लोकरंग @ निलय उपाध्याय

प्रस्तुति-लक्ष्मीकांत मुकुल

भोजपुरिया चित्र कला- पिंड कला

क्या भोजपुरिया कला पिंड कला है ?

इस प्रश्न का उत्तर कही नही मिलता। कम से कम मुझे तो नही मिला। न किताबों मे न आख्यानो मे और न ही लोक की वाचिक परंपरा में। न्याय दर्शन मे अनुमान एक पद्धति है।अगर कही धुंवा उठता दिख रहा है तो हम मान लेते है कि वहाँ आग जल रही होगी। इस तरह भोजपुरिया कला को पिंड कला के रूप मे दर्ज करना धुंवा देख कर अगिन का अनुमान करना है।मेरा कोई दावा नही है पर जिस अनुमान के सहारे मै यहाँ तक पहुंचा हूँ उसे बस आपके साथ शेयर करना चाहता हूँ।

इस वक्त मैं खुद को आपकी न्यायिक अदालत के एक कठघरे मे खड़ा कर आपके फैसले का इंतजार कर रहा हूँ। इस इलाके के बारे मे वैदिक काल से आज तक की चित्र कला के विस्तार और सभ्यता के अवरोध को देखता हूँ तो मेरे भीतर से यह आवाज आती है की हाँ भोजपुरिया कला पिंड कला है। इस विस्तार में अकेले चित्र नही है बल्कि उससे जुड़ी कई चीजे है जो मुझे संकेत देती है और यकीन करने पर विवश करती है कि भोजपुरिया चित्र कला पिंड कला है।

बचपन मे हमारे घर मिट्टी की दीवारों और खपडे के छप्पर से बने थे। हर साल बारिश आरंभ होने के पहले छप्पर की मरम्मत होती थी और बारिश खत्म होने के बाद दीवारों की। दीवारों मे जहां टूटन होती मिट्टी लगाया जाता और उसके बाद गोबर और मिट्टी के घोल से उसकी लिपाई पुताई होती। घर मे कोई आयोजन होता तो भी दीवारों की गोबर मिट्टी से पुताई होती थी। उत्सव में पुताई के बाद मेरी बुआ गेरू, चुना से रंग तैयार करती और सीढ़ी के सहारे दीवारों पर चित्र बनाती। नीचे से उन्हे किसी सामान की जरूरत हो तो थमाने के लिए मै खड़ा रहता |दीवारों पर उनके चित्र बनाने की शैली को मै बड़े गौर से देखता। उनके हाथ मे कपड़े का छोटा सा टुकड़ा होता और उसे रंग मे भिंगो कर दीवार पर चित्र बनती। मेरे लिए सबसे आश्चर्य जनक था कि वे रेखा नही खिचती थी। उनकी पांचों उगलिया एक साथ मिल जाती और इस तरह चलती जैसे दीवार पर कोई गौरैया फुदक रही हो। उनकी रेखाए इस तरह बनती जैसे कोई बिन्दु उछल उछल चल रही हो। इस तरह वे दीवारों पर हाथी घोडा पेड लताए बनाती, उसमे अलग अलग रंग भारती ,देखकर मै सम्मोहित रहता। वही जब नाग पंचमी का दिन आता तो दीवारों पर सर्प की आकृति बनती। यह आकृति सीधी रेखा मे बनती।

कुछ साल पहले जब मै विंध्य पर्वत पर चेरो खरवारों के गाँव की ओर घूमने गया था तो उनकी मिट्टी की दीवारों पर उसी तरह के चित्र भारी संख्या मे दिखे जिसमे रेखाओ का इस्तेमाल नहीं हुआ था बल्कि जैसे कोई बिन्दु उछल उछल चल रही हो। मुझे बुआ के चित्र याद आ गए। मैंने एक औरत से पूछा तो उसने बताया की हम चित्र एसे ही बनाते है। हमारी दादी भी इसी तरह बनाती थी मेरे भीतर बनाने के शैली की तरह यह बात बैठ गई। तब से लोक और शास्त्र मेँ इसकी पड़ताल मैंने आरंभ कर दी।

चित्र कला के कई पैमाने है

शास्त्रीय पैमाने अलग है, लोक के पैमाने अलग। अगर इसके रूपों की बात करे तो इसका विभाजन हम कई रूप मे कर सकते है जो सर्व स्वीकृत पैमाना है। चित्र कला सृजन का स्रोत है और इसके आधार मे मूर्ति कला, भीति चित्र,अल्पना , कोहबर, पर्व -त्योहार, संस्कार और यज्ञ के विधान मे शामिल होने वाले अनगिनत चित्र आते है।

इसके मूल स्रोत की पड़ताल मे मुझे भृगु के पास जाना पड़ा। मैं बता चुका हूँ कि भृगु का भोजपुरिया संस्कृति के विकास मे बहुत बड़ा योगदान रहा है। भृगु संहिता उनका ग्रंथ है। यह ग्रंथ भारतीय ज्योतिष के ज्ञान का भी आधार है। आज भी भृगु संहिता अकेला शास्त्र है जो काल के चक्र को पीछे घूमा देता है। पूरी दुनिया का ज्योतिषीय ज्ञान आपका भविष्य बताता है किन्तु भृगु का ज्योतिष आपका भूत और अतीत भी बताता है। भृगु संहिता पूर्व जन्म मे आप कौन थे और आपका पिछला जन्म कैसा था, बताता है।

भृगु का ज्योतिष सृष्टि की व्याख्या अलग तरह से करता है। यह भृगु की ही अवधारणा है कि जो पिंड में है वही ब्रह्मांड मे है। वह पूरे ब्रह्मांड मे नौ ग्रहो को नौ बिन्दु मानता है जहां से नौ प्रकार की तरंगे निकलती है। वह यह भी मानता है कि हमारे भीतर भी तदनुसार नौ बिन्दु है। किसी व्यक्ति या इकाई की समस्त प्रकृति गुण ओर प्रवृति इन नौ विंदु से निकालने वाली तरंगो पर निर्भर करती है। ब्रह्मांड से नौ बिन्दुओ से निकालने वाली तरंगो से हमारे भीतर के नौ बिन्दु प्रभावित होते है। यह विषय बहुत गहन है और हमारा उद्देश्य उधर जाना नही है। भृगु संहिता से आधार लेकर हम बस यह बताना चाहते है यह बिन्दु ही पिंड है जिसका विस्तार यह ब्रह्मांड है।

दुनिया भर की चित्र कला मे रेखाओ का इस्तेमाल होता है किन्तु भोजपुरिया चित्र कला मे बिन्दु का इस्तेमाल होता है। बिन्दु के उछल उछल चलाने से रेखाओ का निर्माण होता है। दीवार के चित्रो मे कोहवर हो ,अल्पना हो या अन्य विधान ,पूरे विहार मे बनाए जाते हौ। जानवर ,देवता और प्रकृति के चित्र भी पूरे बिहार मे बनाए जाते है। यह एक बुनियादी अंतर है जो भोजपुर की चित्रकला को देश की अन्य चित्र शैलियो से अलग करता है। यहाँ पाठ मे चौका पुराने के लिए आटा का इस्तेमाल होता है जो जमीन पर पड़ते ही बूंद बूंद अलग हो जाता है।

प्रारम्भिक काल मे आश्रम होते थे

वह आश्रम महत्वपूर्ण माना जाता था जहां के उत्सव मे आस पास के गांवों के आम लोग अधिक संख्या मे भाग लेते थे। आश्रम के ब्रहमचारी तरह तरह की वेदियाँ बनाते, हवन कुंड बनाते और दीवारों को सजाते। जो लोग वहाँ जाते, उसे देखते और उसका अनुकरण करते। इस तरह यह चित्र शैली जीवन मे आ गई। भृगु के आश्रम मे यज्ञ के दौरान जिस चित्र शैली की स्थापना की गई वह ब्पद्धति लोक जीवन मे आ गई।

भोजपुर जनपद मे एक पर्व है पीडिया। इस पर्व की चर्चा किए बिना यह बात पूरी नहीं होगी। इस पर्व का उल्लेख किसी पंडित के पतरा मे नही मिलता। इसे लड़किया दीवार पर गोबर की पीड़ियों से बनाती है। जैसे चिड़िया अंडा सेती है उसी तरह लड़किया उसे सेती है और कई दिन तक सेने के बाद नदी मे उसका विसर्जन कर देती है। इन पीड़ियों का बहुत महत्व है। आम पुजा मे गौरी गनेस भी गोबर की पिंडियो से बनाए जाते है। शादी ब्याह के अवसर पर जो नांदी श्राद्ध होता है वहाँ भी गोबर की पीडिया बनाई जाती। काली यानि प्रकृति माता की सात पिंडिया ही बनाई जाती है। आज भी लेवा, डूसूति पर कढ़ाई और हजारो एसी जगहे मिल जाएंगी जहां आप पिंड काला की पड़ताल कर सकते है।
पीडिया मे खास कर सोलह पिंडिया बनाई जाती है। हम बता चुके है कि भृगु कि दादी का नाम कला थी। कला महर्षि कपिल मुनि की बहन थी जो सांख्य के प्रवर्तक थे। एक पुरुष आठ प्रकृति और सोलह विकार उसका मूल है और इस पीडिया का भी। इस तरह भोजपुर की कला का सीधा संबंध उस कला से है।

भोजपुरी कला अपनी पहचान खो चुकी है।

दो चार चित्रकारों की बात छोड़ दी जाय तो यह कला अपनी बिन्दु की ताकत खोकर अन्य का अनुसरण करती रेखा मे बदल चुकी है। इसकी पड़ताल मैंने की। बड़े रोचक परिणाम आए। पुराण काल मे धर्म का स्वरूप बदलाक। मोक्ष की परिभाषा बदली। तीनों ताप से मुक्त करने वाले तीर्थ समाप्त होने लगे। नए तीर्थ बने। बुद्ध को किसी और तरह पराजित न किया जा सका तो गया को तीर्थ बनाया गया। कहा गया कि गया मे पिंड दान न किया जाएगा तो आपके पुरखो को मुक्ति नही मिलेगी। जो बुद्ध ज्ञान से न उखड़ सके, कर्म कांड से उखड़ गए। तब यहाँ के मूल निवासी चेरो खरवार थे।

गया तीर्थ बनाते ही दूर दूर के राजा पिंड दान के आने लगे। मार्ग गंगा थी। राजा लाव लश्कर के साथ आते थे। यहाँ की उपजाऊ मिट्टी, हवा, जल उन्हे रास आ गया और इस इलाके चेरो खरवार समुदाय की भारी संख्या मे हत्या हुई। भय से बहुत सारे चेरो खरवार विंध्य के पहाड़ो मे भाग गए। उनमे कुछ की औरतों को बाहरी राजपूतो ने सेविका और रखईल बनाकर रख लिया। इन औरतों के कारण यह चित्र काला जितनी बची है, बची रह गई।

बिहार के अन्य भू भागो मे चटख रंग का इस्तेमाल होता है किन्तु भोजपुरिया चित्र शैली मे चटख रंगों का इस्तेमाल शादी व्याह मे ही किया जाता है। जैसे गहरा लाल रंग, हरा, नीला और काला। अन्य समय पर हल्के रंगों से भी चित्र में निखार लाया जाता है, जैसे- पीला, गुलाबी और नींबू रंग। इन रंगों को घरेलू चीजों से ही बनाया जाता है, जैसे- हल्दी, केले के पत्ते, लाल रंग के लिऐ पीपल की छाल और दूध का प्रयोग किया जाता था। हरा रंग बनाने के लिए सेम के पत्तो का इस्तेमाल होता था। चित्र बनाने के लिए बाँस की कलम को प्रयोग में लाया जाता था। रंग की पकड़ बनाने के लिए बबूल के वृक्ष की गोंद को मिलाया जाता था।
_निलय उपाध्याय

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