध को भी दर्शाता है कि कैसे सिर्फ एक थैला अनाज व नमक के लिये वोटर अपना समर्थन किसी को भी दे सकते हैं।
सवाल तो यह है कि आखिर यह नमक खाने-खिलाने की बात कहां से और किस मानसिकता से आई है? दरअसल यह भावना ही सामंतशाही है जिसमें जनता को याचक एवं सरकारों को दाता के रूप में देखा जाता है। जैस-जैसे नवपूंजीवादी व्यवस्था में लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा लुप्त हो रही है, जनता को मिलने वाली छूटों, सब्सिडी, निशुल्क सुविधाओं में एक तरफ तो सरकारें कटौती कर रही हैं तो दूसरी ओर लाभार्थी वर्गों का उपहास उड़ाया जाता है, अपमान किया जाता है और इन योजनाओं की आलोचना ‘मुफ्तखोरी’ या ‘करदाताओं पर बोझ’ कहकर की जाती है। सच तो यह है कि यह न केवल जनता का बुनियादी हक है वरन आज सर्वाधिक ज़रूरत ऐसी ही योजनाओं की है जिनसे लोगों का जीवन स्तर सुधरे व उन्हें सीधा लाभ मिले। मोदी सरकार द्वारा लागू नोटबंदी, जीएसटी, स्टार्टअप, मेक इन इंडिया, जन धन आदि योजनाओं की लगातार असफलताओं से भारत के मध्य, निम्न मध्य एवं निम्न वर्ग पहले से ही गम्भीर आर्थिक समस्याओं से जूझ रहे हैं। दो साल के कोरोना ने इन वर्गों के लोगों की कमर तोड़कर रख दी है। कोविड-19 की विभीषिका के कारण लाखों छोटे व मध्यम श्रेणी के उद्योग-धंधों एवं व्यवसायों के बंद होने से इन दो साल में मध्य वर्गीय लोग बड़ी संख्या में निम्न मध्य वर्ग में और इस वर्ग के लाखों लोग निम्न वर्ग में शामिल हो गये हैं। ऐसे ही, निम्न वर्ग के करोड़ों लोग गरीब एवं गरीब अति गरीबों की श्रेणी में शामिल होते जा रहे हैं।
ऐसे समय में जब इन लोगों के सशक्तिकरण के लिये सरकार को लोक कल्याण के बड़े कदम उठाये जाने थे, अगर देश का मुखिया गरीबों को मुफ्त राशन देने एवं नमक के बल पर एक राज्य का विधानसभा चुनाव जीतने का ख्वाब देखता है तो इससे अधिक दुर्भाग्यजनक बात और कुछ भी नहीं हो सकती। यह न तो गौरव करने की बात है और न ही जनतंत्र-सम्मत नज़रिया। वह इसलिये कि जनता को जो भी दिया जाता है वह नेताओं या शासकों की जेब से नहीं बल्कि वह विविध टैक्सों के जरिये मिली राशि से दिया जाता है। इसके बचाव में अक्सर कह दिया जाता है कि इस देश में आखिर कितने नागरिक टैक्स देते हैं। चाहे लोग सीधे इनकम टैक्स न देते हों परन्तु वे एक दियासलाई खरीदते वक्त भी उसमें जुड़े टैक्सों, शुल्कों के साथ कीमत का भुगतान करते हैं। जनसंख्या के मुकाबले चाहे बहुत कम लोग आयकर देते हैं लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि भारत मूलतः एक कृषि प्रधान देश है और कृषि पर छूट का प्रावधान तो सरकार ने ही किया हुआ है। फिर, बड़ी संख्या में लोग बेरोजगार हैं या हमारे पास कोई भी काम न करने वाली जनसंख्या है, जिनमें बच्चे, गृहणियां, वृद्ध, विकलांग, बीमार आदि लोगों की आबादी है। इसके बाद भी अगर सरकार को लगता है कि लोग अपनी आय को छिपा रहे हैं तो सरकार के पास वह सारी व्यवस्था है जिसके अंतर्गत आय छिपाने वाले के खिलाफ वह कार्रवाई कर सकती है। अगर वह ऐसा नहीं करती तो उसे जनता का अपमान करने का कोई हक नहीं है।
सामयिकी @ डॉ. दीपक पाचपोर, सम्पर्क- 098930 28383