कविता @ भरत स्वर्णकार
शहर से दूर ,,,,,,,
छोटे से गांव में
अभी भी नानी का घर है ।
सत्तर सालों में
इतना हुआ है कि
गांव में बिजली
पंहुंच गई है और
गांव तक बस चलती है ।
पापा बुलाते हैं नानी को
शहर में आकर रहने को
मगर
वह हंस कर कह देती है
इस उम्र में अब आना-जाना
नहीं होता बाबू !
और गांव-घर
छोड़ते भी नहीं बनता ।
तुम्हीं भेज दिया करो
बच्चों को छुट्टियों में
चार दिन हंस-खेल लेंगे ।
शहर से दूर छोटे से गांव में
वैसे तो कुछ नहीं है
है तो बस एक बूढ़ी नानी
और ढे़र सारा प्यार ।
सुंदर सपने ,,,,,,
धुर गांव से निकलकर
आया था महानगर में
सुंदर सपने लेकर ।
सपने तो सपने ही रहे
महानगर की जमीन पर
पैर जमाना कठीन था ।
जिंदगी की न्यूनतम जरूरतें
पूरी करते-करते
वह कब आदमी से
मशीन बन गया
पता ही नहीं चला ।
दिन भर मशीन की भांति
चलते रहता है खटाखट
रात होते ही
मर जाता है बिस्तर पर
सुबह फिर वही जद्दो-जहद ।
जागते क्या
सोते समय भी
सुंदर सपने देखने को तरस गया है।