आमंत्रण में पुदुचेरि @ डॉ. सुधीर सक्सेना
आमंत्रण में पुदुचेरि
• डॉ. सुधीर सक्सेना
पुदुचेरि तटीय नगर है; लासानी कि उसकी रंगत और मिजाज अलग है। इस रंगत में फ्रेंच वास्तु, दस्तरख्वान और विचार-आचार का गहरा और खूबसूरत पुट है। पुदुचेरि का औपनिवेशिक अतीत उसके रेशों को एक अलग तरह के आकर्षण और सम्मोहन से माड़ता है। जब भी मेरे मन में पुदुचेरि की चाक्षुष-प्रतीति उपजती है, तो वह मुझे बरबस पुलिन पर आमंत्रण में बांहे फैलाये नफासतपंसद पुरनूर शख्सियत सा नज़र आता है।
पुदुचेरि सुरम्य नगरी है। समुद्र की लहरें उसे पखारती हैं। पुदुचेरि का समुद्र से गहरा और अभिन्न नाता है। समुद्र के रास्ते आये बहिरागतों और नेमतों ने उसे रचा है। करीब तीन सौ सालों तक यह फ्रांस का उपनिवेश रहा। लगभग तीन शताब्दियों का यह घटनाप्रधान अंतराल सन 1664 से सन 1954 ईस्वी के दरम्यान फैला हुआ है। सन 1664 यानी तब जब सम्राह आलमगीर औरंगजेब दिल्ली में तख्तनशीं था। 18वीं सदी के मध्य में यहां अपूर्व समृद्धि का आगमन हुआ। वस्तुत: सन् 1744-1763 के मध्य डेक्कन में हुए युद्धों ने दक्षिण भारत के औपनिवेशिक स्वरूप का निर्धारण कर दिया था। पुदुचेरि के इतिहास में फ्रांसीसी गवर्नर जोसेफ द्यूप्ले के योगदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता। ग्रेनाइट से फ्रांस में बनी द्यूप्ले की दो प्रतिमाओं में से 2.188 मीटर ऊँची एक प्रतिमा पुदुचेरि में एवेन्यू पर स्थापित है और दूसरी फ्रांस में, किन्तु घूप्ले की स्मृति में मेमोरियल और शोध संस्थान की स्थापना की ज़रूरत अर्से से महसूस की जा रही है।
द्यूप्ले का करियर ही नहीं, फ्रांस और पुदुचेरि का रिश्ता भी धूपछांही ही रहा है। अंग्रेजों के मुकाबले फ्रेंच करीब आधी सदी बाद भारत आये। ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना सन 1600 में हुई, तो डच फ्रेंच ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना क्रमश: सन् 1600 और सन 1642 में। फ्रांसीसी कार्डिनल ज्यां बैप्टिस्ट रिछेलियेऊ के सन 1664 में मैडागास्कर अभियान के बाद फ्रेंच बेड़ा सूरत और पुदुचेरि पहुंचा। भारत में फ्रांसीसियों ने पांडिचेरी, मछली-पटनम और चंदननगर में कोठियां बनायीं। सन 1674 में फ्रेंच गवर्नर फ्रांस्वां मार्टिन के काल में पांडिचेरि गांव से गोदी में तब्दील हुआ। अगली सदी के पूर्वार्द्ध में पांडिचेरी बड़ा और धनी शहर हो गया। सन 1693-97 में यह डचों के कब्ज़े में रहा तो सन 1761-65, सन 1793-1802 और सन 1803-16 के वर्षों में यह अंग्रेजों के अधीन रहा। लेकिन अंतत: आंग्ल-फ्रेंच संधि के तहत यह फ्रांस के ताबे में आया। सन 1962 में फ्रांस की संसद ने इसके भारत में विलय की पुष्टि की। इसके पूर्व 28 मई, 1958 की इंडो-फ्रेंच संधि से इसके स्वरूप को संरक्षित किया गया।
पांडिचेरि यानि पुदुचेरि अब भारत का केन्द्र शासित राज्य है, किन्तु वहां की दरोदीवार पर फ्रेंच कल्चर की छाप है। इसे ऋषि अगस्त्य की तपोभूमि की संज्ञा दी जाती है। चार किमी दूर स्थित अरिकमेडु कभी बड़ी पत्तन था, जहां से ईसा पूर्व की द्वितीय शती में रोम से कपड़ा, रत्न और आभूषणों का निर्यात और वाइन का आयात होता था। करीब डेढ़ सौ वर्ष पूर्व तक सक्रिय फ्रेंच जेसुइट मिशन के खंडहर अतीत के वैभव-स्मारक है। आनंद रंगपिल्लै महल की डायरियों में भारत-फ्रांस रिश्तों की गाथाएं क़ैद हैं। विलन्नूर में दस दिनों का ब्रहमात्सव औपनिवेशिककाल में भी होता था और आज भी होता है। उल्लेखनीय बात यह है इसकी रथयात्रा में रथ को फ्रेंच गवर्नर खींचते थे। यह स्थानीय परंपरा के प्रति फ्रेंच सम्मान का परिचायक है और लोक में औपनिवेशिक शासकों की पैठ और सम्मान का उपक्रम भी।
पुदुचेरि में पंक्तिबद्ध पेड़ों के मध्यम से गुजरती सड़क आकर्षित करती है। पीताभ विलाये मन मोहंती हैं। होटल अच्छे है। उनमें एलीट टच है। विला शांति की इमारत 19वीं शती की है। बारिश में समुद्र का भीगना पुलकित करता है। दरअस्ल, रूमानी शहर है पुदुचेरि। समुंदर और शहर एक दूजे के इश्क की गिरफ्त में हैं। पुदुचेरि का पुराना लाइटहाउस एक सितंबर, सन 1836 को अस्तित्व में आया था। 27 मीटर ऊंची इसकी सफेद मीनार का गुंबद हरा था और ऊपर बाल्कनी भी थी। इसे तत्कालीन गवर्नर सेंट साइमन ने बनवाया था इंजीनियर थे लुई गुएरे। इस पर करीब दस हजार फ्रैंक का खर्च आया था। इसका चौकार आधार नौ मीटर गहरा था और इसकी चमकीली रोशनी 15 मील दूर से देखी जा सकती थी। इसमें छह आइल लैंप और दो परावर्तक प्रयुक्त थे। सन 1913 में इनका स्थान इलेक्ट्रिक लैंपों ने ले लिया। 36 सेकेंड में एक घूर्णन के इस नये लाइट हाउस की रोशनी 26 नॉटिकल मील से देखी जा सकती थी।
मुख्य धारा के पत्रों में पुदुचेरि जब-तब कहें तो भूले-भटके सुर्खियों में आता है, अन्यथ उससे हमारी वाकफियत कम है और हम वहां की गतिविधियों से प्राय: अनजान हैं। पुदुचेरि में डबल-इंजन सरकार है, अलबत्ता वहां की राजनीतिक हलचल हमारे वास्ते प्याली में तूफान हुआ करती है। पुदुचेरि में कांग्रेस-द्रमुक की साझा पैठ कम गहरी नहीं है और यह इसी का परिणाम है कि पुदुचेरि के प्रबुद्ध मतदाताओं ने कांग्रेस के वरिष्ठ और अनुभवी नेता वी वैथिलिंगम को पुन: लोकसभा में अपना प्रतिनिधि चुनकर भेजा है। वैथिलिंगम को राजनीति अपने पिता से विरसे में मिली है और उन्होंने अपने आचरण से राजनीति में खासी प्रतिष्ठा अर्जित की है।
विभिन्न धार्मिक पर्वों पर पुदुचेरि की छटा देखते बनती हैं। बड़ा दिन यानि क्रिसमस यहां धूमधाम से मनाया जाता है। क्रिसमस पर पुदुचेरि में परंपरायें जीवंत हेडिख्ती हैं। इस वर्ष भी मिशन स्ट्रीट, नेल्लीथोप, विलन्नूर, द्यूमा-स्ट्रीट आदि स्थानों पर गिरजाघरों में बड़ा दिन हर्षोल्लास से मनाया गया। वह अद्भुत दृश्य था, जब द्यूमा स्ट्रीट स्थित चर्च में अंग्रेजी, फ्रेंच और तमिल में समवेत प्रार्थनायें संपन्न हुईा। पूर्व, मुख्यमंत्री वी. नारायणस्वामी ने भी प्राचीन कैथेड्रल में सामूहिक प्रार्थना में भाग लिया। पर्वों की सार्थकता भी तभी है, जब वे धार्मिक सौमनस्य और समरसता के संचारक हों।
पुदुचेरि में सामाजिक संरचना संशिलष्ट है और राजनीति मुख्यत: दो धड़ों में विभक्त है। बीजेपी की भगवा-राजनीति को यहां बमुश्किल पांव टिकाने की जगह मिली है और वह संप्रति सत्ता में है। इधर विधानसभा-अध्यक्ष आर. सेल्वम का आचरण भी जेरे-बहस है, और दो निर्दलीयों-नेहरू ऊर्फ कुप्पुस्वामी तथा पी. अंगलेन ने उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव की पहल की है। राजगोपाल पलनीस्वामी युवा पत्रकार हैं और अंग्रेजी व तमिल में लिखते हैं। उनकी रूचियों का फलक व्यापक है और श्रीलंका के तमिल बहुल इलाके, जहां उनके गहरे संपर्क हैं, में उनका खूबे आना-जाना है। उनसे बतियाना पुदुचेरी की राजनीति की वर्णमाला को बूझना है। पुदुचेरि पर उनकी किताब की योजना के फलीभूत होने का अर्थ होगा हमारे हाथों में एक प्रामाणिक संदर्भ-ग्रंथ, जिसका सर्वथा अभाव है। पुदुचेरि में हिन्दी के लिये आकाश है और अवकाश भी। वहां हिन्दी बोली और सकारी जाती है। विभिन्न सरकारी दफ्तरों में आये अफसर, बाहरी कारोबारियों तथा सैलानियों से हिन्दी के प्रचलन को गति मिली है और विस्तार भी। पुदुचेरि के महर्षि अरविंद दीक्षा भूमि होने ने कई सन्दर्भों में उत्प्रेरक की भूमिका निभायी है। ज़िक्र जरूरी है कि महाकवि सुबुमण्यम भारती गिरफ्तारी से बचने के लिए पुदुचेरि आये थे और उन्होंने यहीं से अखबार निकाला। उन्होंने सन 1906-07 में तमिलों से हिन्दी सीखने का आग्रह किया था। उनकी पत्रिका में कुछ पन्ने हिन्दी में भी रहते थे। यह भारत में महात्मा गांधी की सक्रियता और उनके हिन्दी प्रचार से डेढ़ दशक पहले की बात है। पुदुचेरि में हिन्दी के प्रकाशन का क्रम भी सन 1940 की दहाई से शुरू से शुरू होता है। सन 1942 में आश्रम से मासिक ‘अदिति’ निकली भारत माता, स्वर्णहंस, पुरोधा और अग्निशिखा से यह सिलसिला आगे बढ़ा।
जयशंकर बाबू बतौर शिक्षक राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित हैं। वह पुदुचेरि में हिन्दी लेखन और प्रचार-प्रसार में अग्रणी हैं। वह पुदुचेरि विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं, जहां हिन्दी में स्नातकोत्तर अध्ययन और पीएचडी की व्यवस्था है।’ युगमानस’ के संपादन के अलावा वह बीते 14 सालों से ऑनलाइन-पत्रिका ‘अंतर्भारती’ का संपादन कर रहे हैं। चौदह साल पहले पुदुचेरि आये जयशंकर अब यहीं के होकर रह गये हैं। वही क्यों? और भी कई लोग हैं, जो पुदुचेरि में आ बसे हैं। एम्स से सेवानिवृत्त डॉ. आनंद का मन पुदुचेरि में रमता है। उन्होंने जायसीकृत ‘पद्मावत’ का अंग्रेजी में अनुवाद किया है। हिन्दी थिसारस से ख्याति-प्राप्त अरविन्द कुमार प्राय: सपत्नीक यहां आते थे। लखनऊ से हरिचरण और केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के महावीर शरण जैन भी ऐसों में शुमार है। जयशंकर बताते हैं कि यहां की रोम्या रोलां लाइब्रेरी में लगभग दस हजार हिन्दी किताबें हैं। कभी यहां से हिन्दी साप्ताहिक भी निकला था, लेकिन दुर्भाग्य से चला नहीं। ‘राजस्थान पत्रिका’ का चेन्नै संस्करण यहां आता है। यहां फ्रेंच कौंसुलेट और फ्रेंच कल्चरल सेंटर है और फ्रेंच को अभी भी समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त है।
इसे मणिकांचन योग ही कहेंगे कि पुदुचेरि लिटफेस्ट के परिदृश्य में उभर आया है। इसका श्रेय पुदुचेरि लिटफेस्ट की आयोजक सुश्री गायत्री मजूमदार को जाता है। कोलकाता के भद्र बंगाली परिवार में जनमी गायत्री ने बरसों-बरस मुंबई में पत्रकारिता की। वे भी उन लोगों में हैं जिन्हें पुदुचेरि रास आ गया। सन 2015 से वह यहीं है और अरबिन्दों सोसायटी से जुड़ी हुई है। मुंबई की अंजु मखीजा के सहयोग से उन्होंने सन 2017 में पहला लिटफेस्ट आयोजित किया था और कोरोना के विषम काल में भी इसे जिलाये रखा। मार्च, 25 के पहले सप्ताह में आठवें लिटफेस्ट का आयोजन होगा, जिसमें कविता और कथा के अलावा संगीत से जुड़े आमंत्रित कलाकार भी शिरकत करेंगे।
पुदुचेरि के पुलिन सुंदर हैं। बसाहट आकर्षक है और परिवेश सुरम्य। यहां के दस्तरखान की तो बात ही क्या। महकभरी कॉफी और लजीज व्यंजन। सामिष भी और निरामिष भी। फ्रेंच पेस्ट्री, हलवा, मैक्टोंस, नारियल लड्डू, बीफ पेटिस, प्रॉन रिसोटो, मुल्तानी पनीर टिक्का, मेदुवड़ा, पाइनएपल शीरा…., सामिष भरवां परांठे, मटन रोल्स, क्रैब मसाला, पोंडी मुसाका ग्रीक.. सामिष-प्रेमियों के लिये पुदुचेरि स्वर्ग है। सीफूड के शौकीनों के लिये भी आदर्श। यहां फ्रेंच मिठाइयां उपलब्ध हैं और कतिपय बर्नी व्यंजन भी। वस्तुत: वड़क्कम, नमस्कारम, बोंज़ूर और थैंकयू के सहअस्तित्व की नगरी है पुदुचेरी। सुस्वादु व्यंजनों की लंबी फेहरिस्त। और सबसे बढ़कर पुदुचेरि की आत्मीयता और उसकी नफ़सत….। पलनीस्वामी पुदुचेरि के जन्मना नागरिक हैं। चेन्नै में हम मिले। बतियाये। पुदुचेरि की बात चली तो वे मुस्कुराये। उन्होंने सस्मित कहा -“पौनें! बिहाँवेन्यूँ आं पोंदिशेरि।”
यानि, आइयें! पुदुचेरि में आपका स्वागत है।
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